-सुनील कुमार॥
धर्म के खिलाफ कुछ लिखा जाए तो अधिक लोग उसे पढऩे तैयार नहीं होते हैं क्योंकि अधिकतर लोग किसी न किसी धर्म से जुड़े रहते हैं, और नास्तिक बहुत कम होते हैं, ऐसे में जब धर्म के बारे में आम बातें लिखी जाएं, बिना किसी एक धर्म के जिक्र के अगर तमाम धर्मों को कोसा जाए, तो उस बारे में पढऩे वाले एकदम कम हो जाते हैं। अभी पिछले दिनों हमने यूरोपीय संसद से लेकर ब्रिटिश पार्लियामेंट तक दुनिया की कुछ सबसे ताकतवर जगहों पर भारत के मणिपुर में चल रही हिंसा पर बहसें सुनीं। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस दिन फ्रांस के पेरिस में थे, उसी दिन फ्रांस के एक दूसरे हिस्से में यूरोपीय संसद की एक बैठक में एक-एक करके शायद दर्जनों देशों के प्रतिनिधियों ने मणिपुर की हिंसा पर फिक्र जताई थी, और भारत सरकार से तुरंत कार्रवाई करवाने की अपील की थी। कुछ इसी किस्म की बातें अभी ब्रिटिश पार्लियामेंट से निकले वीडियो में दिख रही हैं जहां कई सांसद मणिपुर के खौफनाक हालात बयां कर रहे हैं। इन दोनों में एक बात जो सबसे ऊपर दिख रही है, वह धर्म है। मणिपुर में ईसाई धर्मस्थानों, यानी चर्चों को सैकड़ों की संख्या में जला दिया गया है, और यूरोप के सांसद इन्हेें ईसाईयों पर हमले की तरह ही देख रहे हैं, जो कि एक हिसाब से सच भी है। लेकिन धर्म के पैमाने से परे कुछ और बातों को लोग नहीं देख रहे हैं, जो कि हमारे हिसाब से उससे ऊपर की बात रहनी चाहिए थी।
लोगों को याद होगा कि मणिपुर में हिंसा शुरू ही हुई थी, और कुछ दिनों के भीतर ही असम रायफल्स के कैम्प में शरण लिए हुए एक परिवार के सात-आठ बरस के बच्चे को बाहर से आई एक गोली लगी थी, और उसे बड़ी गंभीर हालत में अस्पताल ले जाना था, जो कि एक दूसरे समुदाय के कब्जे के इलाके में था। ऐसे में एम्बुलेंस में इस जख्मी और गंभीर बच्चे के साथ उसकी मां जो कि जन्म से मैतेई-हिन्दू थी, लेकिन एक कुकी-ईसाई-आदिवासी से शादी की थी, और उनका यह बच्चा था। ऐसे में जन्म से मैतेई मां, और आधा कुकी, आधा मैतेई बच्चा एम्बुलेंस में अस्पताल जा रहे थे, और उन्हें पहचानकर, मैतेई भीड़ ने एम्बुलेंस को आग लगा दी, और उन्हें निकलने नहीं दिया, मां-बेटे उसमें जलकर मर गए। हमने योरप और ब्रिटेन की पार्लियामेंट के कुछ दर्जन लोगों के बयान सुने, उनमें से तकरीबन हर बयान चर्चों पर हमला, ईसाईयों पर हमला गिना रहा था, लेकिन एक भी बयान ऐसा नहीं था जिसमें कि एम्बुलेंस में जख्मी बच्चे को मां सहित जिंदा जलाकर मार डालने की बात गिनाई हो। यह हिंसा तो एक किस्म से युद्ध-अपराध दर्जे की है क्योंकि मरीज ले जा रही एम्बुलेंस पर किसी देश की फौज भी हमला नहीं करती है, और ऐसे हमले की भी योरप की संसदों में चर्चा नहीं हो रही। मतलब यह कि जिन इंसानों ने धर्म बनाया था, आज यह धर्म उन इंसानों से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।
ब्रिटिश संसद में प्रधानमंत्री की धार्मिक स्वतंत्रता पर विशेष दूत ने कहा कि मणिपुर हिंसा में सैकड़ों चर्च जला दिए गए हैं जो कि सोची-समझी साजिश है। उन्होंने कहा कि धर्म इन हमलों के पीछे बड़ा फैक्टर है। उन्होंने कहा कि चर्च ऑफ इंग्लैंड, पीड़ा की तरफ और अधिक ध्यान आकर्षित करने के लिए क्या कर सकता है? उनकी एक रिपोर्ट में कहा गया कि हिंसा की वजह से लोगों का अपने धर्मस्थल में इक_ा होने का अधिकार सीधे तौर पर प्रभावित हुआ है, और चर्चों को फिर से बनाने में बहुत खर्च होगा। ब्रिटिश संसद में पेश इस रिपोर्ट में सिर्फ चर्च की बात हुई है, और जिंदगी के दूसरे पहलुओं पर कोई बात नहीं हुई है।
