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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

जंतर-मंतर पर खामोशी पसरी है, लेकिन क्या ये खामोशी आने वाले तूफान का संकेत है या मुर्दा शांति की तस्वीर है, यह तय होना अभी बाकी है। कल देश की राजधानी दिल्ली में दो तरह की तस्वीरें देखने मिली, एक जिसमें राजदंड के आगे साष्टांग प्रणाम करते, साधु-संतों से घिरे विपक्षहीन संसद में प्रधानमंत्री लोकतंत्र की महिमा का बखान करते दिखे, दूसरी तस्वीर में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे पहलवानों को जबरदस्ती खींचकर गिरफ्त में लेते पुलिसकर्मी दिखे। मोदी सरकार अपने शासन के 9 वर्षों की उपलब्धियां गिना रही है, लेकिन 9 सालों की सारी दास्तां ऊपर बताई दो तस्वीरों में समेटी जा सकती है।

बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक कल जंतर-मंतर पर पहलवानों को प्रदर्शन करने से रोकने के लिए दिल्ली पुलिस का एक अधिकारी अपने वाहन पर लाउडस्पीकर से ऐलान कर रहा था कि- ‘हम आपको सूचित कर रहे हैं कि कोई भी ऐसा कार्य जो देशविरोधी है, ग़लत है वो स्वीकार्य नहीं होगा। उचित कार्रवाई की जाएगी। आप लोग ऐसा न करें। हमारे लिए ये एक गर्व का क्षण है कि हमारा नया संसद बना है और जिसका आज उद्घाटन भी हुआ है। आपसे विनती है कि शांति-व्यवस्था बनाए रखें, क़ानून को अपने हाथ में न लें। किसी भी तरह का देश-विरोधी प्रचार न करें। आप नारेबाजी न करें।’ संसद में हिंदू पंडितों के बीच दंडवत श्री मोदी को देखने के बाद अगर यह खुशफहमी फिर भी बनी हुई थी कि देश में लोकतंत्र के लिए जगह है, वो भरम इस ऐलान से पूरी तरह मिट गया। जिस तरह राजतंत्र में राजा के कारिंदे नगाड़ों के साथ मुनादी करते हैं, पुलिसिया वाहन में लाउड स्पीकर से यह ऐलान उससे कुछ अलग नहीं लगा। नए संसद भवन के बनने पर गर्व करना है या नहीं, यह हरेक भारतीय की अपनी मर्जी है। पुलिस अधिकारी को नए भवन के बनने पर गर्व महूसस हो रहा होगा, लेकिन पहलवानों के लिए तो सवाल ये है कि उस नए भवन में भी उस आरोपी के लिए जगह क्यों है, जिसकी गिरफ्तारी की मांग वे एक महीने से कर रहे हैं। शांति बनाए रखने की अपील पुलिस कर सकती है, लेकिन नारेबाजी करने का मतलब देशविरोधी प्रचार कैसे हो गया, पुलिस नारे लगाने के लोकतांत्रिक अधिकार को कैसे छीन सकती है।

