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-सुनील कुमार॥

ट्विटर के मालिक एलन मस्क इस कंपनी को खरीदने के पहले से अभिव्यक्ति की आजादी, बल्कि पूरी आजादी के कड़े हिमायती रहे हैं, और उसी के चलते जब उन्होंने ट्विटर खरीदने के बाद काम खुद देखना चालू किया, तो बहुत से बंद कर दिए गए अकाउंट भी उन्होंने खोल दिए कि लोगों को अधिक आजादी मिलनी चाहिए। इनमें हिंसा की बात करने वाले लोग भी थे, और अलोकतांत्रिक बात करने वाले भी। लेकिन उनका यह मानना है कि हिन्दुस्तान में सोशल मीडिया कानून इतना कड़ा बनाया गया है कि यहां काम करना मुश्किल है। बीबीसी को दिए एक लंबे इंटरव्यू में उन्होंने बहुत से दूसरे जवाबों के साथ-साथ भारत के बारे में भी कहा कि यहां पर हिन्दुस्तानियों को अमरीका या पश्चिमी देशों की तरह की सोशल मीडिया आजादी दे पाना मुमकिन नहीं है, और सरकार के हुक्म न मानने पर भारत में ट्विटर कर्मचारियों को जेल जाना होगा। उन्होंने कहा इसलिए वे अपने कर्मचारियों को जेल भेजने के बजाय भारत के नियमों को मान रहे हैं। उन्होंने यह बात इस सवाल के जवाब में कही कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री से जुड़े हुए ट्वीट ट्विटर ने ब्लाक कर दिए थे।

मुद्दा अकेले ट्विटर का नहीं है, मुद्दा हिन्दुस्तान में सरकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक का है। अभी दो-चार दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला दिया है जिसमें केन्द्र सरकार ने केरल के एक मलयालम समाचार चैनल का लाइसेंस नवीनीकरण करने से मना कर दिया था। बाद में मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा तो अदालत ने यह पाया कि केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय ने अपने खुफिया विभागों की कुछ रिपोर्ट का हवाला देते हुए नवीनीकरण से मना कर दिया था, और ऐसी रिपोर्ट अदालत को भी बताने से इंकार कर दिया था। अदालत ने इस तर्क को गलत पाया कि इस चैनल की कंपनी में जिन लोगों के शेयर हैं, उनका किसी इस्लामिक संगठन से कुछ लेना-देना है। अदालत ने पाया कि न तो यह संगठन प्रतिबंधित है, और न ही केन्द्र सरकार यह साबित कर सकी कि इस चैनल की कंपनी के शेयर होल्डरों का इस संगठन से कुछ लेना-देना है। यह तर्क देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की खुफिया रिपोर्ट की कमर ही तोड़ दी।

अदालत ने कहा कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इस तरह से रोका नहीं जा सकता। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ की बेंच ने यह फैसला दिया जिसमें बड़े खुलासे से मीडिया के महत्व का बखान किया गया है। अदालत ने यह भी कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए जनता के बुनियादी हक नहीं छीने जा सकते। यहां यह जिक्र जरूरी है कि हिन्दुस्तान में मीडिया के अलग से कोई हक नहीं है, और एक नागरिक के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों का उपयोग करके ही अखबार निकलते हैं, या मीडिया के दूसरे कारोबार चलते हैं। टीवी समाचार चैनलों के लिए देश में यह शर्त है कि उन्हें शुरू करने की उनके लाइसेंस के लिए गृह मंत्रालय की सुरक्ष मंजूरी लगती है। इस सुनवाई के दौरान भी गृह मंत्रालय ने जब सीलबंद लिफाफे में कागजात दाखिल किए, तो सुप्रीम कोर्ट ने इस आदत की भी जमकर आलोचना की। इसके साथ-साथ केरल हाईकोर्ट के फैसले की भी बुरी तरह आलोचना की। यह फैसला मुख्य न्यायाधीश ने खुद लिखा, और कहा कि केन्द्र सरकार ने यह स्पष्ट करने की भी कोई कोशिश नहीं की कि किस तरह तथ्यों को छुपाना राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में होगा। फैसले में कहा गया कि सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा को जनता को कानून से मिले हुए हक छीनने के लिए इस्तेमाल कर रही है, और यह कानून के राज में नहीं होने दिया जा सकता।

प्रेस के सबसे जानकार कुछ लोगों का यह कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने जितने खुलासे से इस फैसले में प्रेस के हक की वकालत की है, उसके महत्व को स्थापित किया है, वह इस मामले से परे भी देश के उन तमाम दूसरे मामलों में काम आने वाली बात है जिनमें कोई सरकार प्रेस के हक कुचल रही है। फैसले में कहा गया है कि मीडिया में सरकार की नीतियों की आलोचना किसी भी तरह से व्यवस्था-विरोधी नहीं कही जा सकती। सरकार द्वारा ऐसी भाषा का इस्तेमाल यह बताता है कि सरकार मीडिया से यह उम्मीद रखती है कि वह व्यवस्था की हिमायती रहे। फैसले में कहा गया कि प्रेस की यह ड्यूटी है कि वह सच बोले, और जनता के सामने कड़े तथ्य रखे, और लोकतंत्र में सही दिशा चुनने के लिए उनकी मदद करे।

हिन्दुस्तान में आज सुप्रीम कोर्ट के ऐसे फैसले की बहुत जरूरत थी क्योंकि न सिर्फ केन्द्र सरकार, बल्कि कई राज्य सरकारें भी प्रेस और मीडिया पर तरह-तरह से हमले कर रही हैं। आज ऐसा लग रहा है कि सरकारें प्रेस की आजादी के खिलाफ हैं, संसद भी आज अपने असंतुलित बहुमत की वजह से केन्द्र सरकार के एक विभाग की तरह रह गई है। मीडिया नाम का कारोबार देश के सबसे बड़े कारोबारियों के हाथ में चले गया है, और पत्रकारिता या अखबारनवीसी अब कैसेट और सीडी के संगीत की तरह पुराने वक्त की बात होने जा रही है। ऐसे में अगर लोकतंत्र को बचाना, तो एक बहुत ही मजबूत सुप्रीम कोर्ट की जरूरत है, और अभी ऐसा लग रहा है कि मुख्य न्यायाधीश और उनके मातहत कम से कम कुछ और जज हौसले के साथ अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। ऐसे में इस फैसले में मुख्य न्यायाधीश के लिखे हुए इस वाक्य पर ध्यान देना चाहिए कि लोकतंत्र में प्रेस की क्या ड्यूटी है। अगर मीडिया कहे जाने वाले बड़े-बड़े संस्थान यह जिम्मा नहीं भी उठाते हैं, तो भी सोशल मीडिया और इंटरनेट पर मिली आजादी का इस्तेमाल करते हुए पत्रकारों को अपने पेशे से लोकतंत्र की उम्मीदें पूरी करनी चाहिए।

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