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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले से बंधुआ मजदूरों के आजाद होने की एक ऐसी रिपोर्ट आई है जिसे देखकर भरोसा नहीं होता कि आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे इस देश में आज भी एक ताकतवर इंसान दूसरे कमजोर इंसानों के साथ ऐसा बर्ताव कर सकता है। वहां एक कुआं खोदने के लिए ठेकेदार ने कुछ मजदूर रखे, और फिर उन्हें जंजीरों में बांधकर ताला डालकर गुलाम बना लिया। फिर ऐसे बंधुआ मजदूरों को पीट-पीटकर, नशा कराकर कुआं खुदवाया जाता था, और भूख, प्यास से बदहाल इन लोगों में भागने की भी ताकत या हिम्मत नहीं रहती थी। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक एक रात इनमें से कुछ लोगों ने जंजीरों के तालों को खोला, और वहां से भागकर खेतों और रेलवे पटरियों से होते हुए किसी तरह अपने गांव पहुंचे। वहां पुलिस को खबर की तो उसने आकर ऐसे 11 और बंधुआ मजदूरों को छुड़वाया। पुलिस का कहना है कि उन्हें पहले तो मजदूरों की बात पर यकीन ही नहीं हुआ, लेकिन जब जाकर देखा तो हक्का-बक्का रह गए कि उनसे 12-14 घंटे तक कुआं खुदवाया जाता था, और फिर उन्हें जंजीरों से बांधकर शारीरिक और मानसिक प्रताडऩा दी जाती थी। शरीर पर गहरी चोटें आ चुकी थीं। अब इन लोगों पर मानव तस्करी, अपहरण, बंधुआ मजदूरी जैसे जुर्म का मुकदमा चलाया जा रहा है। एक मजदूर-दलाल ने इन लोगों को ठेकेदारों को बेच दिया था जो दो-तीन महीने इनसे काम करवाकर इन्हें एक रूपया भी दिए बिना भगा देते थे। ठेकेदार इन्हें कुओं में जल्दी सुबह छोड़ देते थे, और देर रात निकालते थे।

ऐसे बहुत से मामले अलग-अलग राज्यों में सामने आते हैं, लेकिन यह उन सबमें भी बहुत भयानक है। अब सवाल यह उठता है कि जिस देश में हर जिले में दर्जन-आधा दर्जन थाने हैं, वहां पर इस तरह के जुल्म करने की हिम्मत लोगों की कैसे होती है? बच्चों को बंधुआ मजदूरी से छुड़ाने वाले कैलाश सत्यार्थी को संयुक्त नोबल शांति पुरस्कार मिला है, वे भी भारत के कालीन उद्योग से लेकर कई दूसरे किस्म के उद्योगों में बंधुआ मजदूरी में जोत दिए गए बच्चों की रिहाई करवाते आए हैं। मजदूरी किस्म की मजदूरी से परे देश के बच्चों और महिलाओं को देह के धंधे में धकेलना भी एक आम बात है, और भारत के अलग-अलग शहरों के रेड लाईट एरिया नाबालिग लडक़े-लड़कियों से भरे रहते हैं। कारखानों और खदानों को देखें तो उनमें बहुत खतरनाक किस्म के कामकाज में बच्चों को लगा दिया जाता है, और वे बंधुआ मजदूर ही रहते हैं, उनके पास छोडक़र जाने का कोई रास्ता नहीं रहता है, कभी मां-बाप ही उन्हें वहां बेच जाते हैं, या उन्हें किसी सामान की तरह गिरवी रख जाते हैं, और वे बरसों तक वहां गुलामी करते हैं।

