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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सर्वमित्रा सुरजन!!

मीडिया के इस नए दौर को लेकर कई मंचों से, कई तरह की चिंताएं जाहिर की गईं। पत्रकारिता का पतन हो गया है, अब निष्पक्ष पत्रकारिता इतिहास की बात हो गई, ऐसी बहुत सी बातें कही गईं। पिछले 9 सालों के मोदी सरकार के कार्यकाल में पत्रकारिता में पक्षपात को लेकर भी गंभीर सवाल उठे। कांग्रेस को सत्ता से हटाकर भी उसका खौफ बना रहा।

देश के एक जाने-माने न्यूज चैनल की चर्चित पत्रकार ने हाल ही में अपना एआई अवतार दर्शकों के सामने पेश किया। एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की तकनीक से तैयार किया गया वर्चुअल एंकर या आभासी प्रस्तोता। अपने इस अवतार को उन्होंने अपने नाम के आगे 2.0 लगाकर संबोधित किया। जैसे क्लोनिंग के जरिए एक प्राणी को हूबहू तैयार कर दूसरा प्राणी बना लिया जाता है, कुछ वैसा ही एआई एंकर को कहा जा सकता है। फर्क इतना ही है कि क्लोनिंग में हाड़-मांस, रक्त-भावनाएं सब वैसी ही रहेंगी, क्योंकि उसमें जीवन होगा। जबकि एआई एंकर में जीवन का प्रवाह नहीं होगा, भावनाओं का संचार नहीं होगा, बल्कि कम्प्यूटर से भरे गए कमांड्स से वह संचालित होगा। जिस न्यूज़ चैनल ने एआई एंकर प्रस्तुत किया है, वह देश में सबसे तेज होने का दावा करता है। पत्रकारिता में गति का कितना स्थान होना चाहिए और हर वक्त भागते-दौड़ते रहने की क्या जरूरत है, यह सवाल अब कालातीत हो चुका है। किसी भी खबर को सबसे पहले ब्रेक करने की जो उन्मादी पत्रकारिता शुरु हो चुकी है, उसमें ऐसे सवाल बेकार ही समझे जाएंगे कि खबर को देख-परख कर, तथ्यों की पड़ताल के बाद, समाज पर उसके असर का विश्लेषण कर देने की जरूरत है या फिर बिना किसी पुष्टि के हड़बड़ाते और चिल्लाते हुए खबर लोगों तक पहुंचाई जानी चाहिए।
खबर ब्रेक करते-करते, फटाफट सौ-पचास खबरों को पेश करने के चक्कर में जनता और देश के असली हितों से जुड़ी खबरें कहां गायब हो गई हैं, इसकी परवाह अब बहुत कम लोगों को रह गई है। खबरों के मेले में दर्शकों को लुभाने वाले आइटम समाचार रोज करोड़ों व्यूज बटोर रहे हैं, जबकि मेले में गुमशुदा खबरों की तलाश करने वालों की पूछ-परख नहीं रह गई है। अजीबो-गरीब शीर्षकों के साथ, बिना सही जानकारी के अफवाहों के जैसी खबरें रोजाना दर्शकों के सामने परोसी जा रही हैं। बिल्कुल जंक फूड की तरह, जो देखने में भी आकर्षक होता है और जीभ के चटोरेपन को संतुष्टि भी देता है, लेकिन शरीर पर उसका दीर्घकालिक असर घातक होता है। जंक फूड के नुकसान को समझने के बावजूद विज्ञापनों के बूते देश के एक बड़े वर्ग को, खासकर युवा पीढ़ी को इसकी लत लगा दी गई है। ठीक ऐसा ही अब पत्रकारिता में किया जा रहा है। लोगों को जल्दी से जल्दी खबरें देखने की लत लगा दी गई है, फिर चाहे इससे धार्मिक-सांप्रदायिक उन्माद भड़के, किसी का चरित्र हनन हो या खबर से निकला सही संदेश जनता तक न पहुंचे, मीडिया में अब इसकी परवाह नहीं की जा रही। अगर कोई गलत खबर चला दी जाती है तो उस पर खेद प्रकट कर दिया या फिर उस वीडियो को हटाकर बात की खत्म कर देने की आदत चैनलों को हो गई है। क्योंकि चैनलों की प्राथमिकता लोकतंत्र की मजबूती के लिए स्वतंत्र आवाज उठाना नहीं है, बल्कि पूंजी और सत्ता के हित साधना है।
