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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

पटना में विपक्षी दलों की बैठक में नीतीश की मेहमाननवाजी में खाया गया खाना अभी बदन से पूरी तरह निकला भी नहीं होगा कि लोगों में सार्वजनिक बवाल शुरू हो गया है। एक किस्म से इसकी शुरुआत कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच हुई है, और कांग्रेस के महासचिव अजय माकन ने केजरीवाल पर विपक्षी एकता तोडऩे का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा है कि केजरीवाल की भाजपा से सांठगांठ है, वे भ्रष्टाचार में शामिल हैं, उनके दो दोस्त पहले से ही जेल में हैं, और अब केजरीवाल भी बस गिरफ्तार होने वाले हैं, और वे जेल नहीं जाना चाहते। अजय माकन ने यह भी गिनाया कि एक तरफ तो आम आदमी पार्टी कांग्रेस से (मोदी के अध्यादेश के खिलाफ) समर्थन चाहती है, दूसरी तरफ वह लगातार कांग्रेस पर हमले कर रही है। उन्होंने कहा कि केजरीवाल ने अभी राजस्थान जाकर कांग्रेस के तीन बार के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ हमला बोला है। दूसरी तरफ कांग्रेस के साथ जिस दिन केजरीवाल और बाकी विपक्षी दलों की बैठक होनी थी, उस दिन सुबह भी आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता ने कांग्रेस के खिलाफ कहा, ऐसा कहते हुए अजय माकन ने कहा कि जेल न जाने के लिए केजरीवाल भाजपा से समझौता करके विपक्ष की एकता को खंडित करने के लिए इस बैठक में पहुंचे थे। उन्होंने कहा कि केजरीवाल विपक्षी पार्टियों की बैठक में इसी नीयत से जाते हैं। उन्होंने कहा कि अगर किसी भी मुद्दे पर केजरीवाल कांग्रेस का समर्थन चाहते हैं तो इस तरह कांग्रेस के खिलाफ बयान थोड़े ही दिए जाते हैं। इस पर आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के कुछ नेताओं के बयान गिनाए हैं कि वे भी आम आदमी पार्टी के खिलाफ बोलते रहे हैं। आप प्रवक्ता ने यह भी गिनाया कि कांग्रेस आप के चुनाव लडऩे पर आपत्ति जताती है कि उससे भाजपा को मदद होती है, तो कांग्रेस बताए कि पिछले तीस साल में कांग्रेस गुजरात में भाजपा को क्यों नहीं हरा पाई, क्या इसका दोष भी केजरीवाल को देंगे? असम, नगालैंड, पुदुचेरी, त्रिपुरा, मेघालय, सिक्किम, मणिपुर, अरूणाचल में तो आप चुनाव नहीं लड़ी, फिर वहां कांग्रेस क्यों हारी?

विपक्ष की एकता की कोशिशों के चलते हुए कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच का यह विवाद सिर्फ दिल्ली की स्थानीय राजनीति का है जहां कांग्रेस की लंबी सत्ता को आम आदमी पार्टी ने खत्म किया, और कांग्रेस अब तक उस दर्द से उबर नहीं पाई है। केजरीवाल भाजपा के मोहरे हैं या नहीं, यह एक अलग मुद्दा है, लेकिन जब व्यापक विपक्षी एकता की बात हो रही है, तो सबसे पहले कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की इस तूतू-मैंमैं को अलग रखवाना चाहिए, वरना केजरीवाल सचमुच ही भाजपा के मोहरे साबित होने में देर नहीं लगाएंगे। किसी बड़ी बैठक को कामयाब करने में वहां मौजूद हर किसी की ईमानदार भागीदारी की जरूरत रहती है, लेकिन किसी बैठक को बर्बाद करने के लिए वहां मौजूद एक लापरवाह, गैरजिम्मेदार, या मक्कार काफी हो सकते हैं। देश की राजधानी का स्थानीय राजनीति को पूरे देश की विपक्षी एकता की संभावनाओं को तबाह नहीं करने देना चाहिए।