जब देश में कानून इतने सख्त हैं तो इतने किस्म के जुर्म करने का हौसला लोगों के पास आता कहां से है। लोगों को तो यह तो मालूम है कि कभी वे पकड़ में आ सकते हैं, और अदालत से उन्हें सजा भी हो सकती है लेकिन उन्हें पुलिस से लेकर अदालत तक के भ्रष्टाचार पर पुख्ता भरोसा रहता है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ सकता और वे पुलिस, गवाह, सुबूत, और अदालत, सरकारी वकील में से किसी न किसी को खरीदकर बच ही जाएंगे। लोकतंत्र की भ्रष्ट व्यवस्था पर ऐसे अपार भरोसे के बिना लोग इतने जुर्म नहीं कर पाते, लेकिन हिन्दुस्तान ऐसे तमाम लोगों को एक हिफाजत देता है। यहां अदालतों में जाने वाले लोगों का कहना है कि वहां का माहौल किसी मुजरिम के लिए सबसे दोस्ताना रहता है, और शिकायतकर्ता की नौबत वहां सबसे दीन-हीन रहती है। कुछ ऐसा ही हाल गुंडों और मुजरिमों का थानों में भी रहता है जहां पुलिस पेशेवर और संगठित मुजरिमों से दोस्ताना रिश्ता रखती है, और उनके खिलाफ आई शिकायत पर पुलिस का बर्ताव ऐसा रहता है कि जैसे पुलिस के भागीदार के खिलाफ शिकायत आई है।

महाराष्ट्र की जिस घटना को लेकर हम आज यहां लिख रहे हैं, उससे छूटे हुए मजदूरों का कहना है कि आसपास के गांवों के लोग कुआं खुदते देखने आते भी थे, उनकी हालत भी देखते थे, लेकिन बिना कुछ किए चले जाते थे। जिन लोगों को यह लगता है कि हिन्दुस्तान की कोई सामूहिक चेतना है, उनको यह बात समझ लेना चाहिए कि अभी कुछ हफ्ते पहले जब दिल्ली की एक बस्ती की तंग गलियों में एक लडक़ा एक लडक़ी को खुलेआम चाकू से गोद रहा था, तो वह दर्जनों बार वार करते रहा, दो-चार फीट की दूरी से लोग निकलते रहे, देखते रहे, लेकिन किसी ने भी उसे रोकने की कोशिश नहीं की। आमतौर पर हिन्दुस्तान के अधिकतर लोगों की सामूहिक चेतना का यही हाल है। हम आम लोगों को एकदम से तोहमत नहीं देते क्योंकि वे अगर जागरूक होकर हिंसा को रोकने की कोशिश भी करेंगे, तो भी मुसीबत में उनको कौन बचाएगा? इलाके के मवाली और मुजरिम पुलिस के लिए सगे जैसे होते हैं, और जब तक पुलिस की कोई मजबूरी न हो जाए, तब तक इलाके के रंगदारों के साथ उनकी भागीदारी रहती है। ऐसे में कौन आम लोग इन लोगों के मददगार हो सकते हैं, जिनके हाथ दोस्ताना पुलिस के गले में डले रहते हैं?

देश का यह बुरा हाल इसलिए भी है कि नेताओं और अफसरों के जैसे मधुर संबंध मुजरिमों से हैं, उसके चलते लोग जुर्म रोकने की कोई कोशिश नहीं करते, और ऐसी कोशिशें अगर होती भी हैं, तो अदालत तक पहुंचते हुए उनका दम निकल चुका रहता है। यही वजह है कि लोग सरेआम बलात्कार की हिम्मत जुटा लेते हैं, खुलकर हत्या कर देते हैं, अपनी राजनीतिक पार्टी का नाम लेकर वीडियो-कैमरों के सामने गुंडागर्दी करते हैं, और आजाद भी रहते हैं। यह देश सत्ता की ताकत और उसकी जुर्म से भागीदारी के चलते हुए अराजकता का शिकार है, और इस अराजकता से घायल लोगों का भरोसा लोकतंत्र पर से उठते चले जा रहा है। जिस लोकतंत्र का इस्तेमाल करके लोग सत्ता तक पहुंचते हैं, वे उस सत्ता का इस्तेमाल करते हुए लोकतंत्र को कुचलकर रख देते हैं। इस लोकतंत्र ने मवालियों के निर्वाचित होने का जो रास्ता खोल रखा है, वह लोकतंत्र के लिए ही आत्मघाती साबित हो रहा है, लेकिन इससे बच निकलने का कोई रास्ता शायद ही हो।

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