लगातार यूरोपीय संसद और ब्रिटिश संसद के लोगों के बयान देखते हुए इस मुद्दे पर लिखना आज सुबह इसलिए भी सूझा कि अभी अमरीका में रैशेल स्वार्न्स नाम की एक लेखिका की लिखी हुई एक किताब खबरों में हैं जिसमें इस ऐतिहासिक तथ्य को सामने लाया गया है कि किस तरह 1838 में अमरीका के कुछ सबसे प्रमुख कैथोलिक पादरियों ने वहां जॉर्जटाऊन यूनिवर्सिटी बनाने के लिए चर्च के गुलाम लोगों में से 272 लोगों को बेचा था। यह लेखिका अखबारनवीस थीं, और प्रोफेसर भी, और उन्होंने दो दशकों की गुलामी का इतिहास दर्ज किया है, और अमरीका में कैथोलिक चर्च के इस भयानक काले इतिहास के साथ उसे जोड़ा है। उन्होंने यह पाया है कि किस तरह चर्चों ने अपनी महत्वाकांक्षी योजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर गुलाम बनाए, उन्हें खरीदा, उन्हें बेचा, और सदियों तक यह सिलसिला चलते रहा। इस लेखिका ने ऐसे एक परिवार को भी ढूंढकर निकाला जिसके पुरखे सन् 1600 से इसी तरह की गुलामी झेल रहे थे, और सदियों से चर्च गुलाम खरीदने-बेचने का काम कर रहा था।
दुनिया के इतिहास का कोई सा हिस्सा निकालकर देखें, अधिकतर धर्मों का हाल हिंसा से भरा हुआ दिखता है। कुछ धर्म हथियार लेकर हिंसा करते हैं, तो कुछ धर्म बिना हथियार के भी तरह-तरह से गरीबों को तरह-तरह की गुलामी में रखते हैं। कुछ दिन पहले हमने अपने अखबार के यूट्यूब चैनल पर हिन्दू मंदिरों में देवदासी प्रथा के बारे में लिखा था जो और कुछ नहीं थी बल्कि दक्षिण के मंदिरों में गरीब लड़कियों से करवाई जा रही वेश्यावृत्ति ही थी। आज अफगानिस्तान जैसे देशों में तालिबान और आईएस को देखें तो वहां पर सबसे कट्टर धार्मिक समूह महिलाओं को सेक्स-गुलामों की तरह रखने को धार्मिक बतला रहे हैं। अब इन महिलाओं का मानवाधिकार लोगों को उतना अपील नहीं करेगा जितना कि धर्म का मामला करेगा। जिन लोगों को इस्लाम के नाम पर ऐसी धर्मान्धता या कट्टरता सुहाती है, वे ऐसी हिंसा को अनदेखा करेंगे, दूसरी तरफ जिन लोगों को इस्लाम की हिंसा या हकीकत दुनिया को बताना है, वे ऐसे जुल्म को महिलाओं के खिलाफ जुर्म की तरह पेश करेंगे। सभी तरह के लोग महिलाओं को महज अपने मकसद के औजार या हथियार की तरह इस्तेमाल करेंगे, और धर्म की अलग-अलग शक्लों का अलग-अलग लोग साथ देंगे, या अपने धर्म को बेहतर बताने के लिए दूसरे धर्म को नीचा दिखाएंगे।
सभ्य और विकसित माने जाने वाले लोकतंत्रों में भी मणिपुर की एम्बुलेंस जलाने की घटना का जिक्र नहीं हुआ, और महज चर्चों का जिक्र हुआ। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि योरप के इन तमाम सांसदों को मणिपुर की एम्बुलेंस के जिक्र से अपने वोटरों का समर्थन शायद न मिलता, और ईसाई बहुल वोटरों के बीच उनके लिए चर्च जलाने का मुद्दा अधिक अहमियत का रहा होगा। किसी चर्च में सलीब पर टंगे हुए ईसा मसीह को जलाए जाने पर कोई तकलीफ नहीं हुई होगी, लेकिन गोली लगे अपने गंभीर-जख्मी बच्चे को अस्पताल ले जा रही मां जब अस्पताल से एक-दो किलोमीटर दूर उस बच्चे के साथ जिंदा जला दी गई, तो अपने उस बच्चे को जलते देख मां को जो तकलीफ हुई होगी, वह तकलीफ तो ईसा मसीह को भी सूली पर चढ़ाए जाने पर नहीं हुई होगी।