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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

हिन्दुस्तान के लोग पिछले दो-तीन दिनों से हिमालय पहाड़ी क्षेत्र में हो रही तबाही के वीडियो देखकर दहले हुए हैं। इनमें जम्मू और श्रीनगर के बीच के हाईवे पर एक सुरंग के मुहाने पर बहकर खत्म हो गई पहाड़ी सडक़ का वीडियो सबसे ही भयानक दिखता है, लेकिन हिमाचल से ऐसे और कई वीडियो आए हैं जिनमें नदियां तबाही फैलाते हुए बस्तियों के भीतर घुस रही हैं, और साथ वे लकडिय़ों के इतने लट्ठे और इतना कीचड़ लेकर आ रही हैं कि पूरा गांव उससे पट जा रहा है। कुछ पुलों पर खड़े हुए लोग बहती हुई कारों के वीडियो बना रहे हैं, और किनारे खड़े कुछ लोग लोहे के बहते हुए पुलों को भी कैमरों पर कैद कर रहे हैं। अभी तो बारिश का पूरा विकराल दौर शुरू भी नहीं हुआ है, और तबाही इस हद तक पहुंची दिख रही है, आगे जाने क्या होगा। और जिस तरह जम्मू-श्रीनगर हाईवे बह गया है, उसकी तो अगले लंबे वक्त तक मरम्मत भी मुमकिन नहीं दिख रही है क्योंकि उसके नीचे की पूरी पहाड़ी ही धसक गई है।

हिन्दुस्तान में हिमालय पर्वतमाला के बहुत से हिस्सों में इतना बेतरतीब विकास हो रहा है कि ऐसी और इससे भी बुरी तबाही का खतरा खड़े ही रहेगा। लोगों को याद होगा कि दस बरस पहले केदारनाथ में जो विकराल बाढ़ आई थी, उसकी भविष्यवाणी भी किसी ने नहीं की थी, और उससे हुई तबाही का ठीक-ठीक अंदाज तो आज तक नहीं लग पाया है, क्योंकि बहुत से बेघर लोग उसके मलबे में कहीं-कहीं दबे पड़े होंगे, और उनकी खबर भी किसी को नहीं होगी। किसी भी धर्म के तीर्थस्थानों के आसपास ऐसे बहुत से गरीब, बेघर, बीमार, बूढ़े रहते हैं जो कि श्रद्धालुओं से मिली भीख पर जिंदा रहते हैं, और जिनके न रहने पर उनके नाम पर रोने वाले लोग नहीं रहते। ऐसे कितने ही लोग केदारनाथ की बाढ़ में मरे होंगे, और उनका हिसाब भी नहीं रहा होगा।

कश्मीर से लेकर हिमाचल और उत्तराखंड तक केन्द्र और राज्य सरकारें मिलकर और अलग-अलग जितने किस्म के प्रोजेक्ट चला रही हैं, और उनसे जो खतरे खड़े हो रहे हैं, उनके बारे में कुछ दिन पहले इस अखबार के यूट्यूब चैनल पर एक पर्यावरण-पत्रकार हृदयेश जोशी का एक इंटरव्यू पोस्ट किया गया था जिन्होंने केदारनाथ की दस बरस पहले की तबाही के बाद सबसे पहले वहां पहुंचकर रिपोर्टिंग की थी, और किताब लिखी थी। उन्होंने भी पहाड़ी इलाकों के नाजुक पर्यावरण और वहां की जमीन की सीमित क्षमता के बारे में बहुत कुछ कहा था, जिसे अलग से देखा-सुना जा सकता है। ऐसे कई जानकार लोगों का कहना यही है कि नेता, अफसर, और ठेकेदार मिलकर अंधाधुंध प्रोजेक्ट बना रहे हैं जिसमें उनके हाथ मोटा कमीशन लगे, लेकिन प्राकृतिक विपदा का खतरा चाहे कितना ही बढ़ता क्यों न चले। अभी जिस तरह एक मामूली बारिश, जो कि इस मौसम की शुरूआत ही है, वही दिल दहलाने वाले जैसे नजारे दिखा रही है, उससे किसी विकराल बारिश की नौबत में हालत का अंदाज लगाया जा सकता है। जिस तरह सडक़ों को चौड़ा करने, सुरंगें बनाने, नदियों पर बांध बनाने, नदियों के किनारे किसी भी तरह के निर्माण और खुदाई का मलबा पटक देने का काम चल रहा है, वह अभी दो दिनों के वीडियो में दिख रहा है कि पानी कितना कीचड़ और मलबा लेकर आ रहा है। पानी अगर सिर्फ पानी रहता, तो वह अधिक तबाही किए बिना निकल गया रहता, लेकिन जब पानी किनारों पर डाल दिए गए मलबों को बहाकर ला रहा है तो वह नदियों को उससे पाट भी रहा है, और उथली रह गई नदियां बाढ़ का पानी समा नहीं पा रही हैं, और पानी किनारों पर और दूर तक बढ़ रहा है, वह और अधिक मलबा और किनारे का सामान बहाकर ला रहा है। नदियों में गाद का जो भराव हो रहा है, उससे नदियों की पानी ढोने की क्षमता घटती जा रही है, और बाढ़ की नौबत में पानी किनारों पर अधिक दूर तक जाता है, और वहां से अधिक मलबा लाकर नदियों को और पाट देता है। यह सिलसिला बढ़ते ही चल रहा है।

