-सुनील कुमार॥
जिस फिल्म आदिपुरूष को लेकर देश भर में विवाद चल रहा है, और बहस हो रही है कि उसमें धार्मिक पात्रों को बहुत घटिया तरीका से दिखाया गया है, और उनके मुंह से घटिया जुबान में बातें कहलाई गई हैं, इन्हें लेकर लोग अदालतों तक गए, और सोशल मीडिया पर तो फिल्म की धज्जियां उड़ ही रही हैं। चूंकि हमने वह फिल्म देखी नहीं है, इसलिए उसकी बारीकियों के बारे में कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन मुद्दे की बात यह है कि जिस तरह के लेखक इसके पीछे हैं, उनकी अपनी साख और राजनीतिक प्रतिबद्धता की वजह से यह लग रहा है कि ऐसी फिल्म लिखना और बनाना कोई मासूम बात नहीं है। यह भी समझने की जरूरत है कि पिछले बरसों में हिन्दुस्तान में फौजी मोर्चों से लेकर कश्मीर से लेकर केरल तक पर जिस तरह की एजेंडा-फिल्में बनी हैं, उन्हें एक विचारधारा के विस्तार के लिए पहले औजार की तरह, और फिर हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। उन्हें चुनावों के साथ जोडक़र सुर-ताल के मुताबिक चुनाव प्रचार के साथ एक नकारात्मक और नफरती माहौल खड़ा करने के लिए बनाया और दिखाया जा रहा है। इसमें से कोई भी बात मासूम नहीं है, खासकर इसलिए कि जब एक राजनीतिक दल के नेता देश भर में किसी फिल्म को बढ़ावा देने के लिए एकमुश्त टिकटें खरीदकर अपने समर्थकों सहित सिनेमाघर जाते हैं, तो यह जाहिर हो जाता है कि उन फिल्मों से उनका और उनकी पार्टी का क्या लेना-देना है। ऐसे में आज जब आदिपुरूष नाम की एक फिल्म एक धार्मिक एजेंडा सेट करने के हिसाब से सामने आई, और जब अपने घटियापन को लेकर वह निशाना बनी, तो उस पर थोड़ी सी चर्चा एक अदालती बहस को लेकर होनी चाहिए।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में जस्टिस राजेश सिंह चौहान, और जस्टिस प्रकाश सिंह की वेकेशन बेंच ने आदिपुरूष के निर्माताओं को यह कहते हुए फटकारा कि इसमें रामायण के पात्रों को बड़े शर्मनाक तरीके से दिखाया गया है। इस फिल्म पर रोक लगाने की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए जजों ने यह जुबानी टिप्पणी की कि रामायण, कुरान, या बाइबिल पर विवादित फिल्में बनाई ही क्यों जाती हैं जो लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाती हैं? बेंच ने कहा- मान लीजिए कुरान पर एक छोटी डॉक्यूमेंट्री बनाई जाती, तो क्या आप सोच सकते हैं कि उससे कानून व्यवस्था की किस तरह गंभीर समस्या खड़ी हो जाती? लेकिन हिन्दुओं की सहिष्णुता के कारण ही फिल्मकारों की भयंकर भूलों के बाद भी हालात बुरे नहीं होते। उन्होंने कहा कि एक फिल्म में भगवान शंकर को त्रिशूल लेकर दौड़ते दिखाया गया है, अब इस फिल्म में भगवान राम और रामायण के अन्य पात्रों को बड़े शर्मनाक ढंग से दिखाया गया है, क्या यह रूकना नहीं चाहिए? इस फिल्म के लेखक मनोज मुंतसिर शुक्ला सहित फिल्म सेंसर बोर्ड और सूचना प्रसारण मंत्रालय को भी अदालत ने नोटिस जारी किया है।
लोगों को याद होगा कि दशकों पहले रामानंद सागर ने रामायण नाम का सीरियल बनाया था, जिसे देखने के लिए ट्रेन ड्राइवर ट्रेन रोक देते थे, देश के बड़े हिस्से में कफ्र्यू की तरह सन्नाटा छा जाता था, और जिसके लेखक एक मुस्लिम, राही मासूम रजा थे। वह सीरियल अभी लॉकडाउन को कामयाब बनाने के लिए केन्द्र सरकार ने एक बार फिर दिखाया था, ताकि लोग घर पर बंधे भी रहें, और उनका वक्त भी गुजर सके। लेकिन एक मुस्लिम के लिखे इस धारावाहिक और उसके एक-एक संवाद को लोग याद रखते हैं, और एक शब्द पर भी कोई विवाद आज तक नहीं हुआ। दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर घटिया बातें लिखने और मंचों से उतनी ही घटिया बातें बोलने वाले लोगों के आज लिखे गए ऐसे धार्मिक सीरियल या फिल्मों से लगातार विवाद खड़ा हो रहा है, और वह विवाद ही असली मकसद है।
बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि इस देश में लोगों की धार्मिक भावनाएं बड़ी नाजुक रहती हैं, और बड़ी जल्दी आहत हो जाती हैं, और इसलिए धार्मिक मुद्दों पर संभलकर काम करना चाहिए। लेकिन हमारा देखा हुआ यह है कि इन्हीं नाजुक भावनाओं को भडक़ाने के हिसाब से बहुत से काम किए जाते हैं, और कई किस्म के झूठों पर कश्मीर फाईल्स से लेकर केरल स्टोरी तक बनाई जाती हैं, जिनका मकसद ही समाज में नफरत फैलाना रहता है, और जो इस मकसद को ठीक चुनाव के पहले बखूबी पूरा भी करती हैं। दुनिया के जो परिपक्व लोकतंत्र हैं, वहां पर धार्मिक भडक़ावा इतना आसान नहीं रहता है, वहां धर्म का मखौल उड़ाने वाले लोगों को भी समाज में पर्याप्त और बराबरी का हक मिला होता है, और उस आजादी के चलते हुए वहां किसी कलाकृति में धर्म का इस्तेमाल कलाकार के लिए हिफाजत का भी रहता है, और देखने वाले भी उसे देखकर सडक़ों पर आग लगाने नहीं उतरते। लेकिन हिन्दुस्तान अब बारूद के ढेर पर बिठाया जा चुका है, और धार्मिक भडक़ावा यहां दीवारों पर नारे लिखने के लिए इस्तेमाल होने वाले गेरू की तरह का ही एक सामान हो गया है। इसलिए यहां पर कट्टरता फैलाने के लिए कभी कोई फिल्म बनती है, कभी किसी फिल्म का विरोध करवाकर किसी धर्म के लोगों को यह समझाया जाता है कि कोई दूसरा धर्म उनके खिलाफ है। यह पूरा सिलसिला देश में बढ़ी हुई साम्प्रदायिकता का एक संकेत और सुबूत है। हम अभी भी आदिपुरूष नाम की इस फिल्म के बारे में टिप्पणी नहीं कर रहे हैं क्योंकि उसको देखा नहीं है, लेकिन लोकतंत्र के लचीलेपन का बेजा इस्तेमाल करके, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दावा करके देश में जितने किस्म से फिल्म, कला, साहित्य का बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है, उसके खतरों को हर बार अदालत जाकर रोकना मुमकिन नहीं है, लेकिन इस देश के लोग अगर ऐसे खतरनाक हथियारों से किए जा रहे जुर्म को पहचानना नहीं सीखेंगे, तो किसी लोकतंत्र का कोई कानून भी उन्हें नहीं बचा पाएगा।