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मुसलमान सब्र बरतें.. दो तस्वीरों में नौ साल की कथा.. सरकार की हार न कि प्यार की.. क्या नरेंद्र मोदी बनेंगे द बॉस.? आदम युग की मिसाल एक गाँव.. राहुल गांधी की हृदय छूती नई राजनीति.. बलात्कार की उलझन भरी रिपोर्ट.. डॉ बी एस तोमर पर फिर से यौन शोषण का मामला….

-सर्वमित्रा सुरजन॥

कांग्रेस शायद इस सच को स्वीकार ही नहीं कर रही है कि उसका मुकाबला भाजपा जैसी मजबूत पार्टी से है, जो एक चुनाव खत्म होते ही, अगले चुनाव की तैयारी में लग जाती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुशासित कैडर के भरोसे भाजपा का उत्तम चुनाव प्रबंधन होता है। चुनाव के दौरान कौन से मुद्दों से वोट हासिल किए जा सकते हैं, इस पर पार्टी अच्छा-खासा अध्ययन करती है।

मानहानि मामले में दो साल की सजा के खिलाफ राहुल गांधी की याचिका पर आज सुनवाई होगी। राहुल गांधी की जमानत भी आज यानी 13 अप्रैल तक ही थी। आज की अदालती कार्रवाई का जो भी नतीजा निकलेगा, कांग्रेस अपनी भावी रणनीति उसी के मुताबिक तय करेगी। अगर राहुल गांधी की सजा बरकरार रही तो फिर अगले चुनावों में वे नहीं उतर पाएंगे। तब क्या कांग्रेस प्रियंका गांधी को राहुल गांधी के विकल्प की तरह पेश करेगी या गांधी परिवार से केवल सोनिया गांधी ही चुनाव लड़ेंगी।

इन सवालों के जवाब आने वाले वक्त में मिल ही जाएंगे। मगर फज़र् कीजिए कि राहुल गांधी की सजा खारिज हो जाती है, वे दोषमुक्त हो जाते हैं और लोकसभा में उनकी सदस्यता भी बहाल हो जाती है, तब तो यह तय है कि वे 2024 के आम चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी बनेंगे ही, बस ये देखना होगा कि वायनाड के अलावा श्री गांधी अमेठी से भी उतरेंगे या नहीं। सियासी कल्पना को थोड़ा और विस्तार देकर हम यह भी मान लें कि राहुल दोनों क्षेत्रों से जीत जाते हैं, तब वे किस सीट को बरकरार रखेंगे और किसे छोड़ेंगे, ये भी एक दिलचस्प सवाल रहेगा।

2024 का चुनाव भाजपा बनाम कांग्रेसनीत विपक्ष रहेगा, इसकी संभावनाएं भी प्रबल हो रही हैं। और सोशल मीडिया पर तो ये प्रतियोगिता लंबे वक्त से चल रही है कि प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी जनता के पसंदीदा अब भी बने हुए हैं या राहुल गांधी जनता की नयी पसंद बन चुके हैं। यानी अगले आम चुनाव में भाजपा और कांग्रेस का ही मुकाबला नहीं होगा, बल्कि माहौल राहुल गांधी बनाम नरेन्द्र मोदी होगा। अब ये कल्पना भी कर लें कि कांग्रेस और उसके नेतृत्व में बना विपक्षी मोर्चा भाजपा के जीत का रथ रोक देता है और देश नयी सरकार के शासन के लिए तैयार होता है, तब इस संभावित यूपीए-3 में प्रधानमंत्री का चेहरा कौन होगा।

