-सुनील कुमार॥
पहली नजर में सनसनीखेज, या हक्का-बक्का करने वाली तस्वीरें अपने आपमें सच होते हुए भी सच बखान करती हों, ऐसा जरूरी नहीं होता। एक तस्वीर अपने आपमें खरी हो सकती है, लेकिन उस तस्वीर से संदर्भ निकालने में चूक भी हो सकती है। अभी सोशल मीडिया पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की एक तस्वीर छाई हुई है जिसमें वे रथयात्रा के दिन दिल्ली में भगवान जगन्नाथ के मंदिर में गई हुई हैं, और वहां पर प्रतिमाओं के कमरे के बाहर वे रेलिंग के बाहर खड़ी हैं। चूंकि यह तस्वीर राष्ट्रपति भवन ने ट्वीट की है, इसलिए इसमें किसी छेडख़ानी की गुंजाइश नहीं है। दूसरी तरफ इसी मंदिर की एक और तस्वीर सोशल मीडिया पर है जिसमें केन्द्रीय रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव प्रतिमाओं के करीब जाकर पूजा कर रहे हैं। दोनों ही तस्वीरें बारीकी से देखने पर एक ही पूजागृह की हैं, उसी किस्म के कपड़ों में पुजारी हैं, और दीवारों की टाईल्स तक एक सरीखी है। दोनों तस्वीरें सरकारी ट्विटर हैंडल से पोस्ट की गई हैं, इसलिए उनमें कोई फेरबदल नहीं हुआ है। अब दलितों के कुछ ट्विटर हैंडल से यह बात लिखी गई कि एक आदिवासी होने के नाते राष्ट्रपति को बाहर खड़ा किया गया, और अश्विनी वैष्णव भीतर प्रतिमाओं तक ले जाकर पूजा करवाई गई। यह बात तस्वीरों से बिल्कुल साफ-साफ दिखती है, इसे लेकर बहुत से और लोगों ने कई और किस्म की बातें भी लिखी हैं, और एक आदिवासी के साथ ऐसा सुलूक बहुत से लोगों को खटक गया है। लेकिन इस बारे में चारों तरफ से नाराजगी आने के बाद जब बीबीसी ने मंदिर से उसका पक्ष पूछा तो उनका कहना था कि तस्वीरों को लेकर ऐसा विवाद करना निंदनीय है। मंदिर के पूजक ने कहा कि वहां पूजा का प्रोटोकाल होता है, मंदिर के गर्भगृह में वही पूजा कर सकते हैं जिसको हम महाराजा के रूप में आमंत्रित करते हैं। उन्होंने कहा कि जिन्हें आमंत्रित किया गया है वो अंदर आकर भगवान के सामने प्रार्थना और पूजा करेंगे, और फिर झाड़ू लगाकर वापिस जाएंगे। राष्ट्रपति व्यक्तिगत तौर पर भगवान का आशीर्वाद लेने आई थीं तो वे अंदर कैसे जाएंगी? उन्होंने कहा कि जिसको हम आमंत्रित करेंगे, बस वे ही अंदर जाएंगी।
अब सवाल यह उठता है कि देश की राजधानी का मंदिर राष्ट्रपति के वहां पहुंचने की खबर का जानकार तो रहा ही होगा, और अगर आमंत्रित करने की ऐसी कोई रस्म है, तो राष्ट्रपति को भी आमंत्रित किया जा सकता था। जब अश्विनी वैष्णव और धर्मेन्द्र प्रधान जैसे केन्द्रीय मंत्रियों को आमंत्रित किया गया था, तो फिर राष्ट्रपति के वहां आने की खबर आने के बाद उन्हें आमंत्रित क्यों नहीं किया गया ताकि वे भी प्रतिमाओं के करीब जाकर पूजा करने का महत्व पा सकें? इस मौके पर यह भी याद रखने की जरूरत है कि 2018 में उस वक्त के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद सपत्निक ओडिशा के जगन्नाथ मंदिर गए थे, और वहां पर जब वे जगन्नाथ भगवान के रत्न सिंहासन पर माथा टेकने पहुंचे तो वहां मौजूद पुजारियों और मंदिर सेवकों ने उनके लिए रास्ता नहीं छोड़ा, और वे उनकी पत्नी के भी सामने आ गए। जाहिर है कि एक दलित राष्ट्रपति के प्रतिमा तक पहुंचने की वजह इसके पीछे रही होगी। बीबीसी की एक रिपोर्ट कहती है कि राष्ट्रपति ने पुरी से वापिसी से पहले कलेक्टर अरविंद अग्रवाल से अपनी नाखुशी जाहिर कर दी थी, और बाद में इसे लेकर राष्ट्रपति भवन की ओर से भी असंतोष व्यक्त किया गया था लेकिन इसके बावजूद मंदिर कमेटी की बैठक में चर्चा के बाद भी इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
