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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

सुनील कुमार

अगले कुछ दिन दुनिया में कोई बहुत बड़ी अनहोनी न हो जाए, तो हिन्दुस्तान के भीतर चर्चा और बहस के लिए महिला आरक्षण अकेला मुद्दा होना चाहिए। चौथाई सदी से चली आ रही कोशिशों को कल मोदी सरकार ने एक बार फिर एक विधेयक की शक्ल में संसद में पेश किया है, और इस बार सत्तारूढ़ पार्टियों से परे भी देश का प्रमुख विपक्षी दल, कांग्रेस इसके साथ है, और कई और पार्टियां भी यूपीए-2 के शासन काल के मुकाबले अब महिला आरक्षण का साथ देंगी। कांग्रेस की एक मुखिया सोनिया गांधी ने अभी कुछ मिनट पहले लोकसभा में इस बिल पर अपनी बात शुरू करते हुए पहला ही वाक्य इसका समर्थन करने का कहा है। उसके साथ ही उन्होंने दो-तीन और बातें कही हैं जिस पर गौर करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि यह बात कही जा रही है कि और छह-आठ बरस भारतीय महिला अपने हक का इंतजार करे। उन्होंने मांग की कि इस बिल को तुरंत ही अमल में लाया जाए, और उसके बाद जाति जनगणना करवाकर अनुसूचित जाति, जनजाति, और ओबीसी की महिलाओं के हक सुनिश्चित किए जाएं। जाहिर है कि वे लोकसभा की मौजूदा सीटों के भीतर आज के दलित और आदिवासी आरक्षण के तहत ही महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने की वकालत कर रही हैं, और हमारा मानना है कि संसद के मौजूदा आरक्षण के तहत एक बड़ा सीधा-सरल आरक्षण आज लागू हो सकता है, जो कि आने वाले पांच विधानसभा चुनावों के पहले भी किया जा सकता है। आज संसद में अनारक्षित, और दलित, आदिवासी, ऐसी तीन किस्म की सीटें हैं। इन तीनों तबकों के भीतर 33 फीसदी आरक्षण तुरंत ही लागू हो सकता है, और एनडीए और कांग्रेस मिलकर ही देश के आधे राज्यों में ऐसे संशोधन को पास करने के लिए काफी हैं।
भारत की जनगणना, और लोकसभा, विधानसभा सीटों के डी-लिमिटेशन का काम बड़ा जटिल है। कुछ लोगों का हिसाब है कि कल के विधेयक के बाद खबरों में आई यह जानकारी सही नहीं है कि महिला आरक्षण 2029 में लागू हो जाएगा। राजनीति और चुनावों के एक जानकार योगेन्द्र यादव ने लिखा है कि 2001 में संशोधित आर्टिकल 82 इस बात की स्पष्ट मनाही करता है कि 2026 के बाद होने वाली पहली जनगणना के पहले डी-लिमिटेशन किया जाए। इसका मतलब यह है कि डी-लिमिटेशन 2031 में ही हो सकेगा। योगेन्द्र यादव का कहना है कि डी-लिमिटेशन कमीशन आमतौर पर तीन से चार साल लेता है, पिछले आयोग ने तो पांच बरस लिए थे। इसके अलावा आने वाला डी-लिमिटेशन का काम बड़े बखेड़े वाला हो सकता है क्योंकि (उत्तर और दक्षिण) की आबादी के अनुपात में बड़ा फेरबदल हुआ है। इसलिए हम 2037 या उसके बाद ही इस आरक्षण की संभावना देखते हैं जो कि 2039 में ही लागू हो पाएगा। कई और लोगों ने भी इसी तरह का हिसाब-किताब सामने रखा है।
इसीलिए हम यहां सोनिया गांधी की बात से एकदम ही सहमत हैं कि इस बिल को बिना वैसी किसी देरी के तुरंत ही लागू करना चाहिए, और इस संविधान संशोधन को दो हिस्सों में भी किया जा सकता है। सोनिया ने इसे तुरंत लागू करने कहा है, और वे इस बात को जानती है कि पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव अभी सामने हैं। जब वे संसद में कुछ बोल रही हैं, तो उनके कहे हुए ‘तुरंत’ का मतलब उनकी पार्टी भी अच्छी तरह समझती है जिसकी कि चार राज्यों में खुद की सरकार है। और ये सरकारें एनडीए