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-सुनील कुमार

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में यह चेतावनी दी है कि उत्तरप्रदेश में अब चौराहों पर कैमरे लग गए हैं, और अगर किसी एक चौराहे पर कोई किसी लडक़ी को छेड़ेगा, तो अगले चौराहे तक पहुंचने के पहले पुलिस उसे ढेर कर देगी। भारत की प्रचलित भाषा में पुलिस के ढेर कर देने का एक ही मतलब होता है, गोली मारकर गिरा देना। लोगों को याद होगा कि दो-तीन बरस पहले उत्तरप्रदेश में योगी की लीडरशिप में पुलिस ने बहुत से संदिग्ध और आरोपी गुंडे-बदमाशों को मुठभेड़ में मार गिराया था, और जब इसके आंकड़े सामने आए, तो यूपी पुलिस के खिलाफ बड़ा बवाल खड़ा हुआ था। अगस्त 2021 में एक प्रमुख अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने यह रिपोर्ट छापी थी कि योगी सरकार ने 2017 से सत्ता में आने के बाद करीब साढ़े 8 हजार एनकाउंटर किए थे, और इनमें करीब डेढ़ सौ लोगों को मारा गया, और 33 सौ से अधिक लोगों को गोली मारकर लंगड़ा किया गया। इसे उत्तरप्रदेश पुलिस की भाषा में ऑपरेशन लंगड़ा कहा जा रहा था। यही दौर था जब बहुत से आरोपी या अभियुक्त गले में तख्ती टांगकर थाने पहुंचते थे कि वे आत्मसमर्पण कर रहे हैं उन्हें गोली न मारी जाए। 2019 में एक मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो जजों ने कहा कि इस नौबत पर गंभीर विचार की जरूरत है। राज्य में विपक्ष ने इस मुद्दे को उठाते हुए कहा था कि यह सरकार की ‘ठोक दो’ नीति है। इसके बाद का एक और दौर लोगों को याद है कि किसी भी आरोपी, अभियुक्त, नापसंद मुस्लिम के घर-दुकान पर अफसर बुलडोजर चलाकर उन्हें बेघर-बेरोजगार कर रहे थे।

जब कभी लोकतंत्र में सरकारें भ्रष्ट हो जाती हैं, अदालतें रफ्तार खो बैठती हैं, मानवाधिकार से जुड़ी संवैधानिक संस्थाओं पर सत्ता के अपने चापलूस काबिज हो जाते हैं, तब लोगों का भरोसा मुजरिमों की बंदूक की नाल से निकलने वाले फैसलों की तरफ होने लगता है। मुम्बई में यह अच्छी तरह दर्ज है कि हाजी मस्तान जैसे लोग दरबार लगाकर लोगों के झगड़े निपटाते थे। उत्तर भारत में भी कई जगहों पर बड़े-बड़े मुजरिम इंसाफ के लिए पुलिस से ज्यादा असरदार मान लिए गए थे। जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर लोगों का भरोसा इस हद तक गिर जाता है, तो फिर उन्हें सरकार और पुलिस की अलोकतांत्रिक और आपराधिक मुठभेड़ सुहाने लगती हैं। दरअसल समाज के भीतर मुठभेड़ की नौबत इस बात का सुबूत रहती है कि निर्वाचित सरकार, अदालत, और कानून की प्रक्रिया लंबे समय से अपना काम ठीक से नहीं कर रही हैं। इन सबके बेअसर हो जाने से लोग बंदूक की नली से निकले इंसाफ को पसंद करने के लिए एक किस्म से मजबूर हो जाते हैं। लोगों को याद रखना चाहिए कि देश के नक्सल-हिंसा प्रभावित इलाकों में जब लोकतांत्रिक सरकारों का इंतजाम पूरी तरह जुल्मी और भ्रष्टाचार हो गया था, तभी उन इलाकों में नक्सलियों को पांव जमाने का मौका मिला, और जनअदालतों में जब किसी सरकारी कर्मचारी-अधिकारी के खिलाफ फरमान जारी होता था, तो इलाके के लोग उसे ही इंसाफ भी मानते थे। उत्तरप्रदेश में कानून के राज की नाकामयाबी को मुजरिमों की कामयाबी बताकर उन्हें सडक़-चौराहे पर ठोक देने का सरकारी फतवा योगी ने सार्वजनिक रूप से दुहराया है, और हमारा मानना है कि मुख्यमंत्री का यह बयान न सिर्फ पूरी तरह अलोकतांत्रिक है, बल्कि यह अराजक भी है, और किसी अदालत में घसीटने लायक भी है। और फिर मुख्यमंत्री ने यह बात हत्यारों या बलात्कारियों के लिए नहीं कही है, सडक़ पर छेडख़ानी करने वालों के लिए कही है, जिनका जुर्म अदालत में साबित हो जाने पर भी शायद साल-दो साल की ही कैद हो।

