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बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से होए। फिल्म आदिपुरुष देखकर हिंदुत्व की माला जपने वालों की आज जो हालत हो रही है, उसे देखकर यही मुहावरा याद आता है।

गौरतलब है कि देश में इस वक्त आदिपुरुष फिल्म को लेकर विवाद चल रहा है। रामायण पर आधारित इस फिल्म में जिस तरह इस महाकाव्य के प्रमुख किरदारों, भगवान राम, उनके अनन्य भक्त हनुमान और लंका के राजा रावण का चित्रण किया गया है, उससे दर्शक हैरान-परेशान हैं कि आखिर धर्म और सनातनी संस्कृति के नाम पर ये किस किस्म का प्रयोग किया गया है। जब से फिल्म रिलीज़ हुई है, सोशल मीडिया पर इसके नाम से हैशटैग चल रहे हैं, लोग नाराजगी भरी प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं। इनमें कई ऐसे भी हैं, जिन्होंने हिंदुत्व का झंडा उठा कर रखा हुआ है।

साध्वी प्राची ने तो एक ट्वीट में इस फिल्म के संवाद लेखक मनोज मुंतशिर से माफी की मांग की है, वहीं एक अन्य ट्वीट में उन्होंने लिखा है- यदि गलती से भावावेश में आदिपुरूष मूवी देख ली है तो मन के शुद्धिकरण के लिए रामानंद सागर जी की रामायण के एक-दो एपिसोड देख लें…! शुद्धिकरण के आह्वान के साथ रामानंद सागर कृत रामायण को देखने की बात बहुत से लोग ट्विटर पर कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर लोगों ने देश के हिंदू राष्ट्र बनने का सपना देख रखा था। नरेन्द्र मोदी के अवतार में उन्हें हिंदुत्व का रक्षक दिखाई देता था।

2014 से ही हिंदुओं के जागने का शोर देश में सुनाई देना लगा है। अब ऐसे ही जागे हुए हिंदू हैरान-परेशान हो रहे हैं कि जब हम कथित तौर पर सोए हुए थे, तब हमारा धर्म, हमारी सनातनी परंपरा ज्यादा सुरक्षित थी, या अब इसकी रक्षा हो रही है। लेकिन अगर अभी रक्षा हो रही है, तो फिर पर्दे पर जो राम, रावण, हनुमान नजर आ रहे हैं, उनसे किसी तरह का जुड़ाव महसूस क्यों नहीं हो रहा। क्यों सदियों से भारत की आस्था में रचे-बसे ये किरदार एक फिल्म में इतने अजनबी नजर आ रहे हैं। ये कौन सी भाषा है, जो वो हनुमान जी बोल रहे हैं, जिनके लिए हनुमान चालीसा में विद्यावान गुणी अति चतुर कहा गया है। क्या विद्यावान लोग, जलेगी तेरे बाप की, जैसे शब्द अपने मुखारविंद से निकालते हैं। रामायण में तो रावण को तमाम दुर्गुणों से भरा होने के बावजूद शास्त्रों का ज्ञाता और उच्चकोटि का विद्वान बताया गया है। लेकिन आदिपुरुष में रावण और गली के गुंडे में ज्यादा फर्क नहीं दिख रहा है। सवालों के ये तमाम कांटे अब हिंदुत्व के कथित रक्षकों को चुभ रहे हैं। लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए कि ये कांटे जिस पेड़ पर उगे हैं, उसके बीज उन्हीं लोगों के समर्थन से बोए गए हैं।

याद कीजिए कि किस तरह देश में राम मंदिर बनाने की मुहिम के साथ ही जय सियाराम के अभिवादन को जय श्रीराम के नारे के उद्घोष में दबा दिया गया। पिछले कुछ सालों से हनुमानजी की क्रोधित तस्वीर हर गली-नुक्कड़ की दीवारों, कारों के शीशों और दुकानों पर लगी नजर आने लगी। रामजी की सौम्यता, प्रत्यंचा ताने क्रोधित मुखमुद्रा वाले राम में बदल गई। यह सब अचानक नहीं हुआ। बड़ी चालाकी से लोगों के मानस में धर्म की संकुचित धारणा थोपने की साजिश के तहत हुआ। धर्म के नाम पर रक्तपात और दूसरे धर्म के लोगों को प्रताड़ित करने को जायज बताने के नाम पर हुआ।

