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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सर्वमित्रा सुरजन।।

आजादी के बाद लोकतंत्र का पौधा अच्छी तरह से बढ़े, इसके लिए कई तरह के उपक्रम हुए। प्रेस आयोग के गठन से लेकर प्रधानमंत्रियों के साथ संपादकों-पत्रकारों की वार्ताएं पत्रकारिता के लिए अच्छा माहौल बनाती थी। राजनीति का दबाव तो पहले भी था, किंतु पत्रकारों को पालतू बनाने की हद तक नहीं था। नैतिक मूल्यों के लिए राजनीति में भी स्थान था और पत्रकारिता में भी। लेकिन अब आवारा पूंजी ने दोनों ही क्षेत्रों में माहौल खराब कर दिया है।

प्रसिद्ध पत्रकार रवीश कुमार के एनडीटीवी से इस्तीफे की खबर पिछले पूरे हफ्ते चर्चा का विषय बनी रही। एनडीटीवी देश के चर्चित और अग्रणी मीडिया समूहों में से एक रहा है। इसके मालिकाना हक में बदलाव होना भी एक बड़ी खबर है। और एक प्रमुख खबर ये भी है कि किस तरह अडानी समूह जो अब देश का सबसे बड़ा औद्योगिक घराना बन चुका है, उसने अब मीडिया क्षेत्र में भी तेजी से पैर जमा लिए हैं। इन तमाम खबरों की पृष्ठभूमि यही है कि मीडिया में पूंजी का दबदबा अब इतना हो गया है कि इसमें स्वतंत्रता, निष्पक्षता जैसे गुण तलाशना रेगिस्तान में पानी की तलाश करने जैसा हो गया है। इसलिए चर्चा और चिंता इन दो बड़ी खबरों के इर्द-गिर्द भी दिखाई देनी चाहिए थी। लेकिन चर्चा के केंद्र में रहे रवीश कुमार। आजकल की भाषा में कहें तो रवीश कुमार ने सारी लाइम लाइट लूट ली। अब सवाल ये है कि ऐसा क्यों हुआ।

क्यों रवीश कुमार के इस्तीफे की खबर में लोगों की दिलचस्पी इतनी ज्यादा हो गई। क्या इस वजह से कि वे लंबे समय से चैनलों की दुनिया का चर्चित चेहरा बने हुए हैं।क्या इसलिए कि उनकी एंकरिंग और रिपोर्टिंग का तरीका काफी अलग है। क्या इसलिए कि वे मैग्सेस पुरस्कार विजेता पत्रकार हैं। या फिर रवीश कुमार के इस्तीफे पर उनके ही समकालीन पत्रकारों ने इतनी अधिक प्रतिक्रियाएं दीं कि लोगों को लगने लगा कि जरूर ये कोई ऐसी बात है, जो काफी खास है। क्या सोशल मीडिया की वजह ऐसा हुआ। क्योंकि अब हमारे मुद्दे जमीन पर कम और सोशल मीडिया पर अधिक तय होने लगे हैं। एक हैशटैग चलाकर समाज के एक व्यापक वर्ग को अघोषित तौर पर मजबूर कर दिया जाता है कि आज या अगले-तीन दिन तक इसी मुद्दे के इर्द-गिर्द चर्चा चलनी चाहिए। हम सब को कठपुतलियों की तरह सोशल मीडिया हैशटैग की डोर से जैसा चाहे वैसा नाच नचाता है।

