8 नवम्बर 2016 को प्रधानमंत्री मोदी ने अचानक नोटबंदी की घोषणा टीवी चैनलों के जरिए की थी और उसके बाद पूरे देश में आर्थिक सुनामी सी आ गई थी। आम लोगों को दिन-रात बैंकों के बाहर लंबी कतारों में लगे रहने को सरकार ने मजबूर कर दिया था। अपनी जमा-पूंजी पर लोगों का हक छिन सा गया था। अपनी बचत के नोटों को नए नोटों से बदलना और बैंकों में जमा राशि को हासिल करना आसमान से तारे तोड़ने जैसा असंभव काम लगने लगा था। नोटबंदी के इस फैसले के बाद अगले कुछ महीने लाखों-करोड़ों लोगों पर भारी पड़े। इलाज, शिक्षा, विवाह ऐसे तमाम कामों में अड़चन पेश आने लगी, क्योंकि इनके लिए जोड़ी गई रकम अब बैंक के हवाले थी।
अनाधिकृत रूप से नोट बदलने और उसमें कमीशन खाने का एक नया व्यापार भी इसमें शुरु हो गया। ये आपदा में अवसर जुटा लेने की सीख मिलने से पहले की बात है।
नोटबंदी से भारतीय अर्थव्यवस्था की कमर पर करारी चोट पड़ी और इसका सबसे अधिक दर्द आम नागरिक को भुगतना पड़ा, ऐसी राय अनेक जाने-माने अर्थशास्त्रियों की बनी। विपक्ष के बहुत से दलों ने नोटबंदी के मसले पर मोदी सरकार को घेरा।
हालांकि नोटबंदी के फैसले के अगले ही साल हुए उत्तरप्रदेश चुनाव में भाजपा को बहुमत मिला, तो उसके पास अपने बचाव में यह तर्क था कि अगर जनता इस फैसले से नाराज होती तो भाजपा को नहीं जिताती। अब एक बार फिर भाजपा को अपने फैसले को सही ठहराने का मौका मिला है। यह अवसर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की बदौलत मिला है।
नोटबंदी के खिलाफ 58 याचिकाएं दायर की गईं थीं, जिन पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। 2 जनवरी को कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए नोटबंदी की प्रक्रिया को सही ठहराया है। हालांकि अदालत ने यह फैसला सर्वसम्मति से नहीं बल्कि 4-1 के बहुमत से दिया है। सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने नोटबंदी के फैसले को सही नहीं मानते हुए इसकी कानूनी प्रक्रिया पर चिंता व्यक्त की है।
गौरतलब है कि नोटबंदी का ऐलान प्रधानमंत्री मोदी ने किया था और तब इसमें संसद और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की भूमिका पर सवाल उठे थे कि इन दोनों की इस बारे में क्या राय थी। यही सवाल अदालत में भी उठे। जिस पर जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि संसद भारतीय लोकतंत्र का केंद्र है। ऐसे महत्वपूर्ण मामले में उसे अलग नहीं छोड़ा जा सकता है।
उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि नोटबंदी के लिए आरबीआई ने कोई स्वतंत्र आवेदन सरकार के पास नहीं किया था। उसके दस्तावेज से साफ है कि यह प्रस्ताव सरकार की ओर से आया था, उसने खुद इस पर कोई विचार नहीं किया था। जब नोटबंदी का प्रस्ताव केंद्र सरकार से आता है, तो यह भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 26 (2) के तहत नहीं आता है। यह कानून बनाकर ही लाया जा सकता है और अगर गोपनीयता की जरूरत है, तो फिर अध्यादेश ही सिर्फ रास्ता बचता है। धारा 26(2) के अनुसार नोटबंदी का प्रस्ताव आरबीआई का केंद्रीय बोर्ड ही ला सकता है। जस्टिस नागरत्ना ने यह भी कहा कि आरबीआई को धारा 26(2) के तहत यह शक्ति है कि वो किसी नोट की किसी खास नंबर की सीरीज पर नोटबंदी लागू कर सकता है, पूरी सीरीज पर नहीं।
पांच जजों की पीठ में अकेले जस्टिस नागरत्ना का फैसला अलग था और बहुमत के आधार पर फैसला सरकार के पक्ष में गया है। लेकिन असहमति का यह फैसला लोकतंत्र के लिहाज से ऐतिहासिक है। क्योंकि यह फैसला संसद की विधायी शक्ति और सरकार की सीमित शक्तियों के बीच के बड़े अंतर को सामने रखता है। वैसे भाजपा के लिए यह फैसला काफी अहम हो गया है, क्योंकि जिस मुद्दे पर पिछले आठ सालों से विपक्ष उसे घेर रहा था, वह सुप्रीम कोर्ट में सही ठहरा दिया गया है।
लेकिन खास बात ये है कि अदालत ने अपना फैसला प्रक्रिया पर दिया है न कि नोटबंदी के परिणामों पर। पाठकों को याद होगा कि सरकार ने नोटबंदी के फैसले के पीछे काले धन का खात्मा, आतंकवाद पर चोट, जाली नोटों पर रोक लगाने के उद्देश्य का हवाला दिया था। लेकिन रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में नकली नोटों की बढ़ोतरी बताई गई, आतंकवाद को खत्म नहीं किया जा सका और 2018 में केन्द्रीय कृषि मंत्रालय ने माना था कि नोटबंदी के बाद से नकदी की कमी के चलते लाखों किसान, रबी सीजन में बुआई के लिए बीज-खाद नहीं खरीद सके और इसका उनकी फसल पर बहुत बुरा असर पड़ा था। इसके अलावा छोटे व्यापारियों, लघु और मध्यम उद्योगों के साथ-साथ रोजगार पर भी नोटबंदी का विपरीत प्रभाव पड़ा था। इस नजरिए से देखा जाए तो नोटबंदी जिन उद्देश्यों के साथ लागू की गई थी, वे पूरे नहीं हुए।
बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद में भी विवादित जमीन पर सर्वोच्च अदालत ने हिंदू पक्ष का अधिकार माना था। हालांकि बाबरी मस्जिद को उन्मादी भीड़ ने तोड़ा और एक ऐतिहासिक ढांचे को नष्ट किया गया, इसे कानून व्यवस्था का उल्लंघन माना गया था। लेकिन इस उल्लंघन वाली बात का जिक्र राजनैतिक असुविधा देखते हुए नहीं किया जाता है। आज की हकीकत ये है कि उस जमीन पर अब राम मंदिर बन रहा है। ठीक इसी तरह लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन में जो भी तकलीफें एक फैसले के कारण आई हों, सच ये है कि देश में नोट बदल चुके हैं, इनके साथ संवेदनाएं और सरोकार भी बदल गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को अब भाजपा तमगे की तरह इस्तेमाल करेगी, इसमें कोई दो राय नहीं है।