समाज को राजनैतिक फायदे के लिए धर्म के एक अघोषित युद्ध में झोंक दिया गया। भावनाओं के सागर पर क्रोध, हिंसा, उग्रता के पत्थरों से सेतु बनाया गया। उस सेतु पर चलकर सत्ता का सुख कुछ लोगों को हासिल हुआ, बाकी जनता नफरत भुगतने के लिए अभिशप्त छोड़ दी गई। किसी अभिवादन में महज शब्दों के बदलाव से पूरी संस्कृति कैसे बदली जा सकती है, यह जय सियाराम से लेकर जय श्रीराम तक के बदलाव में देखा जा सकता है। आदिपुरुष संस्कृति के बदलाव की ताजा मिसाल है।

इस फिल्म के संवादों पर विवाद बढ़ता देख अब फिल्म निर्माता ने संवाद बदले जाने की सूचना दी है। संवाद लेखक मनोज मुंतशिर ने भी इसकी सूचना दी है, लेकिन यही मनोज मुंतशिर एक दिन पहले तक अपने संवादों का बचाव करते दिख रहे थे। कुछ पिट्ठू पत्रकारों से उनके चैनल पर बातचीत में बता रहे थे कि उनके बचपन में दादी-नानी इसी तरह की भाषा में उन्हें रामायण सुनाती थीं, देश के कथावाचक ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उनका यह तर्क गले से नहीं उतरता, क्योंकि गांवों-शहरों में रामलीला और रामकथा के मंचन से लेकर घरों में बुजुर्गों द्वारा सुनाई जाने वाली पौराणिक कथाओं और टीवी पर दिखाए जाने वाली रामायण तक कहीं ऐसी भाषा सुनने नहीं मिली।

एक महान ग्रंथ के फिल्मांकन में जो अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत थी, वह नहीं बरती गई और उस गलती को सही ठहराने की कोशिश की जा रही थी। अगर देश भर में इस पर विवाद खड़ा नहीं होता और खुद हिंदू संगठनों की ओर से विरोध नहीं होता, तो शायद इस गलती को जारी रखने का दुस्साहस किया जाता। यह दुस्साहस सत्ता के आशीर्वाद से मिला है, यह भी जाहिर हो रहा है। अगर फिल्म विवादों में नहीं पड़ती तो शायद कश्मीर फाइल्स, केरला स्टोरी की तरह कई राज्यों में करमुक्त घोषित हो चुकी होती। मगर अभी छाछ फूंक कर पीने का दौर चल रहा है।

आदिपुरुष देखकर किसे क्या धारणा बनानी है, यह हरेक दर्शक की अपनी मर्जी है। वैसे इस फिल्म के बहाने रामानंद सागर की बनाई रामायण को खूब याद किया जा रहा है। जब रविवार को टीवी के छोटे पर्दे पर रामायण आती थी, तो उस वक्त सड़कें सुनसान हो जाया करती थीं। लोग पूरी भक्ति से रामायण देखते थे, रोमांचित होते थे। पाठकों को याद दिला दें कि रामायण धारावाहिक की पहली कड़ी में रामायण ग्रंथ का परिचय देते हुए मशहूर अभिनेता अशोक कुमार ने प.जवाहरलाल नेहरू की किताब भारत एक खोज का जिक्र किया था। जिसमें नेहरूजी ने रामायण पर फ्रांसीसी इतिहासकार मिशलेट के विचार उद्धृत किए हैं, कि-जिसे जीवन की अनुभूतियों की प्यास हो, वो इस महाकाव्य रूपी सागर के जल से अपनी प्यास बुझाए। जो सागर से भी विशाल है। जिसमें सूर्य का प्रकाश है। जिसमें एक निरंतर शांति है, एक अनंत मिठास है।

हिंदुस्तानियों को अब सोचना चाहिए कि वह शांति और मिठास अब कहां खो गई है।

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