Latest Post

कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार।।

आज जब ब्राजील अपने इतिहास के सबसे महान, और दुनिया के भी सबसे महान फुटबॉल खिलाड़ी पेले के अंतिम दर्शन कर रहा है, तभी फुटबॉल की दुनिया में पुर्तगाल के फुटबॉलर क्रिस्टियानो रोनाल्डो ने सऊदी अरब के एक क्लब के साथ तीन बरस का एक समझौता किया है जिसके तहत उन्हें हर साल करीब 1773 करोड़ रूपये मिलेंगे। यह करार उस वक्त हुआ है जब दुनिया के एक सबसे फुटबॉल क्लब मेनचेस्टर यूनाईटेड के साथ रोनाल्डो का करार खत्म हुआ ही था, और कुछ लोग उनका कॅरियर ढलान पर होने की बात करने लगे थे। ऐसे में इतना महंगा अनुबंध उनके बारे में अटकलों को लगाम लगाता है। ब्राजील के पेले का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था, और जब पिता बिना रोजगार थे तो घर चलाने के लिए पेले जूते पॉलिश करने का काम भी किया था, और उसी कमाई से अपना पहला अच्छा फुटबॉल भी खरीदा था। फुटबॉल के साथ जुड़े हुए कई सबसे कामयाब खिलाड़ी ब्राजील, अर्जेंटीना, पुर्तगाल जैसे कई देशों के गरीब परिवारों से निकलकर आए, और कामयाबी और शोहरत के आसमान पर पहुंचे। खुद रोनाल्डो की प्रतिभा को पहचानकर जब उनके शहर के एक क्लब ने उन्हें आने का न्यौता दिया, तो शहर के दूसरे सिरे पर बसे उस क्लब तक पहुंचने का भाड़ा भी उनके पास नहीं था, और ऐसे में उन्हें करीब के एक दूसरे औसत दर्जे के फुटबॉल स्कूल तक पैदल जाना पड़ता था क्योंकि परिवार के पास बस खाने को पैसा था।

चूंकि अभी-अभी विश्वकप फुटबॉल हुआ है, और उसकी कई टीमों के कई खिलाड़ी ऐसी ही गरीबी से निकलकर आए हैं, इसलिए गरीब बच्चों के बारे में सोचने का यह सही मौका है। ब्राजील के फुटबॉल खिलाडिय़ों को लेकर पिछले बरस छपे एक लेख में यह नजरिया सामने रखा गया था कि किस तरह वहां खिलाडिय़ों की गरीबी ने उनके हुनर और खूबी को गढ़ा है। ब्राजील दुनिया के फुटबॉल देशों में चर्चित रहा है, और वहां की आबादी का एक बड़ा हिस्सा बहुत गरीब है। अपनी गरीबी से लडऩे के लिए ही मानो वहां के बच्चे बड़े खिलाड़ी बनते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि कामयाबी उनकी गरीबी दूर सकती है। और यह नौबत दुनिया में किसी भी जगह आ सकती है कि अभाव और गरीबी में बड़े होने वाले बच्चों में संघर्ष करने की क्षमता और हसरत औरों के मुकाबले अधिक हो। ऐसा इसलिए भी होता है कि उन्हें यह मालूम रहता है कि उनकी मेहनत और उनका हुनर ही उन्हें गरीबी के दलदल से निकलने में मदद कर सकते हैं।