बहरहाल, इन तमाम सवालों का विश्लेषण करें तो पहली बात यही समझ आती है कि भारत में लोग भावनाओं से सबसे अधिक संचालित होते हैं। किसी घटना पर उद्वेलित होकर निर्णय लेना या प्रतिक्रिया देना, हमारी खास सामाजिक पहचान है। राजनीति में जनता की इस भावनात्मक कमजोरी को बखूबी भुनाया जाता है। एक धक्का और कहते हुए एक ऐतिहासिक इमारत को धर्म के नाम पर गिराने का खतरनाक खेल भावनाओं के बूते ही खेला गया। रवीश कुमार मामले में भी बहुत से लोग भावनाओं के इसी ज्वार में बह गए, क्योंकि उन्हें यही लगा कि एक पूंजीपति ने एक स्वतंत्र मीडिया घराने को खरीद लिया। कि जो चैनल सरकार की आलोचना करने का साहस करता था, अब उसमें भी सरकारी भोंपू ही बजेगा। कि सरकार से सवाल करने वाले एक पत्रकार को पूंजी के दबाव में इस्तीफा देना पड़ गया। इस तरह लोगों की सहानुभूति अपने आप रवीश कुमार से हो गई।

हमारे समाज की एक और खासियत ये भी है कि हम अपने उद्धार के लिए हमेशा एक नायक की तलाश में रहते हैं। मर्यादाओं को निभाने के लिए हमने राम में आदर्श पुरुष की तलाश कर ली। धर्म युद्ध का जिम्मा अर्जुन और कृष्ण पर छोड़ दिया। सत्य और अहिंसा को महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध की शिक्षाओं तक हमने सीमित कर लिया। गांधीजी का पूरा जीवन दर्शन इन सिद्धांतों पर केन्द्रित रहा, लेकिन हमने उसे भी गांधीवाद के दायरे में इस तरह समेट लिया, कि जब जरूरत पड़े तभी इन मूल्यों की बात की जाए, उन्हें अपने जीवन में पूरी तरह उतारने की हिम्मत हम नहीं दिखा पाते हैं।

समाज को खरी-खरी सुनाने का दारोमदार हमने कबीर पर छोड़ दिया। तो इस तरह बदलते वक्त के साथ हर दौर में नए-नए नायक हमारे समाज में उभरते रहे। उन नायकों के कंधों पर नैतिक मूल्यों और आदर्शों का भार समाज डालता रहा। इन नायकों को कई बार देवता का स्थान भी दिया गया, यानी उन्हें मानवीय गुण-दोषों से परे मान लिया गया। नायकों की इस परंपरा में अब रवीश कुमार को मीडिया का महानायक बना दिया गया है। इस वक्त भारतीय मीडिया संकट और संक्रमण दोनों का सामना कर रहा है। क्योंकि अब केवल पूंजी ही नहीं, राजनीतिक दबाव भी मीडिया पर भरपूर है। बहुत कम पत्रकार ऐसे हैं, जो सत्ता से सवाल करने और उसकी गलत बातों की आलोचना करने का जोखिम उठाते हैं।

रवीश कुमार ने एनडीटीवी पर लंबे अरसे तक जो प्राइम टाइम किया, उसमें वे लगातार सरकार की नीतियों पर सवाल करते रहे। सरकारी नौकरियों में भ्रष्टाचार का खेल, बेरोजगारी, महंगाई इन मसलों पर लगातार कार्यक्रम करते रहे। वे हिंदी पट्टी के अखबारों की कमियां गिनाते रहे कि किस तरह वहां जनता से जुड़ी खबरों के लिए गुंजाइश कम हो रही है, वे बार-बार अपने दर्शकों को मीडिया में राजनीति और पूंजी के कुत्सित खेल से परिचित कराते रहे और ये बताते रहे कि कैसे आज के टीवी चैनल आपको खबरों से ज्यादा नफरत परोसने में लगे हुए हैं। इस तरह के प्रस्तुतिकरण से वे खासे लोकप्रिय हुए और अडाणी समूह के एनडीटीवी पर मालिकाना हक की खबर के बाद जब रवीश कुमार ने इस्तीफा दिया तो वे लोगों की नजर में नायक बन गए।