न सिर्फ कांग्रेस के साथ, बल्कि देश की बहुत सी पार्टियों के साथ एक दिक्कत यह भी है कि वह किसी राज्य के मुद्दों पर बोलने के लिए अपने उसी राज्य के प्रवक्ता को झोंक देती है। भाजपा को जब बिहार के बारे में कुछ कहना रहता है, वह रविशंकर प्रसाद को लगाती है, ऐसा ही दूसरे राज्यों के बारे में दूसरी पार्टियों का भी होता है। दिक्कत यह होती है कि ऐसे प्रवक्ता स्थानीय राजनीति के अपने जख्मों को सहलाते हुए भी कोई बात करते हैं, और जरूरत से अधिक बात करते हैं। पार्टियों को किसी मुद्दे पर उन्हीं प्रवक्ताओं को लगाना चाहिए जिनके निजी स्थानीय राजनीतिक हित उन मुद्दों से जुड़े हुए न रहें। कांग्रेस और भाजपा जैसी बड़ी पार्टियों के पास तो बहुत से प्रवक्ता हो सकते हैं, और एक नीतिगत फैसला लिया जाना चाहिए कि प्रवक्ताओं की निजी राजनीति को उनके उठाए जा रहे मुद्दों पर असर नहीं डालने देना चाहिए। यह कुछ उसी तरह की बात है कि किसी राज्य के व्यक्ति को उसी राज्य में राज्यपाल बनाकर नहीं भेजा जाता। सार्वजनिक और व्यापक हितों को किनारे रखकर ऐसे प्रवक्ता अपने पुराने हिसाब चुकता करते हैं।

अब चूंकि हम पार्टी प्रवक्ताओं की बात कर ही रहे हैं, तो लगे हाथों इसके एक दूसरे पहलू पर भी बोलना जरूरी है। देश की बहुत सी बड़ी पार्टियां वकीलों को अपना प्रवक्ता बनाती हैं क्योंकि वे अदालत में किसी बात को तर्कपूर्ण ढंग से साबित करने के पेशे से आते हैं। इससे भी पार्टी की बात धरी रह जाती है, उसकी मूल भावना धरी रह जाती है, और वकालत के अंदाज में वकील-प्रवक्ता तर्कों में उलझकर रह जाते हैं। इनके मुकाबले गैरवकील प्रवक्ता बेहतर होते हैं, जो कि अदालती जिरह के अंदाज में नहीं फंसते, और आम लोगों को समझ आने वाली भाषा में बात करते हैं।

अब अगर कांग्रेस और आप के आपसी झगड़ों पर लौटें, तो इन दोनों पार्टियों से संपर्क वाले दूसरे नेताओं को चाहिए कि इन दोनों से अलग-अलग बात करके इन्हें सडक़ों पर मारपीट से रोकें। सार्वजनिक जगहों पर, सार्वजनिक माध्यम से जिस तरह से ये दोनों पार्टियां उलझ रही हैं, उससे विपक्षी एकता की संभावनाएं तो खराब हो ही रही हैं, ऐसी संभावनाओं के लिए जो वरिष्ठ नेता लगातार कोशिश कर रहे हैं उनके लिए भी शर्मिंदगी का सामान खड़ा हो रहा है। केजरीवाल और कांग्रेस का झगड़ा दिल्ली की स्थानीय राजनीति का झगड़ा है, और ये दोनों ही पार्टियां बहुत खराब मिसाल पेश कर रही हैं। किसी एक का बयान आने पर दूसरी पार्टी अगर इतना ही कह देती कि उसे इस पर कुछ नहीं कहना है तो भी उस पार्टी की इज्जत बढ़ जाती, और पहले वाले की बात का वजन खत्म हो जाता, लेकिन प्रवक्ताओं का पेशा चूंकि बोलना रहता है, मीडिया के सामने चेहरा और आवाज रखना होता है, इसलिए वे बिना जरूरत भी बोलते हैं, जरूरत से अधिक भी बोलते हैं, यह कुछ इसी किस्म का होता है जिस तरह कि किसी शादी की दावत में रखे गए ऑर्केस्ट्रा को बहुत ऊंची आवाज में गाना-बजाना अच्छा लगता है ताकि उसकी मौजूदगी का अहसास होता रहे, प्रवक्ताओं को भी बोलना इसी तरह अच्छा लगता है। इस निहायत गैरजरूरी बकबक पर काबू पाना विपक्षी एकता के लिए जरूरी है।

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