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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

गुजरात की खबर है कि एक दलित आदमी को ऊंची कही जाने वाली जाति के कुछ लोगों ने बनासकांठा जिले में पीटा जो कि इस दलित व्यक्ति के अच्छे कपड़े पहनने और धूप का चश्मा लगाने से खफा थे। पुलिस में इस व्यक्ति ने रिपोर्ट लिखाई है कि उसे और उसकी मां को पीटा गया। यह कहा गया कि वह इन दिनों बहुत ऊंचा उड़ रहा है, और उसे कत्ल की धमकी दी। उसी रात राजपूत समुदाय के आधा दर्जन लोगों ने लाठियों से लैस होकर कपड़ों और चश्मे को लेकर उसे गालियां बकीं और उसे पीटा। जब उसकी मां उसे बचाने आई तो उसे भी मारा गया और उसके कपड़े फाड़ दिए गए। अभी तक इसमें कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है। दलितों के खिलाफ यह रूख पूरी तरह अनदेखा-अनसुना नहीं है। देश भर में जगह-जगह आज भी दलितों को प्रताडऩा के लायक माना जाता है। सोशल मीडिया पर उत्तरप्रदेश का कहा जा रहा एक ऐसा वीडियो भी तैर रहा है जिसमें किसी सरकारी सर्वे के लिए एक हेडमास्टर किसी घर पहुंचे हैं, और वहां पर ब्राम्हण गृहस्वामी उनके कपड़ों से धोखा खाकर उन्हें पानी के लिए पूछ लेते हैं, और पानी देने पर हेडमास्टर उसे गिलास से पी लेते हैं। इसके बाद जैसे ही ब्राम्हण देवता को पता लगता है कि हेडमास्टर हरिजन है, तो उसे चीख-चिल्लाकर, फटकारकर भगा देता है कि गिलास से पानी पीने की हिम्मत कैसे हुई। अब इस वीडियो की सच्चाई तो अभी सामने नहीं आई है, लेकिन हर कुछ महीनों में कहीं न कहीं से दलितों के खिलाफ जुल्म की खबरें आती ही हैं।

एक तरफ तो हिन्दू समाज अपनी आबादी को बढ़ा-चढ़ाकर बताने पर आमादा रहता है, और गिनती लगाते समय दलितों और आदिवासियों को हिन्दुओं में गिना जाता है, दूसरी तरफ दलितों से बर्ताव ऐसा होता है कि वे हिन्दू धर्म छोडक़र दूसरे धर्मों में जा रहे हैं, हर बरस दसियों लाख लोग हिन्दू धर्म छोड़ रहे हैं, लेकिन यह धर्म अपने शूद्रों के साथ बर्ताव नहीं सुधार रहा। अब तो देश का कानून इतना कड़ा हो गया है, और जगह-जगह एसटी-एससी एक्ट के तहत कार्रवाई भी हो जाती है, इसलिए दलितों पर हिंसा अब उतनी खुलकर नहीं होती, लेकिन दलित अपने ध्रुवीकरण को खो भी बैठे हैं। अब दलितों की किसी पार्टी के रूप में मायावती की बसपा अपनी ताकत खो बैठी है, मायावती जुबान खो बैठी हैं, और जिस उत्तर भारत में एक वक्त बसपा का सिक्का चलता था, आज दलितों के पास वहां कोई राजनीतिक पसंद नहीं रह गई है। मायावती अपने ही कई किस्म के गलत कामों में उलझकर रह गई हैं, और पिछले चुनावों में उन्होंने तकरीबन घर बैठने का काम किया है। लेकिन उनकी कुनबापरस्त पार्टी किसी और दलित पार्टी के लिए जगह भी खाली नहीं कर रही है। लोगों को याद होगा कि एक वक्त कांग्रेस दलितों की पसंदीदा पार्टी होती थी, लेकिन फिर जब दलितों की अपनी पार्टी बन गई, उसने जोर पकड़ लिया, तो दलितों ने हाथ का हाथ छोड़ दिया।

हिन्दुस्तानी राजनीति में जिस जाति के संगठनों की ताकत है, सरकारों की नजरों में उन्हीं का महत्व है। दलित जब कई पार्टियों के बीच बंट जाते हैं, तो वे एक जाति या समुदाय के रूप में अपना वजन खो बैठते हैं। आज हिन्दुस्तान में नौबत यही है। और तो और जिस महाराष्ट्र में अंबेडकरवादी दलित लोगों की बड़ी संख्या है, वहां भी उनके वोट बाकी चार प्रमुख पार्टियों के बीच भी बंटते हैं, और इसीलिए दलितों को वहां जायज राजनीतिक हक नहीं मिल पाता। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी ऐसा ही देखने मिलता है। हिन्दीभाषी प्रदेशों और पंजाब जैसे कुछ दूसरे राज्यों में भी बसपा की एक संभावना थी, लेकिन वह अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है। अब बसपा का अस्तित्व बहुत तेजी से खत्म होना जरूरी है ताकि उसका कोई विकल्प सामने आ सके, और यह काम भी बड़ी तेज रफ्तार से होने का नहीं है, इसमें भी कुछ चुनाव निकल जाएंगे।

हिन्दुस्तान की चुनावी राजनीति में जातियों का दबदबा ऐसा है कि आज तमाम प्रदेशों में ओबीसी सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है क्योंकि इनका आबादी में अनुपात भी काफी है, और ये बड़ी तेजी से राजनीतिक ध्रुवीकरण करते हैं। यूपी-बिहार के अलावा छत्तीसगढ़ भी इसकी एक बड़ी मिसाल है कि अब यहां कांग्रेस और भाजपा दोनों बड़ी पार्टियां ओबीसी के अलावा कुछ नहीं सोच पा रही हैं। किसी पार्टी पदाधिकारी या सत्ता के किसी को हटाने की बात हो, तो ओबीसी की जगह सिर्फ ओबीसी नाम पर चर्चा होती है, और वैसा ही मनोनयन होता है। बिहार में जाति जनगणना के पीछे ओबीसी ही सबसे बड़ा मुद्दा है, और आज भारत की चुनावी राजनीति का पूरी तरह से ओबीसीकरण हो गया है। एक वक्त था जब दलितों पर जुल्म के मामले सामने आते थे तो सरकारें हिल जाती थीं। अब वह सिलसिला खत्म हो गया है। अब दलित हो या आदिवासी उन पर जुल्म से सरकारों की सेहत पर पहले सरीखा फर्क नहीं पड़ता। कई जगहों पर तो यह भी देखने में मिलता है कि प्रदेश में ताकतवर दो या तीन बड़ी पार्टियां, सभी के रूख इन तबकों के लिए एक सरीखे रहते हैं, और सभी बेफिक्र रहती हैं कि दलित-आदिवासी जाएंगे तो जाएंगे कहां?

इसलिए भारत में दलितों पर जुल्म की घटनाओं को सिर्फ पुलिस के नजरिये से नहीं देखा जा सकता, और न ही इन्हें सिर्फ पुरानी वर्ण व्यवस्था के आधार पर देखा जा सकता है। आज जब तक किसी राजनीतिक दल को दलितों के ध्रुवीकरण का खतरा नहीं दिखेगा, सत्ता या प्रतिपक्ष इनके मुद्दों के प्रति बेपरवाह बने रहेंगे। आज देश में दलितों का किसी बैनरतले एक होना जरूरी है, और ऐसा होते ही सरकारों और पार्टियों का रूख उनके प्रति बदल जाएगा।

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