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पुलिस विभाग अक्सर कई तरह के आरोपों से घिरा रहता है। जैसे पुलिस जनता की सेवा और रक्षा करने की जगह उसे भयभीत करती है। पुलिस की प्राथमिकताएं रसूखदारों के लिए कुछ और, आम जनता के लिए कुछ और हैं। पुलिस विभाग सत्ता के दबाव में काम करता है। मौजूदा व्यवस्था में पुलिस का जो रवैया है, उसमें ये आरोप बेबुनियाद भी नहीं लगते हैं। क्योंकि समाज के दबे-कुचले लोगों, जाति, धर्म और धन से कमजोर तबके को पुलिस से दोहरी प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा, ऐसे बहुत से प्रकरण अलग-अलग राज्यों में घटते ही रहते हैं। लेकिन इसी बीच पुलिस की एक नयी छवि को दिखाने वाला प्रकरण देश की राजधानी दिल्ली में घटित हुआ। इस घटना से पुलिस नहीं, समाज के रवैये पर सवाल खड़े हो गए हैं।

बीती 4 जनवरी को दिल्ली पुलिस के एएसआई शंभूदयाल मायापुरी इलाके में मोबाइल छीनने वाले एक आरोपी को पकड़ कर ले जा रहे थे, तभी आरोपी ने उन पर चाकू से ताबड़तोड़ हमले कर दिए। आरोपी का नाम अनीश बताया जा रहा है। शंभूदयाल पर हमला करने के बाद आरोपी पास के एक कारखाने में छिप गया और वहां भी उसने एक मजदूर को चाकू की नोंक पर बंधक बना लिया। दिल्ली पुलिस ने किसी तरह उस मजदूर को छुड़ाया और अनीश को गिरफ्तार किया। इस घटना में घायल एएसआई शंभूदयाल की इलाज के दौरान मौत हो गई। अब दिल्ली सरकार ने उन्हें शहीद बताते हुए उनके परिवार को एक करोड़ रुपए की राशि देने की घोषणा की है।

चूंकि आरोपी का नाम अनीश है, तो समाज में आग लगाने के लिए तैयार बैठे लोगों ने फौरन इस मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की। आरोपी का नाम मोहम्मद अनीस बताते हुए इस पर फिर हिंदू-मुस्लिम विवाद खड़ा करने की कोशिश सोशल मीडिया के जरिए शुरु हो गई। हालांकि यहां दिल्ली पुलिस ने फौरन बात संभालते हुए ट्वीट कर साफ किया कि शंभू दयाल की हत्या करने वाले आरोपी का नाम अनीश राज, पुत्र -प्रह्लाद राज है। यह एक अपराधी है। दिल्ली पुलिस ने ट्वीट में ये भी लिखा कि मामला सांप्रदायिक नहीं है। सोशल मीडिया में कुछ हैंडल्स द्वारा गलत व भ्रामक जानकारी दी जा रही है।

सोशल मीडिया नफरत फैलाने का सबसे सस्ता, सुलभ साधन बन चुका है, इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन समाज में नफरत परोसने वालों को यह जरूर देख लेना चाहिए कि वे कैसे अपने लिए ही गड्ढा खोद रहे हैं। हो सकता है नफरत के जरिए सियासत में फायदा हो। धर्म की रक्षा के नाम पर सत्ता हासिल हो जाए। लेकिन इसमें समाज के ताने-बाने को कितना नुकसान पहुंच चुका है, शंभूदयाल की मौत उसका जीता-जागता उदाहरण है। आरोपी ने उन पर चाकू से हमला किसी अंधेरी, सुनसान जगह पर नहीं किया, बल्कि कैमरे में कैद हुआ है कि आरोपी बीच बाजार उन पर चाकू मार रहा है। आस-पास लोग खड़े हैं, जिनमें से कुछ उसे रोकने आगे बढ़ते हैं, तो आरोपी उन सबको भी चाकू से डरा देता है। अगर आरोपी के पास बंदूक होती, तब लोगों का डरना स्वाभाविक था, क्योंकि उसमें दूर से किसी को भी मारा जा सकता है।

