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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार।।

जस्टिस डी.वाई. चन्द्रचूड़ देश के पचासवें मुख्य न्यायाधीश बने हैं, और अपने पिछले मुख्य न्यायाधीश के मुकाबले उनके पास खासा लंबा समय है। यू.यू. ललित कुल 75 दिन के सीजेआई थे, और चन्द्रचूड़ दो बरस तक रहेंगे। चन्द्रचूड़ के बारे में चर्चा इस जिक्र के बिना पूरी नहीं होती कि उनके वी.वाई. चन्द्रचूड़ देश में सबसे लंबे समय तक रहे सीजेआई थे, और वे सवा सात साल से अधिक इस ओहदे पर रहे। दिलचस्प बात यह भी है कि बेटे ने दशकों पहले के अपने पिता के दिए एक फैसले को पलट दिया था, और इस नाते वे पिता के साये के बाहर काम करने वाले व्यक्ति भी माने जा सकते हैं। लेकिन ऐसी निजी बातें और ऐसी इक्का-दुक्का मिसालें बहुत मायने नहीं रखती हैं, और हिन्दुस्तान के हर मुख्य न्यायाधीश से सभी की बहुत सी उम्मीदें रहती हैं, और हमारी भी हैं।

हम उन मामलों से परे जाकर बात करना चाहते हैं जो कि देश के कानून के जानकार कर रहे हैं कि नए सीजेआई अपनी सोच के मुताबिक देश के सबसे चर्चित और महत्वपूर्ण कुछ मामलों में क्या रूख अख्तियार करेंगे। वह तो अपनी जगह अहमियत रखता ही है, लेकिन हम उससे परे भी बात करना चाहते हैं। देश का मुख्य न्यायाधीश कानून मंत्री के माध्यम से केन्द्र सरकार से न्याय व्यवस्था के ढांचे पर लगातार बात कर सकता है, और करता भी है। चूंकि चन्द्रचूड़ का कार्यकाल दो बरस का है, इसलिए वे कुछ गंभीर कोशिशें कर सकते हैं, और सुप्रीम कोर्ट के सामने कटघरे में खड़े हुए मामलों से परे जाकर भी देश की न्याय व्यवस्था के बारे में कुछ बुनियादी बातें कर सकते हैं। और ये बुनियादी बातें कम नहीं हैं। ये बातें निचली जिला अदालतों से शुरू होती हैं, और न्याय व्यवस्था की इस पहली सीढ़ी की बदहाली के सवाल उठाती हैं। हम लगातार इस बात को देखते हैं कि छोटी अदालतों के लिए जज और मजिस्ट्रेट बनाने के जो तरीके हैं, वे बाबूगिरी के मामूली और बेदिमाग इम्तिहानों के हंै। लोग राज्य के लोकसेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं में अधिक नंबर पाकर न्यायिक सेवा में आ जाते हैं, और उनकी किसी तरह की सामाजिक-राजनीतिक हकीकत की समझ नहीं आंकी जाती। वे कानून को बहुत ही क्रूर तरीके से समझकर आते हैं, और समाज की उनकी बेरहम नासमझी की वजह से वे अपने दिए गए किसी आदेश या अपने सुनाए गए किसी फैसले के पहले भी पूरी अदालती प्रक्रिया में भारतीय समाज की धर्म और जाति की व्यवस्था, उसके लैंगिक पूर्वाग्रह का शिकार रहते हैं। उनकी सोच में इंसाफ नहीं रहता है, और न ही निचली अदालत की सुनवाई में उसकी जरूरत मानी जाती है। आंखों पर पट्टी बांधे जिस तरह इंसाफ की देवी की प्रतिमा दिखाई जाती है, निचली अदालतें उसी तरह से फैसले देती हैं। लेकिन हम उनके फैसलों पर अभी टिप्पणी नहीं कर रहे हैं, फैसलों तक पहुंचने का सुनवाई का जो सिलसिला रहता है, वह देश के सबसे कमजोर तबकों, और गरीबों, महिलाओं के खिलाफ जितनी बेइंसाफी से भरा रहता है, उसे नए सीजेआई को खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए। हमारा ख्याल है कि देश के दर्जन-दो दर्जन सबसे जलते-सुलगते अदालती मामलों पर फैसलों से अधिक महत्वपूर्ण बात शायद यह होगी कि न्याय व्यवस्था की पहली सीढ़ी को गरीब के चढऩे लायक बनाया जाए। आज न्याय व्यवस्था जो कि पुलिस जांच से शुरू होती है, और जिला या निचली अदालत से पहला फैसला पाती है, वह पूरी की पूरी कमजोर लोगों के खिलाफ है, उसके पीछे समाज का पूरा पूर्वाग्रह काम करता है, और हिन्दुस्तानी भ्रष्टाचार देश में सबसे अधिक हिंसक अगर कहीं है, तो वह निचली अदालतों में है। जस्टिस चन्द्रचूड़ के सामने यह एक ऐतिहासिक मौका है अगर वे केन्द्र और राज्य सरकारों को इस बात के लिए सहमत करा सकें कि राज्य स्तर की न्यायिक सेवा के अधिकारियों को कैसे अधिक संवेदनशील बनाया जा सकता है, कैसे उन्हें सामाजिक सरोकारों की समझ दी जा सकती है। आज जो लोग भारत की सामाजिक हकीकत को जानते हैं, वे यह बात अच्छी तरह समझते हैं कि देश के अल्पसंख्यक तबकों, दलित और आदिवासी, गरीब और महिला को लेकर निचली अदालतों का रूख बहुत ही सामंती, पुरूष प्रधान, और हिंसक पूर्वाग्रहों से लदा रहता है, सामाजिक हकीकत की उनकी समझ शून्य रहती है। यह तस्वीर बदलने की जरूरत है।

आज हिन्दुस्तान की छोटी अदालतों में कमजोर और गरीब तबकों की एक पूरी पीढ़ी मुकदमे लड़ते खप जाती है, अगर वे किसी ताकतवर के खिलाफ इंसाफ के लिए जाते हैं। और ऐसे ताकतवर का कोई इंसान होना भी जरूरी नहीं रहता, राज्य सरकारें पांच लीटर दूध में मिलावट साबित करने के लिए तीस-तीस बरस तक मुकदमे लड़ती हैं, और उसके बाद जाकर दूध वाले को कुछ महीनों की कैद होती है, जिससे खासा अधिक वक्त वह इन दशकों में अदालत जाते-आते लगा चुका होता है। जस्टिस चन्द्रचूड़ को न्याय व्यवस्था को समाज के सबसे कमजोर लोगों के प्रति संवेदनशील बनाना चाहिए, वरना अपने सामने अपनी बेंच में आए हुए मामलों पर फैसला देना तो सुप्रीम कोर्ट में रोजमर्रा का काम है, वैसे फैसले किताबों में जिक्र पा सकते हैं, लेकिन देश की तीन चौथाई आबादी की दुआ नहीं पा सकते। हम नए मुख्य न्यायाधीश के आने पर सामने खड़े हुए चर्चित मामलों की फेहरिस्त पर चर्चा करने के मुकाबले इस बुनियादी बात को उठाना जरूरी समझते हैं, और सुप्रीम कोर्ट में जनहित के मामलों को लेकर लडऩे वाले कुछ प्रमुख वकीलों को भी नए सीजेआई के सामने इन बातों को किसी तरह से रखना चाहिए ताकि सबसे कमजोर लोगों को इंसाफ मिलने की थोड़ी सी गुंजाइश तो पैदा हो सके। आज केन्द्र और राज्य सरकारों में कहीं भी इस बुनियादी सुधार को लेकर कोई चर्चा नहीं है, इसलिए हम अपनी बात को एक बिल्कुल ही अकेली सलाह के रूप में देख रहे हैं, लेकिन हम इसे कम महत्वपूर्ण सलाह नहीं मान रहे। सुप्रीम कोर्ट के जज जिन अखबारों को पढ़ते हैं, वहां पर लिखने वाले कानून के जानकार भी न्याय व्यवस्था के बुनियादी ढांचे की बेहतरी का मुद्दा उठा सकें, तो ही अदालत पर एक वजन पड़ता है। जनहित याचिकाओं को लेकर जानकार वकीलों का तजुर्बा यह है कि जब तक इनके मुद्दे जनचर्चा में नहीं आते हैं, तब तक अदालत भी इन्हें जनहित का नहीं मानती है, और जनहित याचिका के जगह पाने की गुंजाइश भी नहीं रहती। इसलिए कई लोगों को अदालती नींव में सुधार की बात को बढ़ाना होगा, और इसीलिए हम यहां यह चर्चा छेड़ रहे हैं।

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