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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

भारत सरकार ने डेढ़ सौ बरस पुराने कुछ कानून बदल कर उनकी जगह नए कानून पेश किए हैं, इनमें अदालतों में पेश होने वाले मामलों से जुड़े हुए 3 बड़े कानून, इंडियन पीनल कोड, कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर, और एविडेंस एक्ट, इन तीनों की जगह भारतीय नाम वाले तीन नए कानून पेश किए गए हैं। अब ऐसा लगता है कि जहां कहीं इंडियन नाम था उन्हें बदलकर भारतीय किया जाएगा, और केंद्र सरकार की नीयत चाहे जो हो, सबसे पहले तमिलनाडु ने इन कानूनों में इस्तेमाल हिंदी शब्दों का विरोध किया है और इसे हिंदी तो थोपने की हरकत कहा है। केंद्र सरकार ने सफाई दी है कि ये शब्द हिंदी के नहीं हैं, बल्कि संस्कृत के हैं जिन्हें कि तमिलनाडु अपनी एक भाषा मानता है।

लेकिन भाषा से परे अगर देखें तो इन 3 कानूनों में जो फेरबदल प्रस्तावित हैं उनमें से कुछ अदालत और जेल में फंसे हुए लोगों के लिए एक बड़ी राहत साबित हो सकते हैं। अभी हम यह बात सिर्फ खबरों में दिख रही जानकारी को देखकर कह रहे हैं। कानून और अदालती प्रक्रिया के अधिक जानकार लोग बाद में हो सकता है कि इन प्रस्तावित कानूनों की बारीकियों को देखकर इनकी खामियां भी निकाल सकें, क्योंकि अंग्रेजी में कहा जाता है कि डेविल इज इन द डिटेल्स, यानी जो खतरनाक बात रहती है, वह बीच के हिस्से में, कहीं बारीक शब्दों में, दूसरी बातों के बीच में छुपाकर रखी जाती है, जो पहली नजर में आसानी से समझ नहीं आती, फिर भी पहली नजर में जो दिख रहा है, हम उन्हीं को लेकर आज यहां पर अपनी राय रख रहे हैं।

इसमें मॉब लिंचिंग पर 7 साल से लेकर मौत की सजा तक का प्रावधान किया गया है और मॉब की परिभाषा में 5 या 5 से अधिक लोगों के समूह के नस्ल जाति या समुदाय, लिंग, जन्मस्थान, भाषा, व्यक्तिगत विश्वास या किसी अन्य आधार पर की गई हत्या से उसे जोड़ा गया है। ऐसी भीड़ के हर सदस्य को कम से कम 7 बरस तक की कैद या फिर मौत की सजा भी दी जा सकती है। यह कानून महत्वपूर्ण इसलिए हो सकता है कि हिंदुस्तान में हर कुछ महीनों में कहीं न कहीं ऐसी भीड़ हत्या (हम इसके लिए भीड़त्या लिखने लगे हैं) सुनाई देती है। दूसरा महत्वपूर्ण फेरबदल यह दिख रहा है कि नाबालिग से गैंगरेप पर मौत की सजा का प्रावधान किया गया है और बलात्कार के मामलों में जो न्यूनतम सजा 7 साल थी उसे बढ़ाकर 10 साल कर दिया गया है। नाबालिग के साथ बलात्कार पर 20 वर्ष तक की कैद है। अब जब ऐसे कड़े क़ानून की चर्चा होती है तो याद पड़ता है कि देश और प्रदेश की सरकारें अपने पसंदीदा और चहेते बलात्कारियों को अदालती फ़ैसले के ठीक पहले तक किस तरह गोद में बिठाकर रखती हैं। कड़े क़ानून भी अगर लागू करने के लिए ज़िम्मेदार सरकारों की चुनिंदा नरमी के कैदी रहेंगे, तो फिर उनका कोई मतलब नहीं है। हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया का इतिहास गवाह है कि अमल और इस्तेमाल कमजोर रहे, तो क़ानूनों को महज़ अधिक कड़ा बनाते जाने का कोई फ़ायदा नहीं होता। आज संसद में पेश इस क़ानून को पास करने में ऐसे लोगों का भी वोट होगा जो दर्जन भर बलात्कार के आरोप झेलते हुए भी सरकार की आँखों के तारे हैं।