बेशक वे एक उम्दा पत्रकार हैं। और अब एनडीटीवी से अलग होने के बाद भी उनके सामने आगे बढ़ने की पर्याप्त संभावनाएं हैं। उनका अपना यू ट्यूब चैनल है, जिसे लाखों लोगों ने सब्सक्राइब कर लिया है। बल्कि देश के कुछ वरिष्ठ संपादकों और पत्रकारों ने खुद सोशल मीडिया पर बार-बार अपील की कि रवीश कुमार के चैनल को सब्सक्राइब किया जाए। रवीश कुमार ने अपने इस्तीफे पर एक अच्छा-खासा भावुक सा संदेश भी जारी किया, जिसमें उन्होंने कहा कि भारत में पत्रकारिता का स्वर्ण युग कभी नहीं था लेकिन आज के दौर की तरह का भस्म युग भी नहीं था, जिसमें पत्रकारिता पेशे की हर अच्छी बात भस्म की जा रही हो। उन्होंने ये भी कहा कि आज की शाम ऐसी शाम है जहां चिड़िया को अपना घोंसला नज़र नहीं आ रहा। शायद कोई और उसका घोंसला ले गया। मगर उसके सामने एक खुला आसमान ज़रूर नज़र आ रहा है।

अच्छी बात है कि रवीश कुमार ने अपने संस्थान को घोंसला बताया, वर्ना उनके समकालीन बहुत से पत्रकारों के लिए बड़े मीडिया संस्थान पिंजरों की भांति होते हैं। और जो स्वतंत्र पत्रकारिता की ध्वजा तमाम खतरों के बाद भी उठाए हुए हैं, उनके लिए तो अभी पूरा माहौल ही पिंजरों की तरह हो गया है, जिसमें पंख फैलाने के साथ ही सींखचों से टकराने और घायल होने की आशंका बनी हुई है। कश्मीर से लेकर केरल तक कितने ऐसे पत्रकार हैं, जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों, संवैधानिक आदर्शों की कसौटी पर सरकार के काम को परखने का साहस किया, तो इसकी कीमत उन्हें कहीं संस्थान से बर्खास्तगी के तौर पर, कहीं गिरफ्तारी तो कहीं जान देकर चुकानी पड़ी। इनके घोंसले तोड़े गए और इनके पास उड़ने के लिए आकाश भी नहीं बचा। समाज में इनकी चर्चा नायकों की तरह नहीं हुई या इनके लिए इस तरह भावनाओं का ज्वार नहीं उमड़ा। ऐसा क्यों हुआ, ये भी एक सवाल है।

रवीश कुमार मानते हैं कि भारत में पत्रकारिता का स्वर्ण युग कभी नहीं रहा। ये बात आंशिक सत्य है, लेकिन पूरा सच नहीं है। आजादी के बाद लोकतंत्र का पौधा अच्छी तरह से बढ़े, इसके लिए कई तरह के उपक्रम हुए। प्रेस आयोग के गठन से लेकर प्रधानमंत्रियों के साथ संपादकों-पत्रकारों की वार्ताएं पत्रकारिता के लिए अच्छा माहौल बनाती थी।

राजनीति का दबाव तो पहले भी था, किंतु पत्रकारों को पालतू बनाने की हद तक नहीं था। नैतिक मूल्यों के लिए राजनीति में भी स्थान था और पत्रकारिता में भी। लेकिन अब आवारा पूंजी ने दोनों ही क्षेत्रों में माहौल खराब कर दिया है। 90 के दशक के बाद भूमंडलीकरण की आंधी ने सारे मानदंड बदल कर रख दिए हैं। इस दौर में कई मीडिया घराने कार्पोरेट पूंजी की मदद से खड़े हुए। एनडीटीवी भी उनमें से एक था। अब केवल उसमें मालिकाना हक बदला है, जिस वजह से बाहरी चरित्र और आवरण थोड़ा बहुत बदला दिखेगा। रवीश कुमार अभी पत्रकारिता का भस्मयुग बता रहे हैं, तो हमें इस बात पर गौर करना होगा कि राख में ही दबी हुई चिंगारियां भी होती हैं, जो हवा मिलने का इंतजार करती हैं। भारतीय मीडिया में ऐसी चिंगारियां ही उम्मीद की मशाल जलाएंगी।

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