पहले बड़ी पूंजी की मदद से कार्पोरेट सेक्टर ने चैनलों को खड़ा किया, या फिर खरीद लिया, अपने शेयर चैनलों में बढ़ा लिए और फिर मनमाने तरीके से खबरों के साथ खिलवाड़ शुरु हुआ। इन चैनलों में काम करने वाले पत्रकार अपने मालिकों के इशारों पर नाचते रहे, क्योंकि उनका वेतनमान नाचने की शर्त पर ही निर्धारित किया जाता है। कुछेक पत्रकारों ने नाचने से इंकार किया तो उन्हें चैनलों से किसी न किसी वजह से विदाई लेनी पड़ी। ऐसे कई पत्रकारों का आसरा अब यू ट्यूब जैसे प्लेटफार्म हैं। न्यूज़ चैनलों में खबरों से खिलवाड़ में राजनीतिक चलन के हिसाब से नियम बदलते रहे और हर चुनाव के पहले और सरकारों के गठन के बाद इन नियमों में फेरबदल होता ही है। शुरुआती दौर में हर वर्ग को अपना दर्शक बनाने के लिए न्यूज़ चैनलों ने कई तरह के प्रयोग किए। खेल, विज्ञान, व्यापार, तकनीकी आदि की खबरें तो दी ही जाती थीं, खबरों के नाम पर अंधविश्वास की घटनाओं और धारावाहिकों की खबरों की नाटकीय प्रस्तुति से भी गुरेज नहीं किया गया। खबरों को आकर्षक बनाने के लिए टीवी स्टूडियो में एंकर को कभी अंतरिक्ष यात्री जैसी पोशाक पहनाई गई, कभी युद्ध के मैदान में पहुंचाया गया, कभी क्रिकेट खेलते दिखा दिया गया। स्कूलों में फैंसी ड्रेस प्रतियोगिताओं में कल्पना की जितनी उड़ानें नहीं भरी गई होंगी, उतनी सब न्यूज़ चैनलों के सेट्स में भर ली गईं।
मीडिया के इस नए दौर को लेकर कई मंचों से, कई तरह की चिंताएं जाहिर की गईं। पत्रकारिता का पतन हो गया है, अब निष्पक्ष पत्रकारिता इतिहास की बात हो गई, ऐसी बहुत सी बातें कही गईं। पिछले 9 सालों के मोदी सरकार के कार्यकाल में पत्रकारिता में पक्षपात को लेकर भी गंभीर सवाल उठे। कांग्रेस को सत्ता से हटाकर भी उसका खौफ बना रहा तो कांग्रेस को विपक्ष से भी हटाकर कांग्रेस मुक्त देश बनाने की कोशिश में मीडिया ने भाजपा का भरपूर साथ दिया। लेकिन ये कोशिश कामयाब नहीं हुई। कांग्रेस अकेले बढ़ती रही, उसके साथ विपक्ष का कारवां भी बढ़ता गया और अब इन सबने मिलकर इंडिया का गठन कर लिया है। इसी इंडिया ने पिछले दिनों कुछ चैनलों के कुछ एंकरों के नाम घोषित किए हैं कि हमारे नेता, प्रवक्ता इनके शो में नहीं जाएंगे। कह सकते हैं पतन के दौर से गुजर रही पत्रकारिता ने असहयोग और सविनय अवज्ञा का दौर भी देख लिया। ये दौर वाकई बहुत कठिन है, फिर भी यहां लड़ने-झगड़ने, सुलह करने, माफी मांगने और अंतत: सब कुछ ठीक हो जाने की उम्मीद है, क्योंकि आखिर में हैं तो सब इंसान ही। लेकिन अगर पत्रकारिता से इंसान ही गायब हो जाएंगे, तो फिर मानवीय कमजोरियों और गुणों के लिए भी जगह कहां बचेगी। क्या इंसान और तकनीक के बीच शुरु हो चुकी होड़ में मानवीय मूल्य और संवेदनाएं बच पाएंगे, ये एक कठिन सवाल इस वक्त समाज के सामने है।