क्या संयुक्त मोर्चा के दौर वाले प्रयोग यूपीए-3 में होंगे। क्या ताश के पत्तों को फेंट कर किसी एक पत्ते को निकालकर उसे प्रधान बना दिया जाएगा। क्या गठबंधन के घटक दलों में एक ही चेहरे पर सहमति बन जाएगी। क्या कांग्रेस से ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार सामने आएगा। अगर ऐसा हुआ तो क्या राहुल गांधी वो चेहरा बनेंगे, जिस पर सभी दल तैयार हो जाएंगे। ऐसे कई सवाल हैं, जो अगले कुछ महीनों में सत्ता के गलियारों में उठने लगेंगे। जनता के बीच इन सवालों के संतोषजनक जवाब जितनी जल्दी पहुंचेंगे, धुंध उतनी जल्दी छंटेगी और जनता को भी यह तय करने में आसानी होगी कि वह देश की बागडोर किसे सौंपे। लेकिन कांग्रेस का जो सूरत-ए-हाल है, उसमें तस्वीर और धुंधली नजर आ रही है। क्योंकि महत्वपूर्ण चुनावों से पहले कांग्रेस में बगावत का सिलसिला फिर शुरु हो गया है, और इससे होने वाले नुकसान की तैयारी में कांग्रेस की कोई दिलचस्पी नहीं दिख रही है।

कांग्रेस शायद इस सच को स्वीकार ही नहीं कर रही है कि उसका मुकाबला भाजपा जैसी मजबूत पार्टी से है, जो एक चुनाव खत्म होते ही, अगले चुनाव की तैयारी में लग जाती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुशासित कैडर के भरोसे भाजपा का उत्तम चुनाव प्रबंधन होता है। चुनाव के दौरान कौन से मुद्दों से वोट हासिल किए जा सकते हैं, इस पर पार्टी अच्छा-खासा अध्ययन करती है। उस मुताबिक जनता की भावनाओं को भुनाने का काम करती है।

भाजपा की नीतियों से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन इस सच को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि भाजपा का चुनावी कौशल जबरदस्त है। और लोकतंत्र में चुनाव अंकों का ही खेल है। जैसे परीक्षा में जो विद्यार्थी रट-घोट कर अच्छे अंक ले आता है, वही पदक का दावेदार होता है, भले दूसरे विद्यार्थी की समझ और विवेक उससे बेहतर हो, लेकिन प्रश्नपत्र जांचने वाला उत्तरपुस्तिका के हिसाब से ही अंक देता है। जिसके उत्तर उसके मनमुताबिक होते हैं, उसे अंक मिलते हैं, बाकी अपना ज्ञान लेकर बैठे रह जाते हैं।

चुनावी परीक्षा में कांग्रेस का हाल फिलहाल दूसरे विद्यार्थी जैसा ही है, जो इसी गुमान में है कि वो देश की सबसे पुरानी पार्टी है, उसके पास देश की सत्ता सबसे अधिक वक्त तक रही है, वो संविधान का सम्मान करती है, धर्मनिरपेक्षता को तवज्जो देती है, भारत के विचार को साथ लेकर चलती है। इन खूबियों पर गर्व होना ही चाहिए, लेकिन इसके साथ ही ये कोशिश भी होनी चाहिए कि जनता तक कांग्रेस की इन खूबियों का संदेश जाए। अभी तो ऐसा बिल्कुल नहीं हो रहा। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है, जिसमें हिमाचल में तो अभी सत्ता मिली है, छत्तीसगढ़ में इस बार भी पिछले चुनावों की तरह बेहतर प्रदर्शन होगा, इसकी उम्मीद है, लेकिन राजस्थान में हालात बेकाबू हैं। पूर्व उपमुख्यमंत्री और पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने फिर अपनी उड़ान की अलग दिशा तय की। वे अशोक गहलोत से हिसाब बराबर करने के फेर में समूची सत्ता को दांव पर लगा रहे हैं। ऐसा पहली बार होता तो कांग्रेस का असमंजस समझ में आता था।

