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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सर्वमित्रा सुरजन॥

क्रिकेट का चुनावी लाभ लेने की कोशिश भाजपा ने की, तो कांग्रेस भी इसमें पीछे नहीं रही। भाजपा ने टीम इंडिया को शुभकामनाएं दीं तो कांग्रेस ने भी इसके मजे लेते इसे इंडिया की जीत के साथ जोड़ दिया। कांग्रेस जानती है कि भाजपा इंडिया गठबंधन के कारण इंडिया शब्द बोलने से बचती रहती है, लेकिन क्रिकेट के कारण भाजपा को इंडिया का नाम लेना पड़ा और कांग्रेस ने इस मौके को भुना लिया।

21 वीं सदी में विकास के भ्रम में जी रहे भारत में पिछले चार दिनों से पनौती शब्द सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहा है। पनौती एक नकारात्मक और अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाला शब्द है। जब इसे किसी व्यक्ति के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तो इसका मतलब ये है कि वह व्यक्ति अपने आसपास के लोगों के लिए दुर्भाग्य लेकर आता है और बनते हुए काम बिगाड़ देता है। डायन और टोनही जैसे शब्दों की तरह ही पनौती भी मानवीय गरिमा के खिलाफ गढ़ा गया एक शब्द है, फर्क इतना ही है कि पनौती में लिंगभेद नहीं है, जबकि डायन और टोनही जैसे शब्द मजबूर, बेसहारा महिलाओं को प्रताड़ित करने के लिए किस धृष्टता के साथ इस्तेमाल किए जा चुके हैं, इसकी अनेक मिसालें हैं।

इन शब्दों के इस्तेमाल को कानूनन अपराध मानने के बावजूद इनका इस्तेमाल अभी रुका नहीं है, क्योंकि अंधविश्वास की बेड़ियों को काटना एक-दो दिन का काम नहीं है। यह सतत जागरुकता और प्रयास की मांग करता है। इस वक्त जिस तरह पनौती शब्द को ट्रेंड कराया जा रहा है, उससे यही समझ आता है कि भारत में अंधविश्वास की जड़ें बरगद की जड़ों की तरह मजबूती से धंसी हुई हैं। पं.नेहरू और डॉ. अंबेडकर, डॉ. विक्रम साराभाई और डॉ.होमी जहांगीर भाभा ने ऐसे भारत की कल्पना तो बिल्कुल भी नहीं की होगी, जो एक ओर आजादी का अमृतकाल मनाए और दूसरी ओर सत्ता की लड़ाई में पनौती जैसे शब्दों को ले आए। देश में पहले से कई तरह की चुनौतियां सिर उठाए खड़ी हैं, उस पर अंधविश्वास की इस चुनौती से कैसे निपटा जाएगा, यह विचारणीय है।

पनौती शब्द का ताजा सिलसिला इस रविवार से शुरु हुआ। 19 नवंबर 2023 को क्रिकेट विश्वकप का फाइनल मुकाबला भारत आस्ट्रेलिया से हार गया। आस्ट्रेलिया छठवीं बार विश्वविजेता बना, जबकि भारत सारे मैचों में विजेता रहकर भी आखिरी मुकाबला जीत नहीं पाया। मैच देखने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर सिनेमा, खेल, व्यापार और धार्मिक कारोबार से जुड़ी कई दिग्गज हस्तियां अहमदाबाद के नरेन्द्र मोदी स्टेडियम पहुंची हुई थीं। लेकिन भारत मैच हार गया तो कई दर्शकों ने प्रधानमंत्री मोदी को इसका जिम्मेदार ठहराते हुए कह दिया कि वे पनौती हैं, वो खेल देखने पहुंच गए, इसलिए भारत मैच हार गया। इस विषय पर रविवार को देशबन्धु ने अपने संपादकीय में लिखा भी था कि ऐसी सोच रखना सरासर खेल भावना के विरुद्ध बात है। खेल से तो शारीरिक और मानसिक तंदरुस्ती अच्छी होती है, इसमें अंधविश्वास जैसी बीमारी की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। अफसोस की बात ये है कि रविवार से बढ़ते हुए ये सिलसिला बुधवार तक भी जारी है और शायद अब 30 तारीख तक ये मामला ऐसे ही खिंचे, क्योंकि विधानसभा चुनावों के आखिरी मतदान इसी दिन हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के उनके सलाहकारों ने कभी सोचा नहीं होगा कि क्रिकेट मैच को राजनैतिक हथियार बनाने का ये अंजाम भी हो सकता है। अहमदाबाद के नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में भारत और पाकिस्तान के बीच मैच करवाना या फिर विश्वकप का फाइनल मुकाबला यहां रखना, इसके पीछे विशुद्ध राजनैतिक कारण था कि क्रिकेट से जुड़ी जनभावनाओं और दीवानगी को भाजपा के लिए वोट में तब्दील करना। भारत-पाक मैच में तो भारत की जीत हुई थी और तब जय श्रीराम के नारे लगा कर भाजपा समर्थकों ने अपने आकाओं के इरादे साफ कर दिए थे कि उनके लिए क्रिकेट केवल राजनैतिक लाभ कमाने का जरिया है।

