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इस साल देश के 9 राज्यों विधानसभा चुनाव होना तय है, जिसमें से पूर्वोत्तर के तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में चुनाव की तारीखों का ऐलान निर्वाचन आय़ोग ने कर दिया है। त्रिपुरा में 16 फरवरी को चुनाव होंगे, जबकि मेघालय और नगालैंड में 27 फरवरी को। छोटे-छोटे से इन राज्यों में अलग-अलग तारीखों पर मतदान का गणित क्या है, ये आयोग ही बतला सकता है। वैसे नगालैंड और मेघालय में भाजपा के लिए कोई खास चुनौती नहीं है, लेकिन त्रिपुरा में सत्ता को बचाए रखना इस बार कठिन लग रहा है। पिछली बार 27 बरसों के वामपंथी शासन को खत्म करने में भाजपा को अभूतपूर्व सफलता मिल गई थी, लेकिन सफलता के शिखर पर टिके रहना अब भाजपा को मुश्किल दिख रहा है। इस बीच वामदलों और कांग्रेस के फिर साथ आने की खबरों ने इन अटकलों को बल दिया है कि इस बार त्रिपुरा में भाजपा सफलता दोहरा नहीं सकेगी।

पूर्वोत्तर के इन तीन राज्यों के अलावा मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में भाजपा के लिए हालात कठिन हैं और इसके साथ ही कर्नाटक में सत्ताविरोधी रुझान दिख रहा है। इस साल के विधानसभा चुनावों को भाजपा सेमीफाइनल की तरह देख रही है और इसके प्रदर्शन को देखकर ही आम चुनाव का फाइनल मैच खेलने की रणनीति बनाई जाएगी। वैसे भाजपा अभी से 2024 में हैट्रिक लगाने की तैयारी में जुट गई है, इसके संकेत दो दिन की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में मिल गए। इसमें भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को प्रधानमंत्री मोदी ने 400 दिनों की तैयारी का मंत्र दिया है।

अगले आम चुनावों में 400 सौ दिनों का वक्त बचा है यह बताते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि चुनावी हितों को परे रखते हुए समाज के सभी वर्गों के लिए पार्टी को पूरे समर्पण की भावना से काम करना चाहिए। यहां श्री मोदी राहुल गांधी जैसी भाषा बोलते नजर आ रहे हैं, जो भारत जोड़ो यात्रा के किसी चुनावी मकसद से इंकार करते हैं। कांग्रेस भी यही कहती है कि इस यात्रा को नफरत, बेरोजगारी और महंगाई के खिलाफ निकाला जा रहा है, केवल चुनाव जीतना हमारा लक्ष्य नहीं है।

जबकि भाजपा के लिए कहा जाता है कि वह हर वक्त चुनावी मोड में रहती है। एक चुनाव से निपटते ही पार्टी के रणनीतिकार अगले चुनाव की तैयारी में जुट जाते हैं। नगरीय निकाय चुनावों तक को राष्ट्रीय स्तर के चुनाव जैसा लड़ा जाता है और हर सीट के लिए पार्टी स्टार प्रचारकों को थोक के भाव में भेजती है। चुनाव और सत्ता के मकसद को साधने वाली भाजपा के कार्यकर्ताओं को अब श्री मोदी चुनावी हितों से परे सभी वर्गों के लिए समर्पण की भावना से काम करने कह रहे हैं। देवेन्द्र फड़नवीस प्रधानमंत्री के भाषण को अत्यंत प्रेरणादायक बताते हुए कहा कि भाजपा अब एक राजनीतिक आंदोलन नहीं बल्कि एक सामाजिक आंदोलन है और सामाजिक और आर्थिक स्तर पर बदलाव लाने की कोशिश कर रही है।

