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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

देश अंतत: उस मुकाम पर खड़ा दिखाई देने लगा है जहां उसे पहुंचाने की सुनियोजित योजना पिछले एक दशक से बनाई और क्रियान्वित की गई है। वैसे तो इसका खाका लगभग एक शताब्दी से बनाकर समाज के आगे रखस दिया गया था परन्तु उसे राज्य की शक्ति और सत्तारुढ़ पार्टी का समर्थन हालिया 8-9 वर्षों में मिला है। इस शक्ति और समर्थन के रक्तरंजित प्रतिफल की एक झलक जयपुर-मुम्बई एक्सप्रेस में देखने को मिली जब एक कांस्टेबल ने सियासी बहस से बौखलाकर 4 लोगों को गोलियों से भूनकर रख दिया। इनमें तीन एक सम्प्रदाय विशेष के थे तो चौथा व्यक्ति आरक्षक का वरिष्ठ अधिकारी ही था। इतना ही नहीं, उसने लहू से तरबतर लाशों के सामने बाकायदा भाषण दिया और अन्य यात्रियों को समझाया कि ‘जिसे भी भारत में रहना है, उन्हें किसे वोट देना चाहिये। हत्या के तुरन्त बाद लोगों के समक्ष जो उद्बोधन कांस्टेबल ने दिया वह पिछले कुछ समय से लगाये जा रहे नारों की ही प्रतिध्वनि है जो चेतावनियों व धमकियों की शक्ल में सुनाई देती रहती है। देश के ज्यादातर हिस्सों में कभी एकाकी तो कभी समवेत स्वर में ऐसी धमकियां उन सभी को मिल रही हैं जिन्हें अलग समाज का हिस्सा मान लिया गया है और उन्हें बहुसंख्यकों से दोयम नागरिक का दर्जा दे दिया गया है। इन नारों के शिकार वे भी होते हैं जो इससे असहमत होते हैं और मानते हैं कि यह देश अल्पसंख्यकों का भी उतना ही है जितना अन्य लोगों का।
12956 क्रमांक की यह ट्रेन सोमवार की सुबह जब मुंबई से करीब 100 किलोमीटर दूर पालघर में थी, एएसआई टीकाराम मीणा व दो अन्य आरक्षक साथियों के साथ आरोपी कांस्टेबल चेतन कुमार चौधरी कोच की एस्कॉर्ट ड्यूटी पर था। मीणा की किसी राजनैतिक टिप्पणी से वह एकाएक तैश में आ गया। उसने अपनी आटोमेटिक राइफल से मीणा एवं उसके साथ बैठे अब्दुल कादिर भानपुरवाला पर फायरिंग कर दी। फिर वह पेंट्री कार में गया। वहां उसने सदर मोहम्मद को गोलियों से उड़ाया। तत्पश्चात बी-6 कोच में जयपुर के असगर अली को मार डाला जो काम की तलाश में मुंबई आ रहा था। फिर करीब 6 बजे चेतन ने चेन खींचकर ट्रेन रोकी व उतरकर भागने लगा। जीआरपी ने उसे मुंबई के समीपवर्ती उपनगर मीरा रोड व दहिसर के बीच हथियारों के साथ पकड़ लिया।
बताया जा रहा है कि चेतन गुस्सैल है और इन दिनों अवसाद में था। सवाल सिर्फ यह खड़ा नहीं होता कि ऐसी मानसिक अवस्था में उसे क्यों ड्यूटी पर तैनात किया गया बल्कि घटनाक्रम से परे जाकर यह देखा जाना चाहिये कि जिन केन्द्रीय बलों के जवानों को हमेशा से धर्मनिरपेक्ष माना जाता रहा है, उसका एक सदस्य एक वर्ग विशेष को निशाना बनाकर एक-दो नहीं पूरे 12 राउंड फायर करता है। साथ ही मृत शरीरों के पास खड़े होकर एक खास तरह की विचारधारा के अनुरूप बातें करता है। वह साफ संदेश देता है कि अगर लोगों को इस देश में रहना है तो उन्हें किन-किन लोगों को वोट देना होगा यानी किस पार्टी और लोगों को समर्थन देना होगा। साफ है कि अल्पसंख्यकों को दिया जाने वाला यह संदेश देश भर के अल्पसंख्यकों को भयभीत करेगा; और ऐसा करना ही उसका मकसद है।
