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-सुनील कुमार॥

देश के एक प्रमुख और अब तक काफी या कुछ हद तक विश्वसनीय बने हुए समाचार चैनल, एनडीटीवी, का मालिकाना हक बदल जाने से इसे देखने वाले लोगों को लग रहा है कि यह हिन्दुस्तानी टीवी पर भरोसेमंद पत्रकारिता का अंत हो गया है। अभी नए मालिक, देश के सबसे बड़े उद्योगपति अडानी ने अपना रूख दिखाना शुरू भी नहीं किया है, लेकिन लोगों की ऐसी आशंकाएं बेबुनियाद नहीं हैं। एक घाटे के कारोबार को देश का सबसे बड़ा मुनाफा कमा रहा कारोबारी अगर ले रहा है, तो उसे भरोसेमंद पत्रकारिता जारी रखने के लिए तो ले नहीं रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अडानी का घरोबा जगजाहिर है, और एनडीटीवी एक ऐसा समाचार चैनल था जिसका कम से कम कुछ हिस्सा मोदी की आलोचना की हिम्मत करता था। एनडीटीवी के हिन्दी के सबसे चर्चित टीवी-पत्रकार रवीश कुमार का नाम देश और दुनिया में आज हिन्दुस्तान के सबसे हिम्मती पत्रकार के रूप में लिया जाता था, और सोशल मीडिया पर आम प्रतिक्रिया कल यही थी कि जब सरकार और कारोबार एक पत्रकार को नहीं खरीद सके, तो उन्होंने पूरा चैनल ही खरीद लिया। और जैसी कि उम्मीद थी मालिक बदलने के साथ एनडीटीवी से पहला इस्तीफा रवीश कुमार का ही हुआ क्योंकि अपनी विचारधारा और अपने तौर-तरीके के साथ उनकी कोई जगह अडानी के चैनल में बच नहीं गई थी। और सच तो यह है कि आज एनडीटीवी को लेकर लोगों के बीच जितनी हमदर्दी है, उसका बहुत सा हिस्सा अकेले रवीश कुमार की वजह से है जो कि साफ-साफ सच कहते थे, यह एक अलग बात है कि आज के हालात के मुताबिक वह सच मोदी सरकार और देश के मीडिया में उनके अंधसमर्थकों की आलोचना लगता था। अगर सच किसी को आलोचना लगता है, तो ईमानदार लोग सच लिखना या बोलना तो बंद नहीं कर देंगे।

रवीश कुमार देश-विदेश में अपनी पत्रकारिता के लिए खूब सम्मान पाते रहे हैं, और जाहिर है कि उसी अनुपात में उन्हें हिन्दुस्तान में भक्तजनों की गालियां भी मिलती रही हैं। एनडीटीवी के मालिकान एक वक्त तो पत्रकार थे, लेकिन बाद में वे चैनल-मालिक कारोबारी रहे, इसलिए उनकी पत्रकारिता के बारे में आज अधिक चर्चा की जरूरत नहीं है। चर्चा रवीश कुमार की ही हो रही है, होनी भी चाहिए, जिनकी वजह से इस चैनल को भी एक ऐसी साख मिली जो कि रवीश कुमार के बिना नहीं मिल सकती थी। लेकिन चैनल की इस बात के लिए तो तारीफ की ही जानी चाहिए कि उसने रवीश कुमार को इस हद तक बढ़ाया, और इतने लंबे वक्त तक उन्हें जगह दी, या बर्दाश्त किया। यह भी कोई छोटी बात नहीं थी। आज सत्ता अपने खिलाफ असहमति को हटाने के लिए बहुत कुछ करती है, और रवीश कुमार बहुत लंबे समय तक खरी पत्रकारिता की एक मिसाल बने हुए सत्ता की आंखों की किरकिरी बने रहे, और एनडीटीवी मैनेजमेंट की इस बात के लिए तो तारीफ की ही जानी चाहिए।