किसी राज्य की पुलिस को अगर गुंडा बनाना हो, तो यह उसका एक बड़ा आसान तरीका है कि उसे शक की बिना पर किसी भी राह चलते को ठोक देने, और ढेर कर देने का फतवा दिया जाए। और जब यह फतवा मुख्यमंत्री की तरफ से सार्वजनिक कार्यक्रम के मंच और माईक से आए, तो फिर उससे बड़ा और कौन सा समर्थन पुलिस को चाहिए। इसके बाद जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अल्पसंख्यकों से नापसंदगी, और पुलिस के मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक रूख के साथ जोडक़र जब इस फतवे को देखा जाए, तो फिर यह साफ हो जाता है कि ऐसे ढेर में लहूलुहान कपड़ों से कौन से धर्म की पहचान होगी।

जिस लोकतंत्र में कानून की भावना यह है कि चाहे सौ गुनहगार बच निकलें, एक भी बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए, और जब किसी के खिलाफ मामला शक से परे साबित होता है, तभी जाकर कोई सजा होती है, ऐसे लोकतंत्र में निर्वाचित मुख्यमंत्री का सडक़ों पर ढेर कर देने का यह फतवा सबसे हिंसक, और सबसे खतरनाक बात है। लेकिन जब देश-प्रदेश की जनता का धार्मिक ध्रुवीकरण पूरी तरह हो चुका हो, तब योगी की बात के भीतर छुपे हुए संदेश को लोग समझते हैं, और इससे योगी की शोहरत बहुसंख्यक आबादी के भीतर बढ़ती ही है।

हम पहले भी यह बात लिखते आए हैं कि राज्यों में मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, बाल अधिकार परिषद, अनुसूचित जाति या जनजाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं में सत्ता की पसंद से मनोनयन खत्म होना चाहिए। आज अगर उत्तरप्रदेश में ऐसे आयोग योगीमुक्त होते, तो उनमें से किसी का नोटिस मुख्यमंत्री के लिए जारी हो चुका होता। लेकिन जब अपने ही पिट्ठुओं को इन संस्थाओं में बिठाने की आजादी नेताओं को है, तो फिर ऐसे चुनिंदा और पसंदीदा मनोनीत लोग क्या खाकर मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में दखल देना चाहिए। हम पहले भी कह चुके हैं कि किसी राज्य की ऐसी संस्थाओं में मनोनयन के लिए उन राज्यों में काम कर चुके जजों और अफसरों के नाम प्रतिबंधित करने चाहिए। दूसरे प्रदेशों से ही ऐसे नाम छांटे जाने चाहिए, और ये नाम ऐसे भी रहने चाहिए जो कभी राजनीति में नहीं रहे। ऐसा न होने पर कानून के राज में गिनाने के लिए ऐसी संवैधानिक संस्थाएं सामने खड़ी रहती हैं, लेकिन वे जुल्मी सरकार की मौन मददगार भी बनी रहती हैं। इन संवैधानिक संस्थाओं को बनाने का मकसद यही था कि ये अदालतों तक किसी मामले के पहुंचने के पहले भी उन पर सरकार और लोगों को नोटिस जारी कर सके। इन्हें बेअसर बनाने का मतलब सरकार के जुल्म का रास्ता साफ करने के अलावा और कुछ नहीं है। चूंकि देश की संसद के बहुमत और सरकार की नीयत भी संवैधानिक संस्थाओं को कागजी बनाकर रखने की है, इसलिए इस पर सोच-विचार का काम सिर्फ अदालत ही कर सकती है। योगी के इस ताजा बयान को देखते हुए ऐसे सोच-विचार की जरूरत आ खड़ी हुई है।

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