-सुनील कुमार।।
हिन्दुस्तान की कई बड़ी अदालतें हर कुछ दिनों में कोई न कोई ऐसा फैसला देती हैं कि जिससे लोगों की न्याय व्यवस्था, लोकतंत्र, और इंसानियत सभी पर से भरोसा उठने लगता है। अभी देश के सबसे बड़े महानगर, मुम्बई में मौजूद बॉम्बे हाईकोर्ट के दो जजों की बेंच में एक फैसला दिया जिसमें एक महिला ने अपने पति और ससुराल वालों पर गंभीर आरोप लगाए थे, और अदालत ने इन आरोपों को खारिज कर दिया। दिलचस्प बात यह भी है कि इन दो जजों में से एक जस्टिस राजेश पाटिल थे, और दूसरी जज जस्टिस विभा कंकणवाडी थीं। इनके फैसले की एक बात अखबारी सुर्खी बनी है कि शादीशुदा महिला से घरेलू काम करवाना क्रूरता नहीं है, इसके साथ ही जजों ने यह भी कहा कि लड़कियों को घर का काम नहीं करना है, तो शादी के पहले बता देना चाहिए। इस मामले की बारीक जानकारी की अधिक चर्चा यहां प्रासंगिक नहीं है, लेकिन जजों की यह सोच चर्चा के लायक है कि अगर महिला घर के काम नहीं करना चाहती तो उसे शादी के पहले ही बता देना चाहिए जिससे कि पति-पत्नी शादी के बारे में दुबारा सोच सकें।
देश के अलग-अलग कई हाईकोर्ट इस तरह की सोच सामने रखते हैं जो कि पुरूषप्रधान समाज की महिला विरोधी संस्कृति से उपजी हुई है, और उसी को आगे बढ़ाने का काम भी करती है। आमतौर पर यह महिलाओं के खिलाफ एक हिंसक रूख रहता है, और लोगों को याद रखना चाहिए कि इस देश मेें हाईकोर्ट के एक जज ऐसे भी हुए हैं, जो कि सतीप्रथा के समर्थक थे। जिस महाराष्ट्र के फैसले को लेकर आज यह लिखना हो रहा है, उसी महाराष्ट्र की नागपुर की हाईकोर्ट बेंच की एक महिला जज ने नाबालिग के देहशोषण के एक मामले में ऐसा भयानक फैसला दिया था कि हमने इसी जगह पर सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी कि उसे दखल देकर इस फैसले पर रोक लगानी चाहिए, और इसे खारिज करना चाहिए। और हुआ भी वही। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को कुछ दिनों के भीतर ही खारिज कर दिया, और कहा कि कानून का इस्तेमाल मुजरिम को कानून के जाल से बचाने के लिए नहीं किया जा सकता। जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला ने एक जिला अदालत द्वारा एक बच्ची का देहशोषण करने वाले को दी गई तीन साल की कैद खारिज कर दी थी, और कहा था कि पॉक्सो एक्ट के तहत तभी सजा हो सकती है जब उस नाबालिग लडक़ी के सीने से आरोपी का चमड़ी से चमड़ी का संपर्क हुआ हो, अगर कपड़ों के ऊपर से उसने कोई शोषण किया है तो उस पर उसे सजा नहीं दी जा सकती। इस मामले के खिलाफ हमने जमकर लिखा था, और सुप्रीम कोर्ट ने आगे जाकर हाईकोर्ट जज के खिलाफ बड़ी कड़ी टिप्पणी की थी, और लिखा था कि जब कानून की नीयत एकदम साफ है तो अदालतों को उसके प्रावधानों को लेकर एक गफलत खड़ी नहीं करनी चाहिए।
ऐसा लगता है कि जब देश के हाईकोर्ट जजों को ही प्राकृतिक न्याय, सामाजिक न्याय, और सामाजिक समानता का पाठ पढ़ाने की जरूरत है, तो उनसे निचली अदालतों के जजों को यह सोच देना तो और मुश्किल काम है। और उससे भी अधिक मुश्किल काम इस देश की पुलिस में लैंगिक समानता की भावना पैदा करना है। आज भी हिन्दुस्तान में पुलिस में शिकायत लेकर जाने वाली महिला या लडक़ी के चाल-चलन पर शक करने से ही पुलिस की जांच शुरू होती है। और पुलिस के छोटे-बड़े अधिकारी-कर्मचारी अपने इस लैंगिक-पूर्वाग्रह को छुपाने की भी कोई कोशिश नहीं करते, और शिकायतकर्ता के वकील भी, अगर वह महिला वकील है तो भी, अपनी ही मुवक्किल के चाल-चलन, उसकी नीयत पर शक करते हुए ही उसका मुकदमा लड़ते हैं, उनकी अधिक आस्था अपनी ही मुवक्किल पर नहीं रहती।
सुप्रीम कोर्ट को यह चाहिए कि वह अपने और हाईकोर्ट के जजों को यह समझाने की कोशिश करे कि दुनिया आज 21वीं सदी के दूसरे दशक में पहुंच चुकी है और अब तो दुनिया के सबसे दकियानूसी देशों में भी यह बात लोगों को समझ में आ रही है कि महिलाओं को बराबरी का हक न देने से देश तरक्की नहीं कर सकता। और आर्थिक तरक्की से परे एक सामाजिक तरक्की की बात भी रहती है जिसके बिना महिलाओं को उनके बुनियादी मानवाधिकार भी नहीं मिल पाते, पुरूषों की बराबरी के अधिकार मिलना तो दूर की बात रही। ऐसे माहौल में जब हाईकोर्ट के जज अपने मर्दाना-पूर्वाग्रहों से संक्रमित फैसले देते हैं, तो वे समाज को भी पत्थरयुग की तरफ धकेलने का काम करते हैं। जजों के गैरजरूरी शब्द समाज के बहुत से लोगों के लिए एक मिसाल बन जाते हैं, और अदालत से बाहर भी महिलाओं को पीटने के लिए काम आते हैं।
यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। जिन हाईकोर्ट जजों के मन में लैंगिक समानता की बात नहीं है, उन्हें खारिज किया जाना चाहिए, उन्हें हटाना चाहिए। यह सोच भयानक दकियानूसी है कि अगर महिला को घरेलू काम नहीं करना है तो उसे शादी के पहले यह बताना चाहिए। इस बात को पुरूषों पर लागू किया जाए तो उसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि पुरूषों को अगर महिलाओं को घरेलू नौकर बनाकर ले जाना है, तो उन्हें पहले महिलाओं से यह हलफनामा मांगना चाहिए कि वे बंधुआ मजदूर की तरह काम करेंगी। आज जब महिलाएं बड़ी संख्या में घर के बाहर भी काम करती हैं, उस वक्त लौटकर घर पर काम आमतौर पर उन्हें ही करना होता है। देश की किस अदालत के किसी जज ने ऐसी बात कही है कि कामकाजी महिला के घर लौटने पर पुरूष काम में बराबरी से हाथ बंटाए। महिलाओं के हक की बात करते इस पुरूष प्रधान समाज, और इसकी अदालतों की भी घिघ्घी बंध जाती है। अदालतों को ऐसा रूख, और उनकी ऐसी अवांछित बातें धिक्कारी जानी चाहिए, और इस देश में महिलाओं की बराबरी पर जिन लोगों को भरोसा है, उन लोगों को खुलकर इसके खिलाफ लिखना चाहिए।