यही सोच फाइनल मुकाबले को लेकर भी थी। भारत मैच जीत जाता तो मीडिया 24 घंटे में एकाधा घंटे अपनी ओर से और जोड़कर मोदीजी की तारीफ में जी-जान लगा देता। फिर भाजपा का प्रचार तंत्र इसे विधानसभा चुनावों से लेकर 2024 के आम चुनावों तक भुनाता। मगर रविवार को भाजपा का दांव फेल हो गया। हालांकि श्री मोदी ने इसके बाद भी आपदा में अवसर तलाशने का जज्बा नहीं छोड़ा। वे ड्रेसिंग रूम तक कैमरों के साथ पहुंच गए, जबकि यह जगह खिलाड़ियों और टीम के बाकी लोगों के लिए ही होती है, यहां बाहरी कोई व्यक्ति नहीं जा सकता। मगर मोदीजी इसे भी मुमकिन बनाने की गरज से वहां पहुंचे और जो तस्वीरें सामने आई हैं, उनमें नजर आ रहा है कि वे जबरदस्ती खिलाड़ियों को गले लगा रहे हैं, उनका हाथ पकड़ रहे हैं।

भारत कोई पहली बार तो विश्वकप का फाइनल मुकाबला हारा नहीं है। जो खिलाड़ी हैं, वो जानते हैं कि हार-जीत लगी रहती है और कुछ देर की मायूसी के बाद वे फिर से मैदान में अभ्यास करने पहुंच जाते हैं। उन्हें ऐसी जबरिया सहानुभूति या प्रोत्साहन की कोई जरूरत नहीं थी, मगर मोदीजी ने कैमरों की खातिर ऐसा किया, ताकि देश उन्हें देखे और फिर अगले चुनाव में उन्हें वोट दे। क्रिकेट खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करते मोदीजी को क्या एक बार भी वो महिला पहलवान याद आई होंगी, जो सच में उनके सहयोग और समर्थन की मांग करते हुए कई दिनों तक जंतर-मंतर पर बैठी रहीं।

खैर, क्रिकेट का चुनावी लाभ लेने की कोशिश भाजपा ने की, तो कांग्रेस भी इसमें पीछे नहीं रही। भाजपा ने टीम इंडिया को शुभकामनाएं दीं तो कांग्रेस ने भी इसके मजे लेते इसे इंडिया की जीत के साथ जोड़ दिया। कांग्रेस जानती है कि भाजपा इंडिया गठबंधन के कारण इंडिया शब्द बोलने से बचती रहती है, लेकिन क्रिकेट के कारण भाजपा को इंडिया का नाम लेना पड़ा और कांग्रेस ने इस मौके को भुना लिया। इसके बाद मंगलवार को एक चुनावी सभा में राहुल गांधी ने भारत की हार का जिक्र किया, सभा में मौजूद लोगों में से कुछ ने पनौती शब्द कहा तो राहुल गांधी ने भी पनौती, पनौती बोलकर बता दिया कि देश में इस हार को लेकर इस नक्त कैसी सोच चल रही है।

हालांकि राहुल गांधी ने सीधे तौर पर श्री मोदी का नाम नहीं लिया, लेकिन राहुल पर दिन-रात नजर रखने वाली भाजपा ने अनकहे शब्दों को समझते हुए मान लिया कि राहुल मोदी के लिए ही पनौती कह रहे हैं। इसके बाद मोदी समर्थक तमाम चैनलों में कई घंटों की बहस पनौती शब्द और राहुल की सोच पर हो गई। भाजपा के जुझारू नेतागण नरेन्द्र मोदी के बचाव में अपने-अपने पैंतरों के साथ उतर पड़े। इसे प्रधानमंत्री का अपमान बताया और राहुल से माफी की मांग भी कर दी। जाहिर है अब भाजपा इस मुद्दे को चुनावी रंग देगी और हो सकता है अगली किसी रैली में मोदी इसके लिए सहानुभूति बटोरने की कोशिश में दिखें।

राहुल के बचाव में बहुत से लोग प्रधानमंत्री मोदी के कहे पुराने शब्दों की सूची गिना रहे हैं, जिनमें जर्सी गाय, कांग्रेस की विधवा, पचास लाख की गर्लफ्रेंड, पप्पू, मूर्खों का सरदार प्रमुख हैं। निश्चित ये सारे शब्द अनैतिकता और मर्यादाहीनता की ज्वलंत मिसाल हैं, इनकी कड़ी आलोचना होनी चाहिए। लेकिन इनके जवाब में पनौती जैसा शब्द अस्वीकार्य है। राहुल गांधी ने किसी का नाम लेकर पनौती नहीं कहा, लेकिन बेहतर होता वे इस शब्द का जिक्र करके कह सकते थे कि ऐसे अंधविश्वास फैलाने वाले शब्द नहीं कहे जाने चाहिए। असल में राहुल गांधी की राजनीति यही है और इसलिए उनसे ऐसी उम्मीद भी है। जैसे को तैसा वाला अंदाज राहुल की राजनीति का नहीं रहा है, तो अब उन्हें अपनी राह से नहीं भटकना चाहिए।

राहुल की बात को अब देश के लाखों लोग गौर से सुनने और मानने लगे हैं। अगर राहुल ऐसे में अंधविश्वास के खिलाफ कोई भी संदेश देते तो निश्चित ही उसका दूरगामी असर होता। अपनी रैलियों में राहुल ने महंगाई, बेरोजगारी, अंधपूंजीवाद, किसान, मजदूर, दलित, ओबीसी, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के मुद्दे उठाए हैं। देश को ऐसे ही मुद्दों पर चर्चा करने के लिए अपने राजनेताओं को बाध्य भी करना चाहिए, क्योंकि आखिर में इसका असर आम लोगों की जिंदगी पर पड़ता है। पनौती जैसे शब्द मूल मुद्दों से ध्यान भटकाते हैं। भाजपा हमेशा ऐसे भटकाव के मौके तलाशती है, राहुल को ऐसा कोई भी मौका भाजपा को नहीं देना चाहिए।

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