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राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, ये आज की राजनीति का सच है। लेकिन जब भी दो अलग-अलग विचारधारा या दलों के लोग सत्ता के लिए एक साथ आते हैं, तो आश्चर्य हो ही जाता है कि ऐसा कैसे हो गया। महाराष्ट्र के सियासी खेल पर एक बार फिर ऐसा ही आश्चर्य हो रहा है। साल भर पहले जिस तरह शिवसेना में बड़ी बगावत कर एकनाथ शिंदे ने भाजपा के साथ हाथ मिलाकर सरकार बना ली थी, ठीक उसी नक्शेकदम पर अब अजित पवार चल पड़े हैं।

रविवार की सुबह से सियासी गलियारों में संसद के मानसून सत्र, राहुल गांधी की तेलंगाना में होने वाली रैली, मणिपुर के हालात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान की चुनावी तैयारियां इन पर चर्चा चल रही थी, लेकिन दोपहर को अचानक सारी चर्चा का केंद्र अजित पवार और एनसीपी बन गए। अजित पवार ने अपने कई समर्थक विधायकों के साथ शिवसेना शिंदे गुट और भाजपा के साथ हाथ मिला लिया और सरकार में शामिल हो गए। एकनाथ शिंदे ने इसे ट्रिपल इंजन सरकार कहा है। महाराष्ट्र में अब देवेंद्र फड़नवीस के साथ अजित पवार भी उपमुख्यमंत्री बन गए हैं। इससे पहले नवंबर 2019 में भी चुनाव के नतीजे आने के बाद अजित पवार ने इसी तरह भाजपा को सरकार बनाने में सहयोग किया था। सुबह-सुबह देवेंद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री और अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ राज्यपाल कोश्यारी ने दिलाकर एक गलत मिसाल देश में पेश की थी।

हालांकि तब भाजपा सरकार का जीवन 80 घंटों का ही रहा था। तब अजित पवार को शरद पवार के आगे झुकना पड़ा था। भाजपा को सत्ता से बाहर कर एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस ने महाविकास अघाड़ी की सरकार बनाई थी। जिसमें उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने थे और अजित पवार तब भी उपमुख्यमंत्री बने थे। अब 2019 के बाद से तीसरी बार उन्होंने इसी पद पर शपथ ली है। हालांकि इससे पहले 1999 से 2014 के बीच महाराष्ट्र में एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन की सरकार में वो दो बार और उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं। भारतीय राजनीति में किसी नेता का 5 बार उपमुख्यमंत्री बनना, वो भी अलग-अलग सरकारों में, शायद अपने आप में रिकार्ड ही होगा।

अजित पवार ने अपने एक दांव से दो निशाने साध लिए हैं। एक तो उन्हें सत्ता में लौटने का सुख मिल गया और दूसरा उन पर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से अब शायद मुक्ति मिल जाएगी। पिछले 9 सालों का अनुभव यही बताता है कि जो नेता सीबीआई या ईडी के रडार पर हैं, अगर वे भाजपा में शामिल होते हैं या उसके सहयोगी बन जाते हैं, तो उनके चारों ओर अपने आप एक सुरक्षा कवच बन जाता है। और जो लोग ऐसा नहीं करते वे जेल चले जाते हैं। लेकिन क्या इस दांव से अजित पवार का राजनैतिक भविष्य सुरक्षित हो पाएगा, ये बड़ा सवाल है।

अजित पवार अतीत में कई बार अपनी नाराजगी एनसीपी में जाहिर कर चुके हैं। उन्हें अपने चाचा और एनसीपी के अब तक के मुखिया शरद पवार से यह शिकायत रही है कि उन्हें उनका प्राप्य नहीं मिला। जिस तरह बाल ठाकरे ने शिवसेना में राज ठाकरे की जगह उद्धव ठाकरे को अपना वारिस घोषित किया तो राज ठाकरे ने शिवसेना से अलग होकर अपनी पार्टी बना ली। वैसी ही नाराजगी अजित पवार की रही कि उनकी जगह सुप्रिया सुले को शरद पवार ने अहमियत दी। कुछ समय पहले जब शरद पवार ने एनसीपी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था, तो अजित पवार की उम्मीदें बढ़ गई थीं कि अब पार्टी की कमान उनके पास रहेगी। लेकिन ऐसा होता, इससे पहले ही शरद पवार ने इस्तीफा वापस ले लिया और पिछले महीने ही सुप्रिया सुले को कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया। उनके साथ प्रफुल्ल पटेल को भी कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया था, जो शरद पवार के दाहिने हाथ माने जाते रहे हैं। अब प्रफुल्ल पटेल भी अजित पवार के साथ चले गए हैं।

अजित पवार के इस कदम से एनसीपी टूटने की कगार पर आ गई है। 2019 में भाजपा के साथ सरकार में शामिल होते वक्त अजित पवार अकेले थे, लेकिन इस बार 9 और एनसीपी विधायकों ने उनके साथ शपथ ली। अजित पवार का दावा है कि वे एनसीपी के तौर पर ही सरकार में शामिल हुए हैं। यानी अब अजित पवार एनसीपी पर अपना दावा ठोंक रहे हैं। गौरतलब है कि दलबदल कानून के तहत सुरक्षा तभी मिल सकती है जब दो तिहाई विधायकों का समर्थन हो। एनसीपी के पास इस वक्त 53 विधायक हैं, जिसका दो तिहाई 36 हुआ। अजित पवार का दावा है कि उनके साथ सभी खड़े हैं।

हालांकि ये सही नहीं है, फिर भी अगर 40 विधायक भी उनके साथ आ जाते हैं, तो फिर उन पर दलबदल कानून के तहत कार्रवाई मुश्किल होगी। जिस तरह एकनाथ शिंदे ने शिवसेना पर अपना दावा ठोंका था, वही सिलसिला अजित पवार दोहरा रहे हैं। एनसीपी अब किसके पास रहेगी, ये बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। लेकिन इस बीच शरद पवार ने भी अपने पुराने तेवर अख्तियार करते हुए बता दिया कि वे पार्टी को फिर से खड़ा कर देंगे।

शरद पवार को शिवसेना और कांग्रेस का साथ तो मिल ही रहा है, टीएमसी, राजद, सपा जैसे दल भी इस घटनाक्रम में उनके साथ नजर आ रहे हैं। यानी जिस विपक्षी एकता को लेकर भाजपा घबराई हुई है, उसकी वह घबराहट महाराष्ट्र में मिली इस मामूली विजय के बाद भी कायम रहेगी। अजित पवार को जिस तरह भाजपा ने अपने खेमे में शामिल किया है, उसका तात्कालिक लाभ तो दिख रहा है, लेकिन लंबी दौड़ में यह दांव उल्टा पड़ सकता है। क्योंकि महाराष्ट्र की जनता पिछले 5 सालों से राजनीति में चूहा दौड़ बिल्ली आई के इस खेल से थक चुकी है। और मुमकिन है अब अगले चुनाव में वह ऐसी स्थिति न बनने दे कि चुनावी खरीद-फरोख्त संभव हो। वैसे भी शरद पवार से जनता भावनात्मक रूप से अधिक जुड़ी हुई है। ऐसा ही जुड़ाव बाल ठाकरे के साथ रहा है। भाजपा इस बात को समझती है इसलिए उसने इन दलों को ही तोड़ कर अपनी सत्ता बनाई है। महाराष्ट्र का घटनाक्रम बाकी देश के क्षेत्रीय दलों के लिए खतरे की घंटी है, जिनमें भाजपा फूट डाल सकती है। यह खतरा विपक्षी दलों को और करीब लाएगा।

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