की सरकारों के साथ मिलकर आधे राज्यों से संविधान संशोधन पास करवाने की जरूरत पूरी कर सकती हैं। अभी भी अगर कांग्रेस आज इस बात की जिद करे, और अपने राज्यों से इसे पास करवाने का जिम्मा ले, तो 15 दिन बाद की चुनाव घोषणा के पहले शायद यह काम हो सकता है। राज्यों में मौजूदा विधानसभा सीटों का लॉटरी से आरक्षण निकालना भी कुल एक दिन का काम है, और महिला आरक्षण लागू होते ही चुनाव आयोग उसे भी कर सकता है। यह याद रखने की जरूरत है कि सोनिया गांधी की कांग्रेस ने ही यूपी चुनाव में 40 फीसदी टिकटें महिलाओं को दी थीं। अब उसे अपने उस वैचारिक फैसले के साथ ईमानदारी से डटकर खड़े रहना चाहिए। आज देश में जो माहौल बन रहा है कि अगले दस-पन्द्रह बरस के बाद ही महिला आरक्षण लागू हो सकेगा, उस माहौल के बीच सोनिया की यह मांग बड़ी अहमियत रखती है, और डी-लिमिटेशन के बाद के आरक्षण तक मौजूदा सीटों पर एक तिहाई आरक्षण महिलाओं को एक बड़ी संभावना तुरंत ही दे सकता है। मोदी सरकार ने जो विधेयक रखा है, उसे सैद्धांतिक रूप से पहले कदम के रूप में अभी तुरंत लागू करना चाहिए। फिर ऐसे आरक्षण से चाहे जिस पार्टी को, चाहे जिस प्रदेश में फायदा मिलना हो, वह मिलता रहे। वह फायदा आखिर उन पार्टियों की महिलाओं को भी तो मिलेगा, जो पहले तो उम्मीदवार बन सकेंगी, और फिर जीत भी सकेंगी।
महिला आरक्षण चौथाई सदी से ज्यादा समय से बार-बार संसद के दरवाजे खटखटा रहा था, और कम से कम चार अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के वक्त इसे लेकर कोशिश हुई थी। आखिर में जाकर मामला महिला आरक्षण के भीतर अलग से ओबीसी आरक्षण पर आकर रूक गया था, जो कि एक फिजूल का तर्क था। ओबीसी आरक्षण तो आज संसद और विधानसभाओं में किसी भी जगह पर नहीं है, तो जब पुरूषों को ही ओबीसी आरक्षण नहीं है, और संसद और विधानसभाएं चल रही हैं, तो इसी व्यवस्था में महिलाओं के जुड़ जाने से कौन सी नई बेइंसाफी होने जा रही थी? ऐसा लगता है कि कुछ पार्टियां, जिनमें लालू-मुलायम की पार्टियां आगे थीं, वे किसी भी तरह महिला आरक्षण को रोकना चाहते थे, उन्होंने संसद और विधानसभाओं में ओबीसी आरक्षण के बिना ही सिर्फ महिलाओं के भीतर ओबीसी की मांग करके 2010 में विधेयक को पटरी से उतार दिया था। अब सोनिया गांधी की यह बात सही है कि पहले इसे तुरंत लागू किया जाए, और उसके बाद फिर जातीय जनगणना करवाकर उसे दलित, आदिवासी, और ओबीसी सभी के लिए लागू किया जाए। उन्होंने साफ-साफ कहा कि इस बिल को लागू करने में देरी भारतीय महिला के साथ बेइंसाफी होगी।

यह एक बात विवाद की हो सकती है कि जनगणना करवाई जाए, या कि जातीय जनगणना करवाई जाए जिसके कि भाजपा खिलाफ रही है। फिर यह भी एक नया विवाद हो सकता है कि ओबीसी को आरक्षण दिया जाए या नहीं। फिर यह भी आरक्षण हो सकता है कि उत्तर भारत में आबादी अंधाधुंध बढऩे की वजह से वहां डी-लिमिटेशन में सीटें बढ़ जाएंगी, और दक्षिण के जिम्मेदार राज्यों ने आबादी पर काबू रखा, तो उनकी सीटें घट जाएंगी। ऐसे कई विवाद आगे जनगणना, जातीय जनगणना, डी-लिमिटेशन को लेकर आएंगे। इसलिए आज यही सबसे समझदारी की बात है कि बिना किसी अगले विवाद में उलझे हुए जो तुरंत आसानी से मुमकिन है, वह हक महिला को अभी दे दिया जाए, ताकि दो महीने बाद के चुनाव में वह एक तिहाई सीटों पर जीतकर विधानसभाओं में पहुंच सके, 2024 में संसद की शक्ल भी बदल सके।

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