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उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने बोर्ड परीक्षाओं में होने वाली नकल को रोकने के लिए एक हैरानी भरा आदेश पारित किया है। परीक्षा में कड़ाई बरतने के लिए सरकार ने फैसला लिया है कि नकल करने वाले विद्यार्थियों पर रासुका या एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाया जाएगा। जो स्कूल परीक्षा केंद्र बनाए जाएंगे, वहां प्रधानाचार्य के कक्ष से अलग एक स्ट्रांग रूम बनाया जाएगा, जहां प्रश्न पत्र रखे जाएंगे। परीक्षा केंद्रों पर नजर रखने के लिए कंट्रोल रूम बनेंगे, हर जिले के कंट्रोल रूम लखनऊ से जुड़ेंगे। अगर किसी केंद्र में सामूहिक नकल का मामला आया, तो फिर परीक्षा निरस्त कर, उस केंद्र को हटा दिया जाएगा। गौरतलब है कि उप्र में 16 फरवरी से 10वीं और 12वीं की परीक्षाएं हो रही हैं। परीक्षाओं में नकल के लिए कुख्यात कुछ राज्यों में उप्र का नाम भी आता है। स्कूलों की परीक्षाओं के अलावा व्यावसायिक और सरकारी नौकरी के लिए परीक्षाओं में नकल की खबरों के कारण योगी सरकार अतीत में काफी बदनाम हो चुकी है। इसलिए शायद मुख्यमंत्री ने इस बार फैसला लिया है कि परीक्षा पूरी तरह से पारदर्शी और सख्त तरीके से हो।

परीक्षा में नकल न हो और सभी विद्यार्थी अपनी मेहनत और योग्यता के अनुरूप अंक हासिल करें, यह एक आदर्श स्थिति है। मगर क्या इसके लिए विद्यार्थियों के साथ अपराधियों जैसा व्यवहार उचित है। 10वीं और 12वीं के बच्चे अधिक से अधिक 17-18 साल के होंगे। बेशक नयी तकनीकी के कारण आज के बच्चे उम्र से पहले परिपक्व हो रहे हैं और वयस्क जीवन की बहुत सी बातों से अभी से परिचित हो जाते हैं। मगर क्या वे देश के लिए खतरा पैदा करने वाला कोई कार्य कर सकते हैं। एकाध अपवाद को छोड़ दें, तो अधिकतर बच्चे बड़ों जैसी समझ रखने के बावजूद कई अर्थों में नासमझ ही होते हैं। वे कोई गलत काम करते भी हैं, तो रोमांच या किसी से प्रभावित होकर करते हैं। अनुभवहीनता, कमअक्ली और किशोरावस्था की ऊर्जा उन्हें कई बार गलत राह पर ले जाती है। अगर बच्चे परीक्षा में नकल करने को प्रवृत्त भी होते हैं, तो इसमें उनकी मंशा देश की सुरक्षा को खतरा पहुंचाने की नहीं होती है। बल्कि परिवार और समाज का अच्छे अंकों वाला दबाव उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर देता है।

