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भारतीय पहलवानों के कारण अंतरराष्ट्रीय खेल जगत में भारत को खास पहचान मिली है। एशियाड और ओलंपिक जैसे आयोजनों में पदकों का सूखा खत्म करवाने में इन पहलवानों का खास योगदान रहा है। सरकार अपने कई कार्यक्रमों और विज्ञापनों में इन खिलाड़ियों का यदा-कदा इस्तेमाल भी करती रही है। खिलाड़ियों के नाम के सहारे सरकारी प्रचार में आसानी होती है। लेकिन इन खिलाड़ियों की मुश्किल घड़ी में उन्हें किस तरह अकेला छोड़ दिया जाता है, इसका ताजा उदाहरण पिछले दिनों दिल्ली में देखने मिला, जब भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण सिंह पर पहलवानों ने मनमाने तरीके से संघ चलाने और महिला खिलाड़ियों का यौन शोषण करने के आरोप लगाए थे।

इन खिलाड़ियों की यही मांग थी कि ब्रजभूषण सिंह को पद से हटाया जाए, उन पर कार्रवाई की जाए। बात महिलाओं के सम्मान से जुड़ी थी, तो कायदे से शिकायत की पहली ही आवाज़ पर सरकार को जवाब दे देना चाहिए था। लेकिन अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पहलवानों को दिल्ली के जंतर-मंतर पर तीन दिन तक प्रदर्शन करना पड़ा। उनके पक्ष में कांग्रेस, आप, माकपा जैसे दलों ने आवाज़ उठाई। सोशल मीडिया पर पहलवान विनेश फोगट की रोती हुई तस्वीर तेजी से वायरल हुई। सरकार की संवेदनहीनता पर सवाल उठने लगे। तब जाकर खेल मंत्रालय ने बृजभूषण सिंह को कुश्ती संघ के कामकाज से दूर रहने के निर्देश दिए हैं।

जिस सरकार ने खेलो इंडिया और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे आयोजनों को काफी प्रचारित किया, उसका ऐसा रवैया काफी आश्चर्यजनक था। इस मामले का अंजाम क्या होगा, इस बारे में कोई दावा नहीं किया जा सकता। क्योंकि इससे पहले भी कई भाजपा सांसदों और मंत्रियों पर गंभीर आरोप लगे, और उन्हें पद से हटाने की मांगें उठी, जो कभी पूरी नहीं हुई। किसी का पद से हटना तो दूर भाजपा और सरकार के शीर्ष पदों पर बैठे जिम्मेदार लोग भी अपने सांसदों के अघोषित बचाव में चुप्पी साधे रहे। अंदेशा है कि यही हश्र भारतीय कुश्ती संघ मामले में भी हो सकता है।

क्योंकि अन्याय के शिकार लोगों को इंसाफ दिलाने की नीयत होती तो पहले दिन से ही कार्रवाई शुरु हो जाती। अब देश में सवाल उठने लगे हैं कि जब कुश्ती करने वाली महिला खिलाड़ी सुरक्षित महसूस नहीं कर रही हैं या सरकार उनकी सुरक्षा का इंतजाम नहीं कर पा रही है, तो आम लड़कियां कैसे महफूज़ रहेंगी। सवाल ये भी है कि इस सरकार के कार्यकाल में किसानों, नौकरी के लिए भटकते नौजवानों, परीक्षाओं में ठगे गए छात्रों को तो बार-बार सड़क पर उतरना ही पड़ा है, अब क्या खिलाड़ियों की बारी आ गई है। हर बार अपने हक की मांग उठाते हुए सड़क पर आने की नौबत क्यों आ रही है।

एक मामला हाल ही में झारखंड से सामने आया है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के प. सिंहभूम ज़िले के खूंटपानी ब्लॉक में बने कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय की 61 लड़कियों ने शौचालय की सफाई, किताबों और स्कूल यूनिफार्म की उपलब्धता जैसी मांगों के साथ जिला उपायुक्त कार्यालय में अपनी शिकायत दर्ज कराई। लेकिन अपनी मांगें सरकारी अधिकारी तक पहुंचाने का जो रास्ता इन बच्चियों ने चुना, वह अभूतपूर्व था। ये बच्चियां रात डेढ़ बजे छात्रावास से निकलीं और सड़क की जगह खेतों के रास्ते होते हुए करीब 18 किमी पैदल चलकर सुबह सात बजे चाईबासा पहुंची और वहां उपायुक्त कार्यालय पहुंचकर अपनी शिकायतें अधिकारी को सुनाईं। अधिकारी ने इन बच्चियों की शिकायत को सुनकर समाधान का आश्वासन दिया और फिर एक वाहन से इन्हें वापस छात्रावास तक पहुंचाया। नक्सल प्रभावित इलाके में, ठंड में आधी रात को एक हास्टल से 16-17 साल की लड़कियों का यूं पैदल निकल जाना और किसी को इसकी भनक न मिलना, काफी गंभीर मामला है।