हिन्दुस्तान में यह पहला मौका है जब एक मीडिया कारोबार को लेकर लोगों की इस तरह की हमदर्दी सामने आ रही है, और उससे भी बढक़र एक अकेले पत्रकार के साथ इतनी बड़ी संख्या में प्रशंसक खड़े हुए दिख रहे हैं। एक बहुत ही मजबूत सरकार से असहमत के साथ सहमत होकर सोशल मीडिया पर उजागर होना भी आज के वक्त में एक छोटे से हौसले की बात तो है ही। आज सहूलियत यही है कि अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए किसी को अखबार या टीवी चैनल की जरूरत नहीं रह गई है। लोग बिना किसी लागत के, बहुत मामूली खर्च से अपना यूट्यूब चैनल शुरू कर सकते हैं, और बात की बात में लाखों, दसियों लाख लोगों तक पहुंच सकते हैं। ऐसा काम बहुत से स्वतंत्र पत्रकार कर भी रहे हैं, और उनमें से जिनका काम अच्छा है वे यह भी साबित करने में कामयाब रहे हैं कि बड़े कारोबारी ढांचे के बिना भी आज अखबारनवीसी या पत्रकारिता मुमकिन है। और सच तो यह है कि बड़ा कारोबारी ढांचा अखबारनवीसी के खिलाफ भी जाता है। जब ढांचे की लागत बहुत बड़ी हो जाती है, उसे चलाने का खर्च बहुत बड़ा हो जाता है तो ऐसे मीडिया संस्थान को सौ किस्म के समझौते भी करने पड़ते हैं, और दूसरे ऐसे कारोबार भी करने पड़ते हैं जिनका मिजाज मीडिया के ईमानदारी के मिजाज से मेल नहीं खाता।

ऐसी मिसालें नाम लेकर गिनाने की जरूरत नहीं हैं, वे चारों तरफ बिखरी हुई है। कहीं सत्ता की ताकत से मीडिया चलता है, कहीं कारोबार की ताकत से, और कहीं कुछ रहस्यमयी छुपी हुई ताकतों से। हिन्दुस्तान में जहां पर कि कालेधन की अपार संभावना रहती है, किसी भी कारोबार से दो नंबर के पैसे निकाले जा सकते हैं, और उनसे कोई दूसरा कारोबार चलाया जा सकता है, वहां पर अपने बड़े राजनीतिक या कारोबारी हितों के लिए एक पालतू मीडिया खड़ा कर लेना मुश्किल नहीं है। कोई एक वक्त रहा होगा जब लोगों को लगता था कि मीडिया कारोबारी के कोई और कारोबार नहीं होने चाहिए, लेकिन वह बात बहुत पहले ही खत्म हो गई, और एक वक्त के देश के एक सबसे बड़े कारोबारी, बिड़ला, न सिर्फ मीडिया में आए, बल्कि राज्यसभा तक पहुंचे। मीडिया, कारोबार, राजनीति, और सत्ता इन सबका एक बड़ा घालमेल हिन्दुस्तान में चलते ही रहता है, और इस कारोबार में ईमानदारी बनाए रखने के लिए कोई लोकतांत्रिक सोच इस देश की संवैधानिक संस्थाओं में नहीं रही।

खैर, रवीश कुमार आज अगर अपने यूट्यूब चैनल पर पूरा वक्त लगाते हैं, तो शायद वे एनडीटीवी के वक्त की अपनी दर्शक संख्या को भी पार कर जाएंगे। हिन्दुस्तान में अच्छी पत्रकारिता के लिए यही उम्मीद की एक बात है कि सोशल मीडिया, इंटरनेट, और तरह-तरह के मुफ्त के अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म पर खरी और ईमानदार बात कहने की गुंजाइश आज भी मुफ्त में हासिल है। रवीश कुमार के पहले भी कुछ दूसरे पत्रकारों ने किसान आंदोलन के दौरान अपनी पहचान इसी तरह अखबार और टीवी से परे बनाई, और हो सकता है कि रवीश कुमार से बहुत से और लोगों को भी एक नई राह मिले जो कि सत्ता पर काबिज नेताओं और मीडिया-कारोबार के मालिकान के काबू से बाहर रहे। बिना लागत की मीडिया-पहल के ईमानदार और दबावमुक्त बने रहने की संभावना किसी भी परंपरागत कारोबार के मुकाबले अधिक रहेगी। अब आने वाले दौर से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि उससे मीडिया और पत्रकारिता के कोर्स बदल जाएंगे, और एक व्यक्ति के अपने यूट्यूब चैनलों के कारोबार भी बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई में जगह पाएंगे।

रवीश कुमार का भविष्य तो सुनहरा है, क्योंकि उनका दांव पर कुछ भी नहीं लगा है, और बिना कारोबारी ढांचे के भी उनकी कामयाबी की गारंटी रहेगी। लेकिन यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं रहेगा कि दूरदर्शन के लिए एक साप्ताहिक कार्यक्रम पेश करने वाले प्रणब रॉय एनडीटीवी को खोने के बाद अब आगे क्या करते हैं? क्योंकि टीवी चैनल जितनी लागत के बिना भी वे अंग्रेजी का अपना कोई यूट्यूब चैनल शुरू कर सकते हैं, और आधी सदी पहले पैदा हुई पीढ़ी को याद भी होगा कि प्रणब रॉय के साप्ताहिक समाचार बुलेटिनों का किस तरह इंतजार रहता था। भारत की पत्रकारिता और मीडिया कारोबार के लिए आने वाले दिन दिलचस्प हो सकते हैं।

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