हमने उस यूट्यूब इंटरव्यू पर भी इस खतरनाक नौबत को सामने रखा था, और पर्यावरण के जानकार लोग हमेशा से ही पहाड़ी इलाकों से ऐसा खिलवाड़ करने के खिलाफ चेतावनी देते आए हैं। पहाड़ों का भूगोल, वहां की जमीन के नीचे का ढांचा इस तरह का नहीं रहता है कि उससे ऐसे भयानक और गंभीर खिलवाड़ करने के लिए छूट ली जाए। फिर यह पूरा इलाका जिस तरह भूकंप के खतरे पर भी बैठा हुआ है, उसका भी ध्यान रखना चाहिए। लेकिन कहीं तीर्थयात्रा के लिए अधिक गाडिय़ों को तेजी से पहुंचाने के लिए चौड़े-चौड़े राजमार्ग बनाने पहाड़ों को काटा जा रहा है, तो कहीं पर्यटकों को अधिक ढोने के लिए पेड़ों को काटकर जमीन बनाई जा रही है। इन दोनों तबकों की बेतहाशा ढुलाई के लिए पहाड़ों के भविष्य को दांव पर लगा दिया जा रहा है, और यह भविष्य बहुत दूर का भी नहीं है, यह प्रोजेक्ट बनते-बनते ही तबाही लाने वाला भविष्य है जो कि पांच-दस साल के भीतर ही नतीजे दिखा रहा है। लंबे वक्त में पहाड़ों की ऐसी तबाही से और कितनी बर्बादी होगी, इसका अंदाज अगर लोगों को लग भी रहा है, तो भी वे इसे अनदेखा करने में ही मुनाफा देख रहे हैं। नतीजा यह है कि पहाड़ों पर परे से आने वाले तीर्थयात्रियों और सैलानियों की सहूलियतों के लिए वहां की कुदरत को, वहां के ढांचे को जितना तबाह किया जा रहा है, उसकी भरपाई कोई भी नहीं कर पाएंगे। लोगों को यह मान लेना चाहिए कि पहाड़ों की लोगों और ढांचों को ढोने की एक क्षमता है, और उससे अधिक छूट की उम्मीद करना इंसानों की खुद की तबाही होगी। धरती की सेहत पर पर्यावरण की ऐसी बर्बादी का कोई खास असर नहीं होना है क्योंकि इससे जितने इंसान तबाह होंगे, उससे धरती का पर्यावरण तबाह होना घटेगा भी। इसलिए कुदरत का एक संतुलन तो बने रहेगा।

पहाड़ों पर सडक़ों, सुरंगों, और पुलों को मुम्बई-पुणे एक्सप्रेस हाईवे की तरह का बनाने की जिद ऐसी बहुत सी तबाही ला रही है। फिर सैलानियों के लिए अधिक बिजली, अधिक पानी के लिए जो पनबिजली योजनाएं बनाई जा रही हैं, उनसे एक अलग तबाही आ रही है, और उससे भी बहुत बड़ी तबाही का खतरा खड़ा होते चल रहा है। चूंकि हिन्दुस्तान के बाकी अधिकतर हिस्सों के लोग अच्छे मौसम में पर्यटक-कस्बों को देखने चले जाते हैं, पहाड़ पर वक्त गुजारने चले जाते हैं, या तीर्थयात्रा के लिए चले जाते हैं, इसलिए उन्हें उस इलाके पर हमेशा के लिए खड़ा किया जा रहा खतरा दिखता नहीं है। बाकी देश का रिश्ता पहाड़ों से जिंदगी में कुछ बार बस कुछ-कुछ दिनों के लिए बनता है, इसलिए उन्हें उससे अधिक फिक्र हो भी नहीं सकती। लेकिन ऐसा लगता है कि इन पहाड़ी राज्यों की किसी भी योजना का काम पर्यावरण के बड़े जानकार लोगों की मदद से, बहुत ही तंगदिली से करना चाहिए, जो कि आज ठेकेदारों के नजरिए से, सत्ता की दरियादिली से, और अफसरों के भ्रष्टाचार से किया जा रहा है।

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