लेकिन चाकू लिए आदमी को अगर सारे लोग हिम्मत जुटाकर घेरते और किसी तरह उसे रोकते तो शायद शंभूदयाल आज जीवित होते। एक चाकू से बहुत सारे लोगों का डर कर पीछे हट जाना, इस बात का उदाहरण है कि अब हमारे समाज से हिम्मत को तोड़ने में नफरत कामयाब रही है। मुमकिन है अपने सामने एक आदमी की चाकू से हत्या के बाद बहुत सारे लोग घर जाकर आराम से खा-पीकर सो भी गए होंगे या फिर इस घटना को किसी फिल्मी कहानी की तरह बता रहे होंगे कि हमारे सामने ऐसा हुआ। समाज इतना संवेदनहीन एक दिन में नहीं बना है। इसे बाकायदा नफरत की घुट्टी पिला-पिलाकर स्वार्थी और संवेदनहीन बनाया गया है। ऐसे समाजनिर्माण की जिम्मेदारी सरकार पर भी है, जो दिवास्वप्नों में उलझाकर, नए भारत के निर्माण का दावा कर पुरानी सभी अच्छी चीजों को खत्म करने की अघोषित मुहिम में लगी हुई है।

एक पुलिसकर्मी अपना काम करते हुए मारा जाता है और इस स्थिति पर चिंतामग्न होने की जगह अनीस बनाम अनीश का विवाद खड़ा करने की कोशिश होती है। ऐसा ही पिछले दिनों श्रद्धा-आफताब मामले में हुआ। जिसमें एक लड़की प्यार में न केवल धोखे का शिकार हुई, बल्कि क्रूरता से मारी गई। उस पर भी हिंदू-मुसलमान का खेल शुरु हो गया। सरकारों को इस बात की चिंता होने लगी कि लव जिहाद बढ़ रहा है।

अंतरधार्मिक विवाहों पर सरकारी नजर रखने की तैयारियां शुरु हो गईं। लेकिन इस सवाल पर गौर नहीं फरमाया गया कि आखिर श्रद्धा इतनी अकेली क्यों पड़ी कि अपने प्रेमी के साथ असहज होने के बावजूद उससे अलग नहीं हो पाई। इस साल की शुरुआत में एक और हैवानियत भरा मामला दिल्ली में ही सामने आया, जिसमें एक लड़की 12 किमी तक कार के पहियों के नीचे कुचलती-घिसटती रही। उस लड़की की जान तो चली गई, लेकिन उसका चरित्र हनन किए बिना समाज को चैन कैसे पड़ता। वो नशा करती थी या नशे के व्यापार में थी, उसका अपने पुरुष मित्र से झगड़ा हुआ या वह इतनी रात तक अकेले बाहर क्यों थी, इन सारे सवालों पर चर्चा होने लगी।

जबकि सवाल ये होना था कि उस लड़की को किन वजहों से देर रात तक घर से बाहर काम पर रहना पड़ता था। अगर वो रात को काम करती है और देर से घर लौटती है, तब भी राजधानी की सड़कें इतनी सुरक्षित क्यों नहीं हैं कि किसी को, किसी भी वक्त, कोई डर या परेशानी न हो। अगर उस लड़की ने नशे की हालत में वाहन चलाया तो फिर वे लड़के क्या होश में थे, जो पहियों के नीचे दबे शरीर को नहीं देख पाए। इस तरह के सवालों के जवाब ढूंढने में समाज के लिए असहज स्थिति बन जाती, इसलिए बेहतर है लड़की का ही चरित्रहनन कर दें।

एएसआई शंभूदयाल प्रत्यक्ष तौर पर चाहे चाकू के वार से शहीद हुए हों, असल में तो उन्हें समाज की संवेदनहीनता ने मार डाला है।

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