सबसे तेज कहे जाने वाले चैनल की एंकर ने अपने एआई अवतार को प्रस्तुत करते हुए कहा कि अभी आने वाले वक्त में कितना काम है, चुनाव है, मुझे कई चुनावी क्षेत्रों का दौरा करना होगा, साक्षात्कार लेने होंगे, जनता के बीच जाना होगा, तो ऐसे में जब वो पत्रकारीय दायित्व निभाने के लिए क्षेत्र में रहेंगी तो स्टूडियो में उनका स्थान उनका एआई अवतार लेगी। ये वर्चुअल एंकर बिल्कुल उन्हीं की तरह दिखती और बोलती है। लेकिन उसका दिखना, बोलना सब कुछ तकनीकी है। मुमकिन है आगे निकलने की होड़ में अभी कुछ और चैनल इसी तरह के एआई एंकर स्टूडियो में ले कर आ जाएं। क्योंकि आभासी एंकर की खासियत है कि ये 24 घंटे बिना थके काम कर सकता है, क्योंकि मशीनें थकती नहीं हैं। आभासी एंकर्स में जिस भाषा की जानकारी भरी जाए, वह उसी भाषा में बात कर लेगा और वही बात करेगा, जो पहले से उसमें फीड की गई है। ये सब कुछेक वक्त के लिए अच्छा लग सकता है। चैनलों को भी फायदा रहेगा कि निर्धारित कीमत पर तैयार किए गए वर्चुअल एंकर न वेतन की बात करेंगे, न छुट्टी की, न उनकी अपनी कोई सोच होगी। बिल्कुल कठपुतली की तरह। लेकिन क्या कठपुतलियों के सहारे लोकतंत्र जिंदा रह पाएगा। वर्चुअल एंकर जब भावनाओं से शून्य आंखों के साथ समाचार देगा या देगी तो क्या दर्शकों तक समाचार पूरी तरह से संप्रेषित हो पाएगा। ये तमाम डर अब सिर उठाने लगे हैं। मुमकिन है इस डर को पूंजी के सहारे कुचला जाएगा, लेकिन उस डर का एहसास तो बना ही रहेगा।
जैसे फिल्मों में बहुत से दृश्य वर्चुअली तैयार किए जाते हैं और उनका डिस्क्लेमर दे दिया जाता है कि ये केवल कल्पना है, सच्चाई नहीं, वैसा ही दौर अब पत्रकारिता में शायद आ चुका है। अब शायद जल्दी ही खबर से पहले डिस्क्लेमर यानी अस्वीकरण आने लगेगा कि ये खबर इंसान द्वारा लिखी और प्रस्तुत की गई है, वर्चुअल एंकर द्वारा नहीं। खबरों में ऐसा डिस्क्लेमर समाज और लोकतंत्र दोनों के लिए ही अच्छा नहीं होगा। वैसे मीडिया में एआई के इस्तेमाल का बुरा असर अब रोजगार पर भी पड़ने लगा है। कुछ महीने पहले ही जर्मनी के सबसे बड़े टैबलॉयड बिल्ड ने अपने 200 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया, क्योंकि उनके काम अब एआई के जरिए होने लगे हैं। छंटनी का ये सिलसिला जल्द ही बाकी देशों में भी शुरु हो जाएगा। वक्त आ गया है कि हम एआई वरदान या अभिशाप जैसे विषय पर वाद-विवाद शुरु कर दें। क्योंकि बहसों में चाहे जितनी कड़वाहट हो, इंसान होने की गंध उनमें भरी होती है। यही सबसे जरूरी है।

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