हम अकेली इस घटना को लेकर कुछ लिखना नहीं चाहते, लेकिन देश के मंदिरों में दलितों और आदिवासियों के साथ ऐसे सुलूक में हैरानी की कोई बात नहीं है। इसका इतिहास बहुत पुराना रहा है, यही वर्तमान की हकीकत है, और यही धर्म का भविष्य भी रहेगा क्योंकि धर्म का मानवीय कहे जाने वाले मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। धर्म का मिजाज हमेशा से हिंसक और बेइंसाफ रहा है, उसमें कमजोर लोगों, गरीबों, महिलाओं, बीमारों, और नीची कही जाने वाली जातियों के प्रति हिकारत और हिंसा दोनों लबालब रही हैं। दिक्कत सिर्फ यही है कि जिस मंदिर के पुजारी देश की राजधानी में 50 केन्द्रीय मंत्रियों में से दो का वरण कर रहे हैं, उन्हें पूजा के लिए आमंत्रित कर रहे हैं, उसी मंदिर में उसी दिन राष्ट्रपति के पहुंचने पर उन्हें पूजागृह के बाहर रखा जा रहा है। यह छोटी बात नहीं है, ऐसा भी नहीं है कि मंदिर ट्रस्ट के लोगों और पुजारियों को राष्ट्रपति के ओहदे की अहमियत का पता न हो, लेकिन यह भी तय है कि उन्हें राष्ट्रपति की जाति का पता होगा, और ऐसा लगता है कि जाति ही अकेली वजह होगी कि देश की राष्ट्रपति होने के बावजूद पुजारी उन्हें वहां आने पर भी पूजा के लिए आमंत्रित नहीं कर रहे हैं, और लकड़ी की एक रेलिंग के पीछे उन्हें खड़ा रख रहे हैं। यह बात इस देश के लोकतंत्र के खिलाफ है, और जिस धर्म के लोग ऐसा कर रहे हैं, उस धर्म के सम्मान के भी खिलाफ है। 21वीं सदी में आकर भी अगर कोई धर्म लोकतंत्र की संवैधानिक सत्ता में अपने हिंसक भेदभाव को छोडऩे से मना करता है, तो वह धर्म सम्मान के लायक नहीं है।
लेकिन इससे परे की एक दूसरी बात यह है कि देश के दलितों का हिन्दू धर्म के प्रति जो रूख रहता है, उसे भी समझना चाहिए। दलितों ने हिन्दू धर्म की ऐसी ही हिंसा के चलते उसे छोडक़र दूसरे धर्म अपनाए, और एक हिंसक भेदभाव से बाहर हो गए। हिन्दुओं के भीतर की जाति व्यवस्था उसमें इंसानियत कही जाने वाली बातों की जगह ही नहीं बनने देती। इस बात को वे लोग नहीं समझेंगे जो जातियों के इस ढांचे में ऊपर हैं, इस बात को वे ही लोग समझ पाएंगे जो कि मनु के बनाए हुए इस पिरामिड में सबसे नीचे नींव के पत्थरों की तरह कुचले जा रहे हैं। ऐसे में जरूरी यह भी है कि दलितों और आदिवासियों को संगठित हिन्दू धर्म के भेदभाव वाले रूख से परे अपना भविष्य देखना चाहिए। जहां किसी को हिकारत से देखा जाता है वहां पर उन्हें अपनी जगह क्यों तलाशनी चाहिए? राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू तो अब किसी भी निर्वाचन से परे हो चुकी हैं, इसलिए उन्हें बहुसंख्यक वोटरों के बहुमत की परवाह नहीं करनी चाहिए। देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति के रूप में उन्हें आदिवासी मुद्दों को खुलकर सामने रखना चाहिए, उन्होंने पिछले दिनों देश के मुख्य न्यायाधीश के सामने न्याय व्यवस्था को लेकर कुछ खुली-खुली बातें साफ-साफ रखी भी थीं। अगर पिछले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पुरी मंदिर के पुजारियों को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की थी, तो द्रौपदी मुर्मू को भी उनके साथ हुए इस भेदभाव को इतिहास में अच्छी तरह दर्ज करना चाहिए, हो सकता है कि उनकी इस पहल से देश के बाकी आदिवासियों की हालत के बारे में लोगों का ध्यान जाए।