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-सुनील कुमार।।

केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी के नागपुर दफ्तर को फोन करके धमकी दी गई और माफिया सरगना दाऊद इब्राहिम का नाम लेते हुए फिरौती मांगी गई वरना गडकरी को जान से मार देने की बात कही गई। नागपुर पुलिस ने जब जांच की, तो पता लगा कि ये टेलीफोन कॉल कर्नाटक की एक जेल में बंद एक बड़े गैंगस्टर जयेश कांथा ने किए थे। अब यह तो एक बड़े केन्द्रीय मंत्री का मामला था इसलिए पुलिस ने आनन-फानन धमकाने वाले फोन का पता लगा लिया वरना कोई कारोबारी होता तो पुलिस रिपोर्ट की हिम्मत भी नहीं होती, और हो सकता है कि इस धमकी के एवज में भुगतान भी कर दिया जाता। दूसरी बात यह है कि नितिन गडकरी भाजपा नेता हैं, और कर्नाटक में भाजपा का ही राज है। वहां की जेल से अगर मुजरिम इस तरह की फिरौती मांग रहे हैं, तो यह बात देश की तमाम जेलों में एक सुधार की नौबत दिखा रही है।

कुछ महीने पहले जब पंजाब में एक बड़े मशहूर गायक का कत्ल हुआ, तो उसके पीछे कनाडा-ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में बसे हुए पंजाबी गैंगस्टरों का भी नाम आया, और दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद पंजाब के एक बड़े गैंगस्टर का भी नाम आया। जाहिर है कि जो लोग जेल के भीतर रहते हुए, या देश के बाहर रहते हुए भी यहां पर माफिया अंदाज में खुलेआम कत्ल करवाने की ताकत रखते हैं, तो वे इसी ताकत के बदौलत उगाही भी करते ही होंगे। लोगों को याद होगा कि मुम्बई में जिस वक्त दाऊद इब्राहिम का राज चलता था, उस वक्त बड़े-बड़े बिल्डरों और कारोबारियों को धमकी के फोन जाते थे, और वे जिंदा रहने की कीमत अदा करते थे। उस वक्त और उसके बाद भी मुम्बई की जेलों से ऐसे गिरोह चलते रहे, और दाऊद जैसे बड़े मुजरिम पाकिस्तान में रहते हुए आज भी भारत में कई किस्म के जुर्म में शामिल बताए जाते हैं।

देश के तकरीबन हर राज्य में जेलों का यही हाल सुनाई पड़ता है कि वहां पैसा बोलता है। चाहे वह मुजरिम का हो, या किसी कारोबारी का, जिसके पास जेल अफसरों को देने के लिए पैसा है, उसके पास हर गैरकानूनी ताकत आ जाती है। बहुत से लोग जेलों से निकलकर रात गुजारने अपने घर चले जाते हैं, जेलों के भीतर हर किस्म की सहूलियत, हर किस्म के नशे, मोबाइल फोन की सुविधा, इन सबके लिए या तो पैसा लगता है, या राजनीतिक ताकत लगती है। पिछले कुछ बरसों से तिहाड़ जेल में बंद एक ऐसे मुजरिम की कहानी चारों तरफ से स्थापित हो रही है जिसने वहां रहते हुए देश के कुछ सबसे बड़े कारोबारियों को जमानत दिलवाने के नाम पर उनके परिवार से सैकड़ों करोड़ रूपये उगाही कर लिए, और फिल्म अभिनेत्रियों से अंतरंग संबंध बनाने के लिए उन पर सैकड़ों करोड़ खर्च भी कर दिए। यह पूरा काम जेल में रहते किया गया। देश की राजधानी की यह सबसे प्रमुख जेल अगर मुजरिमों के लिए इस किस्म का आरामगाह है कि वहां रहकर वे उसे जुर्म के अड्डे की तरह चला सकते हैं, तो फिर बाकी जेलों के बारे में कोई उम्मीद करना फिजूल की बात है।

दरअसल जेलों के भीतर हिफाजत के नाम पर जेलों के पूरे कैम्पस की जिस तरह तालाबंदी होती है, उसकी वजह से बाहर के दूसरे अफसर भी जेलों में झांक नहीं पाते। जिलों के कलेक्टरों पर जेलों के कामकाज की निगरानी का जिम्मा रहता है, लेकिन वे भी उस तरफ से रहस्यमय वजहों से आंखें मोड़े रहते हैं। बड़े-बड़े नेताओं के कोई न कोई पसंदीदा मुजरिम हमेशा ही जेलों में बंद रहते हैं, इसलिए वे भी जेलों के अपराधीकरण के खिलाफ आवाज नहीं उठाते। कुल मिलाकर सत्ता और पैसों की ताकत जेलों को बिकने का सामान बना देती है, और वहां एक अलग ही कानून चलता है जो कि देश के कानून से परे का होता है। हमने अपने आसपास की जेलों की कई ऐसी कहानियां सुनी हैं कि वहां कोई पैसे वाला बंद होता है, तो जेलों में बंद दूसरे सरगना उसे पीट-पीटकर बाहर अपने गिरोह को भुगतान करवाते हैं। अगर ऐसा भुगतान नहीं होता तो रोज उस पैसे वाले कैदी की थाली में लोग थूक देंगे, उसके मुंह पर थूक देंगे। छत्तीसगढ़ की जेलों के भीतर से भी बाहर फोन करके वसूली और उगाही करने के मामले सुनाई देते रहते हैं। बड़़े-बड़े मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का दुर्ग जिले की जेल ऐसी माफियागिरी की सबसे बड़ी गवाह है। और यह बात महज हिन्दुस्तान पर लागू होती हो ऐसा भी नहीं है, दुनिया के सबसे सुरक्षित समझे जाने वाले अमरीका में भी जेलों के भीतर मुजरिमों का इसी किस्म का राज चलता है, जेलों के भीतर हत्याएं होती हैं, और वहां से गिरोह चलते हैं।

जेलों के भीतर बंद लोगों के हाथ मोबाइल फोन पहुंच जाने से बाहर की दुनिया में उनकी खूनी ताकत की दहशत और फैल जाती है। इसलिए केन्द्र और राज्य सरकारों को यह सोचना चाहिए कि इस सिलसिले को कैसे खत्म किया जा सकता है। जेलों में मोबाइल सिग्नल रोकने के लिए जैमर लगाना एक पुरानी तकनीक है, लेकिन जब तक जैमर नए सिग्नलों के लायक बने, तब तक मोबाइल सर्विस और अगले सिग्नलों पर चली जाती हैं। फिर मोबाइल से परे भी जेलों में जुर्म बहुत किस्म के होते हैं, और इन्हें रोकने के लिए वहां जांच की एक अधिक पारदर्शी व्यवस्था होना जरूरी है। यह कैसे हो सकता है इसे जानकार अफसर तय कर सकते हैं, लेकिन जिन जगहों को सजा पाने के लिए बनाया गया है, वे जगहें जुर्म करने के अड्डे बन जाएं, यह तो बर्दाश्त के लायक बात नहीं है।

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