इसके अलावा एक दूसरा नया कानून हेट स्पीच और धार्मिक भड़काऊ भाषणों के बारे में प्रस्तावित है। अगर कोई व्यक्ति हेट स्पीच दे तो उस पर तीन बरस तक की कैद, और अगर धार्मिक आयोजन करके किसी वर्ग, तबके या धर्म के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिया जाता है, तो इस पर 5 बरस तक की कैद का प्रावधान होगा। यह एक अलग बात है कि आज हिंदुस्तान में ऐसे अधिकतर भाषण राज्य सरकारों की मेहरबानी से ही, उनकी रहमदिली और उनके संरक्षण से ही दिए जाते हैं, तो वैसे में पुलिस भला ऐसे मामलों को कितना मजबूत बनाएगी, और सबूत को कितना बर्बाद किया जाएगा इसका ठिकाना नहीं है, लेकिन इन दिनों वीडियो कैमरों की मेहरबानी से हर मोबाइल पर जिस तरह सबूत जुटाए जा सकते हैं उसे ऐसा लगता है कि इस कानून के तहत कुछ अधिक लोगों को सजा मिल सकेगी और उसकी वजह से इस तरह की नफरत को फैलाना घटेगा। अगला एक कानून जो महत्वपूर्ण दिख रहा है, और फिर इसके बारे में यह कहना जरूरी है कि राज्य सरकारों की राजनीतिक विचारधारा के चलते इसका बड़ा बेजा इस्तेमाल होने का खतरा है, यह कानून गलत पहचान बताकर महिला के साथ यौन संबंध बनाने को लेकर है। अगर शादी, रोजगार, प्रमोशन का झांसा देकर झूठी पहचान के साथ, झूठे वादे करके, महिलाओं से शादी का वादा करके संबंध बनाए जाते हैं, तो उस पर 10 बरस तक की कैद हो सकती है। आज बहुत से ऐसे मामले दर्ज हो रहे हैं जिनमें किसी एक धर्म का व्यक्ति अपने आपको दूसरे धर्म का बताकर किसी से संबंध बना रहा है, या फिर उसके ख़िलाफ़ दर्ज रिपोर्ट में इसे एक मुद्दा बनाया जा रहा है, और उसके लिए इस धार्मिक आधार पर अलग से किसी सजा का प्रावधान नहीं है। यह नया कानून इस मामले को और अधिक गंभीर बनाता है, अगर यह आरोप लगता है कि धार्मिक पहचान छुपाई गई थी, और अगर ऐसा आरोप साबित हो सकता है।

इन सबसे ऊपर एक फेरबदल यह आया है कि 3 साल तक की सजा वाली सभी धाराओं की, अदालती सुनवाई तेजी से होगी। यह तय किया गया है कि चार्ज फ्रेम होने के बाद एक महीने में ही जज को फैसला देना होगा। यह भी तय किया गया है कि सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ अगर कोई मामला दर्ज है तो 4 महीने के भीतर केस चलाने की अनुमति देना जरूरी है। आज तो सरकार अपने चहेते सरकारी अमले के ख़िलाफ़ दस बरस भी मुक़दमे की इजाज़त नहीं देती। इससे जुड़ा हुआ एक दूसरा फेरबदल यह किया जा रहा है कि मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदला जा सकेगा लेकिन पूरी तरह बरी नहीं किया जा सकेगा। सरकार ने इन कानून को पेश करते हुए यह उम्मीद भी जताई है कि इससे भारत की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों में से करीब 40 फ़ीसदी लोग रिहाई पा जाएंगे। अभी हम ऐसे किसी दावे का मूल्यांकन करने की हालत में नहीं हैं, लेकिन यह जरूर लगता है कि अगर अदालती सुनवाई तेजी से हो सकेगी, तो वैसे भी बहुत से विचाराधीन क़ैदी बेकसूर साबित होने पर घर लौट सकेंगे, और यह छोटी बात नहीं होगी, यह बहुत बड़ी बात होगी।

इन तीनों कानून में इतने व्यापक फेरबदल किए गए हैं कि हम अभी उनका समग्र मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं, जैसे राजद्रोह के कानून को खत्म करके देशद्रोह का कानून बनाया गया है। अब उसे पूरे कानून की भाषा क्या है, उसमें कहां बेजा इस्तेमाल की गुंजाइश छोड़ी गई है, यह कानून के जानकार लोग आने वाले दिनों में विश्लेषण करके बताएंगे। हम अभी खबरों में आई हुई जानकारी से उतना नहीं समझ पा रहे हैं कि क्या सरकार कानून का बेजा इस्तेमाल करने की गुंजाइश इसमें रखकर चल रही है, या बेजा इस्तेमाल की आज की गुंजाइश कुछ घटेगी। यह बात सही है कि यह कानून अंग्रेजों के जाने के 75 वर्ष बाद तक चले आ रहे थे और इनमें से बहुत सारे कानून तो उस वक्त के अंग्रेजों के आज के अपने देश में भी इस्तेमाल नहीं होते हैं, इसलिए इनको बदला जाना तो बहुत समय से जरूरी था, और आज सरकार ने सैकड़ों कानून को हटाने की बात कही है, सैकड़ों क़ानूनों में फेरबदल की बात कही है, और हो सकता है कि सरकार का यह फैसला बहुत से बेकसूर लोगों को मदद करे।

इसके साथ-साथ कल संसद से जो खबरें निकली है उनके मुताबिक पिछले पिछली चौथाई सदी में जितने किस्म के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ा है उन्हें देखते हुए इलेक्ट्रॉनिक सबूत को लेकर और अदालत की सुनवाई जैसी कार्रवाई के ऑनलाइन करने को लेकर जो फेरबदल हैं, वे अदालती बोझ को घटाने वाले हो सकते हैं। आज पहले ही दिन हम सीमित जानकारी के आधार पर इससे अधिक विश्लेषण करना ठीक नहीं समझते, और यह उम्मीद करते हैं कि जैसा कि सरकार का दावा है, अदालती फैसले तेजी से होंगे, विचाराधीन कैदियों को राहत मिलेगी, और मुजरिमों को सजा मिलना बढ़ सकेगा, अगर ऐसा है तो यह एक अच्छी बात होगी।

लेकिन सरकार की असली नीयत पर कुछ कहना इन पर बहस के बाद, इनके विशेषज्ञ-विश्लेषण के बाद ही ठीक होगा।

 

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