लेकिन चुनावों के चंद महीने पहले इस तरह की नाफरमानी पार्टी को कितना नुकसान पहुंचा सकती है, ये बात श्री पायलट भी समझते हैं और कांग्रेस आलाकमान भी। लेकिन फिर भी उन्होंने ऐलानिया अनशन कर अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा किया। बगावती तेवर सचिन पायलट पहले भी दिखा चुके हैं। मगर कुछ दिनों की नाराजगी और मान-मनौव्वल के बाद सब कुछ ठीक है, मान लिया गया। हालांकि इसके बाद जब सचिन पायलट अपने घर भोजन पर ऐसे पत्रकारों को निमंत्रित करते हैं, जिनका एकमात्र एजेंडा राहुल गांधी और नेहरू परिवार की छवि को खराब करना है, तब भी कांग्रेस के वरिष्ठ लोग इसे अनदेखा कर बता देते हैं कि गांधी परिवार के विरोधी केवल भाजपा या दूसरे दलों में नहीं हैं, कांग्रेस के भीतर भी ऐसे नेता भरे पड़े हैं।

क्या भाजपा में इस तरह के माहौल की कल्पना की जा सकती है। वहां तो दो लोगों का खौफ ऐसा है कि चुनाव के ऐन पहले मुख्यमंत्री समेत पूरी कैबिनेट बदल कर नए लोगों के साथ मंत्रिमंडल बना लिया जाता है और कोई चूं भी नहीं करता। अगर करे तो उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने में वक्त नहीं लगता। भाजपा का मीडिया प्रबंधन भी ऐसा तगड़ा है कि लाख बुराइयों के बावजूद मीडिया दिन-रात सरकार के कसीदे पढ़ता है। सीधा सा हिसाब है जनता जो देखती है, उसे ही सच मानती है।

पिछले नौ सालों के मोदीजी के कार्यकाल का लेखा-जोखा तैयार करें तो उपलब्धियां ना के बराबर और नाकामियों की सूची बहुत लंबी रहेगी। लेकिन जनता तक इन नाकामियों को भी पिछली सरकारों के दोष के रूप पहुंचा कर मोदीजी को देश के उद्धारक के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। और कांग्रेस इसका मजबूती से जवाब भी नहीं दे पाई। राहुल गांधी तो लगातार मोदी सरकार को आईना दिखाते रहे हैं, लेकिन वे अकेले किस-किस से निपटें। भाजपा के हमलों का सामना करें या अपनी पार्टी में पल रहे सांपों का।

भारत जोड़ो यात्रा जैसा कोई कमाल नरेन्द्र मोदी ने किया होता, तो अब तक भाजपा उनकी ख्याति सात आसमानों से भी ऊपर पहुंचा देती। मोदीजी 18 घंटे काम करते हैं, थकते क्यों नहीं, इसी बात को कितना ज्यादा बढ़ा कर जनता तक पहुंचाया जाता है। और राहुल गांधी ने 4 हजार किमी पैदल नाप दिए, रोज हजारों लोगों से संवाद किया, लाखों लोगों के सामने अपने राजनैतिक उद्देश्य को रखा, मीडिया से लगातार बात की, फिर भी यात्रा के खत्म होने के तीन महीनों के भीतर ही उसकी चर्चा गायब हो गई। जब तक यात्रा थी, तब भी मीडिया में कोई कवरेज नहीं मिलता था। अब तो चर्चा का सवाल ही नहीं। बल्कि मीडिया कांग्रेस के कमजोर होने की खबरों से अटा पड़ा है और इन खबरों को देने वाले खुद कांग्रेसी ही हैं।

सांसदी खत्म होने के बाद राहुल गांधी वायनाड पहुंचे तो उनके साथ प्रियंका गांधी और कुछ वरिष्ठ नेता थे। मतलब यहां भी राहुल एक तरह से अकेले ही थे। उधर मोदीजी ट्रेन को हरी झंडी भी दिखाते हैं, तो उनके आसपास मधुमक्खी की तरह भाजपाई रहते हैं। अपने नेता को इस तरह अकेला करके, उसके खिलाफ साजिशों के लिए जगह बनाकर, कांग्रेस कैसे भाजपा का मुकाबला करेगी, इस सवाल पर कांग्रेस ईमानदारी से विचार करे।

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