वैसे इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है, क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी खुद को एक सांस्कृतिक संगठन बताता है, लेकिन सारे कार्य हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ावा देने वाले करता है। अब भाजपा भी खुद को सामाजिक आंदोलन में परिवर्तित बता रही है, तो इसके मायने ये हैं कि भाजपा अब मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए राम नाम के मुद्दे से ऊपर उठकर नए समीकरण बनाने की जुगत में लग गई है। खबरों के मुताबिक श्री मोदी ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में ये कहा कि चुनाव में अब 400 दिन बचे हैं और हमें अल्पसंख्यक समुदायों के लिए काम करने के लिए इस वक्त का इस्तेमाल करना चाहिए। कितनी विडंबना है कि देश पर पिछले 9 सालों से शासन कर रहे मोदीजी को अब आखिरी के 4 सौ दिनों में अल्पसंख्यक समुदायों के लिए काम करने की बात करनी पड़ रही है।

हालांकि इस बीच सरेआम धर्मसंसदों में अल्पसंख्यकों के लिए आपत्तिजनक बयानबाजी हुई, भाजपा के सांसद और मंत्री तक भड़काऊ बयान देते रहे, लेकिन तब केंद्र की ओर से जो सख्ती दिखानी चाहिए थी, वो नहीं दिखाई गई। कानूनी प्रक्रिया के इंतजार की आड़ में नफरत को बढ़ने दिया गया। बताया जा रहा है कि बिना किसी का नाम लिए श्री मोदी ने फिल्मों के बहिष्कार की मुहिम चलाने वालों को भी नसीहत दी। जाहिर है उनका इशारा पठान फिल्म को लेकर किए गए विवाद की ओर था, जिस पर पिछले दिनों भाजपा नेताओं की शह पर जमकर देश में हंगामा हुआ। इस हंगामे में भाजपा के लिए नुकसान दिखने लगा तो अब प्रधानमंत्री नसीहत दे रहे हैं। जबकि फिल्मों को लेकर हंगामा पिछले बरसों में खूब होता रहा है।

यह माना जा सकता है कि प्रधानमंत्री के इस बदले रुख और 4 सौ दिनों की तैयारी के पीछे एक बड़ा कारण भारत जोड़ो यात्रा भी है, जिसने राहुल गांधी को एक अलग, ऊंचे स्थान पर ला खड़ा किया है। पिछले दिनों एक अखबार ने राहुल गांधी को लोकतंत्र का महानायक बताते हुए लीड लगाई। मोदीकाल में लगातार मीडिया में मोदीजी ही छाए रहते हैं ये एक तथ्य है। हर रोज अनेक अखबारों में पहले पन्ने पर या तो उनकी खबर होती है, या फिर विज्ञापन। ऐसे में राहुल गांधी को लीड खबर बनाना भाजपा के लिए चेतावनी भरा संकेत है कि शायद अब दिन बदल सकते हैं। मोदीजी ने इस चेतावनी को संभवत: भांप लिया है और कांग्रेस से होने वाले जोरदार मुकाबले के लिए वे अभी से भाजपा को तैयार करने में जुट गए हैं।

भाजपा में एक खास बात ये है कि वहां शीर्ष नेतृत्व से निकला हरेक शब्द अमिट आदेश की तरह कार्यकर्ता मानते हैं। अनुशासन भाजपा की खास पहचान है। इसलिए उसे चुनावी तैयारियों में कम से कम इस ओर से निश्चिंतता रहती है कि उसके कार्यकर्ता पूरी प्रतिबद्धता के साथ हरेक बूथ को मजबूत करने में जुट जाएंगे। कांग्रेस अपनी सशक्त विचारधारा के बावजूद इस मुद्दे पर भाजपा के आगे कमजोर पड़ जाती है।

कांग्रेस में अनुशासन की परवाह कम की जाती है। एक अजीब से गुमान में कांग्रेस के नेता रहते हैं कि केवल उनके कहने से मतदाता उन्हें वोट देने आ जाएगा। कई चुनावों में हार के बाद भी इस मुद्दे पर कांग्रेस ने कितना आत्ममंथन किया है, कहा नहीं जा सकता। फिलहाल भाजपा की तैयारियों को देखते हुए ही कांग्रेस को सबक लेने की जरूरत है। केवल राहुल गांधी और कुछ सौ कार्यकर्ताओं के साढ़े तीन हजार पैदल चल लेने से कांग्रेस की छवि में सुधार तो आया है, लेकिन वोट तभी मिलेंगे, जब जन-जन तक कांग्रेस कार्यकर्ताओं की पहुंच होगी।

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