गनीमत है कि सारी बच्चियां सुरक्षित रहीं, लेकिन अगर कोई अनहोनी होती तो इसका जिम्मेदार कौन होता। फिलहाल स्कूल की प्रिंसिपल, लेखपाल और सभी शिक्षिकाओं का तबादला कर दिया गया है, उन्हें कारण बताओ नोटिस भी जारी किया गया है। हास्टल में रात को सुरक्षा देने वाले प्रहरी को हटा दिया है। मगर इससे मूल प्रश्न का जवाब नहीं मिल रहा है कि आखिर इन बच्चियों को इतना जोखिम उठाने की जरूरत क्यों पड़ी।

कुछ बच्चियों ने बीबीसी से चर्चा में बताया है कि यहां के शौचालयों में सफाई की कोई व्यवस्था नहीं है। शौचालय कई बार छात्राओं से ही साफ करवाए जाते हैं और कई बार उनसे पांच-पांच रुपए इक_ा करके सफाईकर्मी को बुलाया जाता है। छठवीं से बारहवीं तक के इस आवासीय विद्यालय में 498 छात्राएं हैं, और कुल 51 शौचालय हैं। जब ये छात्राएं चाईबासा शिकायत करने पहुंचीं तो उसके एक दिन पहले ही 11वीं की छात्राओं से प्रिंसिपल ने शौचालय साफ करवाया था। इसलिए 11 की छात्राएं ही पैदल शिकायत लेकर निकल पड़ीं। प्रिंसिपल का कहना है कि यहां सफाईकर्मी का पद नहीं है और हर दिन उसे बुला नहीं सकते, इसलिए छात्राओं से यह काम करवाना पड़ता है। जबकि ज़िला के प्रभारी शिक्षा पदाधिकारी ललन सिंह सर्वांगीण विकास का कारण बताते हुए कहते हैं कि यह आवासीय विद्यालय है, इसका उद्देश्य ये नहीं होता है कि यहां सिफ़र् पढ़ाई हो। वह रोज़मर्रा की ज़िंदगी कैसे जिएंगी, समाज में कैसे रहेंगी। इसलिए इन सभी को अलग-अलग तरह के काम में लगाया जाता है।

कितनी आसानी से शौचालय साफ करवाने की बात को रोजमर्रा के काम के प्रशिक्षण से जोड़ दिया गया। वैसे तो गांधीजी भी शौचालय की सफाई से लेकर अपना हर काम खुद करते थे। कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता, ये सीख भी बच्चों को मिलनी चाहिए। लेकिन सवाल ये है कि क्या ये सीख केवल गरीब और उन ग्रामीण बच्चों को ही मिलनी चाहिए, जो पढ़ने की ललक लिए अपने घर से दूर हास्टल में रहने आती हैं।

2006-07 में सर्वशिक्षा अभियान के तहत कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय देश में कई जगहों पर खोले गए थे। इसमें 75 प्रतिशत सीटें अजा, जजा, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों के लिए हैं, जबकि 25 प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वालों के लिए। यानी संपन्न तबके की बच्चियां यहां पढ़ेंगी, इसकी संभावना कम है। अगर ऐसा होता तब शौचालय साफ करवाने के पीछे क्या कारण दिया जाता, ये देखना दिलचस्प होता।

वैसे झारखंड के इस विद्यालय में छात्राओं के भोजन में पैसे की कमी के कारण कटौती की जाती है। स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति भी इसी वजह से नहीं हो रही है। समाज के खाए-पिए-अघाए वर्ग के लिए ये शिकायतें मामूली हो सकती हैं, लेकिन 12वीं तक की शिक्षा हासिल करने में भी गरीब बच्चियों को कितनी तकलीफों का सामना करना पड़ता है, ये उसका एक उदाहरण है। पढ़ने से लेकर खेलने तक हर मोर्चे पर संघर्ष करना ही क्या इस देश की लड़कियों की नियति है।

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