दुनिया में बहुत से ऐसे खेल हैं जिनमें बहुत महंगा प्रशिक्षण लोगों को आगे बढऩे के लिए जरूरी सा रहता है, लेकिन हर देश में कुछ न कुछ बच्चे ऐसे रहते हैं जो बिना महंगे प्रशिक्षण के, बिना महंगे साज-सामान और जूतों के, अभाव में भी आगे बढ़ते हैं, और हिन्दुस्तान जैसे देश के लोगों को ऐसी ही मिसालों से सीखना चाहिए। जब दुनिया में तीन-चार करोड़ आबादी के गरीब देश भी विश्वकप फुटबॉल के सेमीफाइनल तक पहुंच सकते हैं, तो फिर हिन्दुस्तान जैसा देश अपनी 140 करोड़ आबादी को लेकर अपने बच्चों में हौसला क्यों नहीं भर सकता? और हम यह जिम्मा इस देश की सरकार का नहीं मान रहे, बल्कि समाज और आम लोगों का मान रहे हैं कि किस तरह बच्चों को बढ़ावा देकर उन्हें दुनिया के मुकाबले खड़ा किया जा सकता है। अब फुटबॉल जैसे गरीबों के खेल में आसमान पर पहुंचे हुए गरीब देशों के मुकाबले भी हिन्दुस्तान जैसा अपने को विकसित कहने वाला देश जमीन पर औंधे मुंह इसलिए गिरा हुआ है कि यहां खेल पर दूसरी तमाम चीजों का कब्जा है।

इस देश में खेल के मैदानों को देखें तो सुप्रीम कोर्ट के बहुत साफ-साफ चेतावनी वाले फैसले के बाद भी बहुत से प्रदेशों में स्थानीय संस्थाएं मैदानों को काट-काटकर खाने-पीने के बाजार बना रही हैं, जिनमें छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर शायद सबसे ही आगे है। एक भी मैदान बिना काटे, बिना छोटा किए छोड़ा नहीं गया है, और अब तो इन हमलावर तेवरों के साथ मैदानों को खाने-पीने की चौपाटी बनाया जा रहा है कि कहीं खिलाडिय़ों के खेलने को कोई जगह न बच जाए। इसके अलावा साल भर खेल मैदानों पर सरकारी प्रदर्शनियां, बाजारू मेले, धार्मिक कार्यक्रम, सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रम चलते ही रहते हैं, और किसी मैदान को खेलने के लायक छोड़ा नहीं जाता। खेल संघ भी सरकार से टकराव लेने की हिम्मत नहीं कर पाते, और दम तोड़ते मैदानों को देखते हुए अपने संगठन की राजनीति में लगे रहते हैं। ऐसे देश ब्राजील या अर्जेंटीना जितने गरीब न भी हों, वहां पर कोई खिलाड़ी पैदा नहीं हो सकते। जिन अंग्रेजों की गुलामी में हिन्दुस्तान ने डेढ़ सौ बरस गुजारे हैं, उनके छोड़े हुए क्रिकेट पर यह देश फिदा है, और इस खेल के लिए इस देश में पैसा ही पैसा है। लेकिन बाकी किसी खेल के लिए किसी मैदान को भी छोडऩे की जरूरत किसी को नहीं लगती है। जिस तरह देश की सरकार पिछली पौन सदी में बनी हुई सरकारी कंपनियों को बेचने में लगी हुई है, उसी तरह प्रदेश, और शहरों की स्थानीय सरकारें मैदानों को काट-काटकर बाजार बनाने में लगी हुई हैं। कोई बच्चे खुद होकर फुटबॉल खेल सकें, इसकी भी गुंजाइश सरकारें नहीं छोड़ रही हैं। बार-बार अदालतों तक ये मामले जाते हैं कि खेल मैदानों का कोई गैरखेल इस्तेमाल न हो, लेकिन फिर पूरे वक्त गैरखेल इस्तेमाल ही होता है।

हिन्दुस्तान जैसे दुनिया के आज के दूसरे सबसे बड़े देश, और बहुत जल्द आबादी के मामले में दुनिया के सबसे बड़े देश को सोचना चाहिए कि जब छोटे-छोटे देश खेलों में आसमान पर पहुंचते हैं, तब हिन्दुस्तान चने के झाड़ पर चढक़र तिरंगा फहराकर गौरव हासिल करते क्यों बैठे रह जाता है? बिना सरकारी मदद के भी गरीब खिलाड़ी शायद आगे बढ़ जाएं, अगर उनके हिस्से के मैदानों बेच खाने पर सत्तारूढ़ नेता आमादा न हों। ऐसे बाजारूकरण के खिलाफ लोगों को उठकर खड़ा होना चाहिए।

Facebook Comments Box

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *