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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

25 लाख की आबादी के एक शहर में अभी मणिपुर पर एक प्रदर्शन हुआ तो उसमें 25-50 लोग ही जुटे। भारत के हिन्दीभाषी प्रदेशों का वैसे भी सरहदी सूबों से अधिक लेना-देना नहीं है। उत्तर-पूर्व से तो बिल्कुल भी नहीं। और डल झील न रहे, तो कश्मीर से भी नहीं। अंडमान से भी बाकी हिन्दुस्तान का वास्ता सिर्फ अंग्रेजों के वक्त की कालापानी-कैद के इतिहास से है, और आज कुछ लोगों का उससे नया ताजा वास्ता सावरकर के माफीनामे के विवाद से है। इससे परे लोग देश के अधिकतर हिस्सों से रिश्तेदारी, कारोबार, और पढ़ाई-लिखाई से ही जुड़े हुए हैं, या सैलानियों की तरह। इससे परे लोगों का उन प्रदेशों से कोई लेना-देना नहीं रहता जहां से होकर उनकी मंजिल की ट्रेन नहीं जाती। ऐसे में मणिपुर तो बहुत ही कम लोगों का देखा-सुना है, जबकि देश के हिन्दुओं के लिए उत्तर-पूर्व में अकेला मणिपुर है जहां पर एक वैष्णव आबादी है, जहां कृष्ण पूजा का एक इतिहास है, इसके बावजूद लोग मणिपुर से अधिक लंदन या न्यूयॉर्क की खबरें पढ़ लेते हैं। अमरीका में किसी शूटआउट में दो-चार लोगों के मरने की खबर हिन्दुस्तान के अधिकतर मीडिया में मणिपुर में दो-चार लोगों के मरने से अधिक जगह पाती है।
आज एक समाजशास्त्री ने मणिपुर की आदिवासी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार और उनके नंगे जुलूस की तुलना दिल्ली के तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया में निर्भयाकांड से की है। उनका मानना है कि दिल्ली का मीडिया निर्भया के साथ के पुरूष-दोस्त के ब्राम्हण होने से इस धोखे में था कि निर्भया भी सवर्ण है, और चूंकि यह पूरी वारदात दिल्ली के कैमरों के एकदम सामने थी, इसलिए भी इसने अनुपातहीन अधिक जगह पाई थी। लेकिन इस एक अकेली हिंसक घटना ने ढाई महीनों में मणिपुर के ढाई महीनों के मुकाबले हजारों गुना अधिक कवरेज पाया था क्योंकि मामला दिल्ली का था। आज मणिपुर देश की आबादी की एक बड़े हिस्से की नजरों में इसलिए भी नहीं दिख रहा था कि देश में सबसे अधिक मशहूर नेता नरेन्द्र मोदी को मणिपुर नहीं दिख रहा था। करोड़ों लोग अपने दिमागी मार्गदर्शन के लिए मोदी की तरफ देखते हैं, और उन्हें मोदी की तरफ से सिर्फ मणिपुर की अनदेखी का सिग्नल मिल रहा था, इसलिए उनकी नजरों से भी इन ढाई महीने मणिपुर अदृश्य था, पारदर्शी था, हवा के रंग का था।

दूसरी तरफ ऐसे भी करोड़ों लोग हैं जो कि यूक्रेन से लेकर चीन तक कई जगहों के मानवाधिकारों को लेकर फिक्रमंद रहते हैं, सोशल मीडिया पर अक्सर लिखते हैं, उनमें से भी बहुत से लोग मणिपुर के हिज्जे नहीं तलाश पा रहे थे। देश में बहुत से लेखक और कवि हैं जो कि बरगद की छांव के बारे में, तितली की हसरतों के बारे में, गर्म-सूखी जमीन पर बारिश की पड़ती बूंदों से उठने वाली सोंधी महक के बारे में कविताएं लिखते हैं, लेकिन वे भी मणिपुर की उघाड़ी गई देह के साथ सामूहिक बलात्कार पर कुछ नहीं लिख पाए। दरअसल कुदरत और पशु-पक्षियों के बारे में, बादल-बारिश और इन्द्रधनुष के बारे में लिखना महफूज होता है, इनसे नाराज होकर कुदरत किसी के घर भूकंप नहीं ला सकती, और किसी की कुर्सी के नीचे ज्वालामुखी नहीं फोड़ सकती। लेकिन जिंदगी के असल मुद्दों पर लिखने के अपने खतरे रहते हैं, और समझदार लोग खतरों से दूर-दूर चलते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि नक्सल इलाकों में लोग जमीनी सुरंगों से बचकर चलते हैं।

तमाम लिखने-पढऩे वाले, और वोट डालने वाले जरूरत पडऩे पर अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर सजग रहते हैं, और तुरंत ही ऐसे नारों का इस्तेमाल करने लगते हैं। लेकिन चार अक्षरों से बना लोकतंत्र, चार अक्षरों से बने मणिपुर से परे कुछ नहीं है। अगर मणिपुर में लोकतंत्र नहीं है, तो देश में कहीं भी नहीं है। लोकतंत्र टापू की तरह देश के अलग-अलग हिस्सों में कामयाब नहीं हो सकता। उसके लिए तो मुल्क के नक्शे की सरहदों से परे भी लोकतांत्रिक होना जरूरी रहता है। नेहरू ने अपने वक्त यह कर दिखाया था कि उनकी लोकतांत्रिक समझ और जिम्मेदारी देश की सरहदों से बहुत दूर-दूर तक, दुनिया के पूरे गोले में चारों तरफ फैली रहती थी, और इसीलिए वे एक विश्व नेता थे, वे हिन्दुस्तान के ही नेता नहीं थे, वे दुनिया के उस दौर के गिने-चुने सबसे महान नेताओं में से एक थे। लेकिन जिस देश में अब मणिपुर को लेकर करोड़ों हिन्दुस्तानियों की समझ महज मोदी के रूख से तय होती हो, उनकी चुप्पी या उनकी शर्मिंदगी के बिना जिनकी समझ ताक पर धर दी जाती हो, उन्हें अपनी बारी आने पर लोकतंत्र का दावा करने का कोई हक नहीं रहेगा, कोई हक नहीं रहना चाहिए। लोकतंत्र इतना आत्मकेन्द्रित, इतना मतलबपरस्त, इतना आत्ममुग्ध, और इतना जुल्मी नहीं हो सकता कि वह एक पूरे प्रदेश, एक पूरी नस्ल, और कई पीढिय़ों के साथ देश के इतिहास के सबसे बुरे जुल्म को देखते हुए जलसों में मगन रहे। आज हिन्दुस्तानी लोकतंत्र का हाल यही है।

जो राजनीति में नहीं हैं, और जो सरकार में भी नहीं हैं, जो आज कुछ बोल सकते हैं, आज कुछ लिख सकते हैं, उन्हें सोशल मीडिया पर हौसलामंद लोगों के लिखे हुए को पसंद करते हुए भी कंपकंपी हो रही है। जुल्म के एक दौर में फौजी तानाशाह हुकूमत के खिलाफ जिस तरह पाकिस्तान में बागी तेवरों के साथ इकबाल बानो नाम की गायिका ने फैज़ अहमद फैज़ की एक इंकलाबी कविता गाई थी, उसने तमाम मुल्क की रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा कर दी थी। वह वक्त पाकिस्तान में फौजी तानाशाह जिया-उल-हक की हुकूमत के खिलाफ विरोध के काले रंग की साड़ी पहनकर इकबाल बानो ने मानो इंकलाब बानो बनकर यह गाया था, और उस वक्त जिया की हुकूमत ने पाकिस्तान में काली साड़ी को प्रतिबंधित करके रखा था। आज के जिन तथाकथित लेखकों, कवियों, सोशल मीडिया के क्रांतिकारियों को और कुछ नहीं तो यह गुनगुना ही लेना चाहिए, सार्वजनिक जगह पर न सही तो बाथरूम में गुनगुना लेना चाहिए कि- हम देखेंगे, लाजि़म है कि हम भी देखेंगे, वो दिन कि जिसका वादा है, जो विधि के विधान में लिखा है, जब जुल्म-ओ-सितम के घने पहाड़, रूई की तरह उड़ जाएंगे, हम जनता के पांवतले, ये धरती धड़-धड़ धडक़ेगी, और सत्ताधीशों के सर पर जब बिजली कड़-कड़ कडक़ेगी, सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे…। यहां पर फैज़ के लिखे गए बहुत से शब्दों को सरल हिन्दी में कर दिया गया है ताकि अधिक लोग समझ सकें। याद रखें कि फैज़ का लिक्खा, और फौजी तानाशाही के दौर में 50 हजार लोगों के बीच स्टेडियम में इकबाल बानो ने विरोध के कपड़े पहनकर यह गाया था, और फौजी हुकूमत कांप उठी थी। आज लोग बिना फौजी हुकूमत के इस कविता को लाइक करने में भी कांप रहे हैं। दोस्तो, गर मणिपुर आज तुम्हारा नहीं है, तो तुम भी लोकतंत्र के नहीं हो, मणिपुर और लोकतंत्र एक ही बंडल में आते हैं, अलग-अलग नहीं मिलते, अब अपनी पसंद तय कर लो। क्या तुम्हें आज भी मणिपुर के जख्मों पर अपने लिक्खे और कहे हुए का कुछ मरहम धरना है, या तुम्हारा सामाजिक सरोकार बारिश के आसमान पर उगते इन्द्रधनुष तक सीमित है?

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