ऐसा नहीं है कि देश में कोई पहली बार चलते-फिरते या बस-ट्रेन में सफर करते हुए सहयात्रियों के बीच राजनैतिक विचार-विमर्श हुआ हो। नुक्कड़ों, चौक-चौराहों, चाय, पान, नाई की दुकानों से लेकर सभागारों व सभाओं तक हमेशा से हर तरह की बहसें होती आई हैं। इनमें सियासती बहसें भी शामिल हैं। विचारों से असहमति के बीच भी ऐसी तक़रीरें होती रहती हैं। हाल के वर्षों की राजनैतिक फिर कुछ ऐसी बदली है कि अब असहिष्णुता चरम पर है। वैचारिक विरोधियों व दूसरे धर्मावलम्बियों को देश का दुश्मन बतलाना, गद्दार कहना, पाकिस्तान-अफगानिस्तान भेजना, नक्सली, धर्मविरोधी साबित करना संवाद कला का नवाचार है जिसने सहिष्णु व सभ्य लोगों को इस वैचारिक प्रक्रिया से बाहर कर दिया है। अब बहस का क्षेत्र अंधभक्ति में लीन, तर्क -विवेक से विहीन तथा कुपढ़ों के अधीनस्थ हो गया है। वहां तथ्यों व यथार्थ पर आधारित विचार-विमर्श कम और गाली-गलौज से सनी भाषावली मुखर है। बड़ी संख्या में लोग उस नयी संस्कृति का हिस्सा हैं जो राष्ट्रभक्ति के नाम पर ट्रोल आर्मी के सदस्य बन गये हैं।
देश के ही कुछ वर्गों को अपने दुश्मन मान लेने वाले ये लोग हिंसा व घृणा से लबरेज हैं जो हथियारों से लैस होने पर अगर उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं तो आश्चर्य ही क्या है? यह वही राह है जिस पर चलकर हमारे राजनैतिक पुरखों ने आजादी लेने से तक इंकार कर दिया था और तय किया था कि भारत को खून से लथपथ रास्तों पर चलना मंजूर नहीं है वरन वह बुद्ध, महावीर और गांधी के बताये रास्ते पर चलकर स्वतंत्र देश बनेगा चाहे उसके लिये उसे कितना भी इंतजार क्यों न करना पड़े। दुर्भाग्य से वह विचारधारा लोगों के मनो-मस्तिष्क और सत्ता पर कुछ इस कदर काबिज हो गई कि अब अहिंसा कायरता है और धर्मनिरपेक्षता एक वर्ग विशेष का तुष्टिकरण। समावेशी समाज की अवधारणा उपहास का विषय बन गया है तो समानता का सिद्धांत कूड़ेदान में फेंके जाने योग्य बतलाया जा रहा है।
नफ़रत की बोली और हिंसक व्यवहार पर लगाम न लगी तो समाज उस बिन्दु पर जाकर खड़ा हो जायेगा जहां से उसे वापस बुलाना असम्भव हो जायेगा। हथियारों की धमक जिन्हें कर्णप्रिय लगती हो और अगर इसे ही वे शक्ति का प्रतीक मानते हैं तो शायद वे यह नहीं समझते कि बारूद फटने के पहले न तो समीप खड़े व्यक्ति की जाति पूछता है और न ही बंदूक-तमंचे से निकली गोली की दिलचस्पी किसी का धर्म जानने में होती है। बुलेट के आगे अब्दुल, सदर, असगर और टीकाराम एक सरीखे हैं।

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