महिला पहलवानों को इंसाफ के लिए महीने भर से जंतर-मंतर पर बने रहने के लिए मजबूर करना और उन्हें गिरफ्तार करना ही काफी नहीं था, जो अब उन्हें बदनाम करने की कोशिश भी शुरु हो गई। कल पुलिस वैन में बैठी हुई विनेश फोगाट और संगीता फोगाट की मुस्कुराती हुई तस्वीरें खूब वायरल हुईं और सरकार के समर्थक कई लोगों ने इसके स्क्रीन शॉट रख लिए, ताकि अपने कुतर्कों को स्थापित करने में उन्हें मदद मिले। ताकि वे बता सकें कि किस तरह महिला पहलवान मजे के लिए, झूठे प्रचार के लिए आंदोलन कर रही हैं। ये नापाक हरकत निश्चित ही किसी आईटी सेल कर्मी की है, जिसने एआई तकनीक से विनेश और संगीता फोगाट की निराश-हताश मुख-मुद्रा पर हंसी चस्पां कर दी। पहलवान बजरंग पुनिया ने खुद असली और नकली तस्वीरों को ट्वीट करते हुए बताया है कि कैसा घिनौना खेल खेला जा रहा है। हालांकि ये पहली बार नहीं है, जब आंदोलनकारियों को इस तरह बदनाम किया गया हो। इससे पहले शाहीन बाग आंदोलन की महिलाओं को भी भला-बुरा कहा गया। किसान आंदोलन पर बैठे लोगों को खालिस्तानी बताया गया। आंदोलन के दौरान किसानों को दिए जाने वाले भोजन से लेकर उनके शिविरों की अंदर की तस्वीरें दिखाकर ये साबित करने की कोशिश की गई कि आंदोलन पर बैठे लोग कितने ठाठ से रहते हैं। किसानों के पिज्ज़ा खाने या एसी में रहने पर सवाल उठाना ही बड़ा अलोकतांत्रिक रवैया है। यह सामंती सोच है, जो यह मानकर चलती है कि मजदूर, किसान, स्त्री, अल्पसंख्यक, आदिवासी, ऐसे तमाम वर्गों को कष्टों में ही रहना चाहिए, उन्हें वे सुख नहीं मिलने चाहिए, जो दबंग तबके के लिए आरक्षित बना दिए गए हैं। यह सामंती मानसिकता आंदोलन को देशद्रोह की तरह मानती है। खेद इस बात का है कि आजादी का जिसे अमृतकाल बताया जा रहा है, वहां सरकार से लेकर पुलिस प्रशासन और मीडिया का बड़ा तबका आंदोलनों को गलत नजरिए से ही देखता है।

संसद में राजदंड की स्थापना के साथ ही जिसकी लाठी, उसकी भैंस वाले दिन देश में आ गए हैं। लाठी के जोर से जंतर-मंतर को पुलिस ने खाली करवा लिया, अब पहलवान कहां से धरने को जारी रखेंगे, कुछ पता नहीं। इससे पहले आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश से पता चल ही रहा है कि आईटी सेल किस क्रोनोलॉजी के तहत काम कर रही है। लेकिन यह देखना दुखद है कि इसमें अब पूर्व पुलिस अधिकारी भी शामिल हो रहे हैं। एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ने दिल्ली पुलिस की कार्रवाई की प्रशंसा करते हुए आंदोलनकारियों की तुलना कचरे की बोरी से कर दी और उन्हें चेतावनी भी दे दी जरूरत हुई तो गोली मारी जाएगी। जब सेवानिवृत्ति के बाद पुलिस अधिकारी के तेवर ऐसे हैं, तो कल्पना की जा सकती है कि सेवा में रहते हुए उन्होंने किस तरह लोकतांत्रिक तकाजों के साथ अपना कर्तव्य निभाया होगा। वैसे गोली वाले ट्वीट के जवाब में बजरंग पुनिया ने भी कह दिया कि हम सीने पर गोली खा लेंगे। जो सच का पक्ष चुनते हैं, वो ऐसे ही हिम्मत वाली जुबान बोलते हैं। जबकि सच को दबाने की कोशिश में लगे लोग अविचारित दमन पर उतर जाते हैं।
किसान आंदोलन को भी ऐसे ही दबाने की कई कोशिशें हुईं और इसमें देश का पेट भरने वाले किसानों को खालिस्तानी तक कहा गया। अब ऐसी ही कोशिशें पहलवानों के आंदोलन में नजर आ रही हैं। पहलवानों का संबंध भी खालिस्तान से जोड़कर गलत संदेश फैलाया जा रहा है। सत्ता समर्थकों की इस टूलकिट को पहचानना अब कठिन नहीं है। सवाल यही है कि धर्म की चकाचौंध में मुंदी पलकों से जनता क्या इस टूलकिट की शिनाख्त कर पाएगी।

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