योगी सरकार ने अपनी छवि सुधारने के लिए नकल करने वालों पर एनएसए लगाने का जो फैसला लिया है, उससे कई बच्चों के भविष्य के खराब होने का अंदेशा है। ज्ञात हो कि राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम-1980, देश की सुरक्षा के लिए सरकार को अधिक शक्ति देने से संबंधित एक कानून है। अगर सरकार को लगता है कि कोई व्यक्ति कानून-व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में उसके सामने बाधा खड़ा कर रहा है तो वह उसे एनएसए के तहत गिरफ्तार करने का आदेश दे सकती है। साथ ही, अगर उसे लगे कि वह व्यक्ति आवश्यक सेवा की आपूर्ति में बाधा बन रहा है तो वह उसे एनएसए के तहत गिरफ्तार करवा सकती है। अमूमन एनएसए आतंकवाद या आंतरिक शांति भंग करने के आरोपियों पर लगाया जाता है। लेकिन अब इस कानून का उपयोग राष्ट्र की जगह सरकार विरोधी गतिविधियों के लिए ज्यादा होने लगा है। सरकार के विरोध को देशद्रोह जैसा बना दिया गया है। एनएसए का प्रयोग ऐसे लोगों के लिए होने लगा है। लेकिन योगी सरकार अब एक कदम आगे बढ़ते हुए परीक्षा में नकल को एनएसए के दायरे में ला रही है। अब इस बात की आशंका बढ़ जाएगी कि इसमें निजी चिढ़ और विरोध के कारण कुछ विद्यार्थियों पर नकल का इल्जाम लगाकर एनएसए लगाया जा सकता है। और इस उम्र में किसी छात्र पर एनएसए लगने का मतलब है उसके भविष्य की सारी संभावनाओं को कुचल देना। फिर वह छात्र निर्दोष भी पाया जाएगा, तो इस बात की उम्मीद कम रहेगी कि उसे उच्च शिक्षा के लिए कहीं दाखिला मिलेगा या फिर उसे नौकरी का पात्र माना जाएगा। एक बार कानून का शिकंजा कस जाता है, तो फिर उसके निशान जिंदगी भर नहीं मिटते हैं, यह बात क्या योगीजी नहीं जानते हैं।

अगर परीक्षाओं में नकल रोकनी है, तो उसके लिए सरकार को पहले ये विचार करना चाहिए कि आखिर नकल करने पर छात्र मजबूर क्यों होते हैं। आखिर ऐसी क्या कमी है हमारी शिक्षा और परीक्षा व्यवस्था में, जिस वजह से परीक्षार्थियों को नकल जैसी गलत प्रवृत्ति का सहारा लेना पड़ता है। हाल ही में एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट 2022 आई है, जिसमें पता चला है कि सरकारी या निजी स्कूलों में तीसरी कक्षा के 20 प्रतिशत छात्र ही दूसरी कक्षा की पाठ्यपुस्तकों को पढ़ने में सक्षम हैं। जबकि 2018 में यह आंकड़ा 27.3 प्रतिशत था। इससे समझा जा सकता है कि प्राथमिक स्तर पर बच्चों को किस तरह शिक्षित किया जा रहा है। यही बच्चे कक्षा दर कक्षा आगे बढ़ते हुए जब 10वीं या 12वीं तक पहुंच जाते हैं, तो उन पर बोर्ड परीक्षाओं में अच्छे अंक लाने का चौतरफा दबाव होता है। मासिक परीक्षाओं के साथ-साथ दो-तीन बार प्री बोर्ड परीक्षाएं होती हैं, ताकि बच्चे फाइनल परीक्षा के लिए तैयार हो जाएं। लेकिन लगातार परीक्षाएं देते हुए बच्चों की मानसिक स्थिति कैसी हो जाती है, कैसे उन पर गणित और अंग्रेजी जैसे विषयों का दबाव होता है, इस पर बहुत कम लोग ध्यान देते हैं। नतीजा ये होता है कि बच्चे या तो आत्महत्याओं की ओर बढ़ते हैं या फिर नकल जैसा रास्ता अपनाते हैं। पिछले कुछ वक्त से सरकार बोर्ड के पहले मानसिक तनाव दूर करने के लिए बच्चों की काउंसलिंग की व्यवस्था भी कर रही है। लेकिन यहां भी समाधान के लिए गलत राह चुनी गई है। बच्चों को मानसिक सहारा देने की जगह ये विचार करना चाहिए कि आखिर परीक्षा प्रणाली ऐसी क्यों है कि बच्चे मानसिक तनाव का शिकार हों। क्यों बच्चों को ये बता दिया गया है कि परीक्षा में सफलता ही जीवन की सफलता है और अच्छे अंक न लाने का मतलब जीवन का बेकार हो जाना है। इस सोच की जगह अगर बच्चों को मानसिक तौर पर पुष्ट बनाने के लिए शिक्षा दी जाए, तो क्या यह देश के भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा। अंकों के सर्कस में बच्चों को उलझाकर उनके जीवन का तमाशा आखिर हम कब तक बनाते रहेंगे।

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