देश का हर वह इंसान क्षुब्ध और कहीं-कहीं पर बेबस दिखलाई दे रहा है जो लोकतंत्र में विश्वास रखता है और समानता व बंधुत्व के मार्ग पर ही समाज को बढ़ता हुआ देखना चाहता है। वह हतप्रभ है कि कैसे केवल 3-4 महीनों के भीतर-भीतर एक के बाद एक होती साम्प्रदायिकता घटनाओं की लपटों से देश घिर गया है। वह मौजूदा हालातों को लेकर चिंतित है। वह व्यथित है कि मणिपुर तो खाक हो ही गया है और कह नहीं सकते कि दिल्ली से सटे मेवात में लगी आग कब देश की राजधानी में प्रवेश कर जाये। जयपुर-मुंबई एक्सप्रेस की दो बोगियों और पेंट्री कार में सोमवार की अल्लसुबह जनता के रक्षार्थ दी गई सरकारी राइफल से जो शोले निरीह लोगों पर ही बरसे उसने यह भी बता दिया है कि घृणाजनित हिंसा लोगों के कितने भीतर तक घर कर गई है।
ये अनायास घटी वारदातें होतीं तो कम से कम यह संतोष होता कि चलिये, आगे-पीछे इन पर काबू पा लिया जायेगा; पर अब महसूस होने लग गया है कि यह तमाम घटनाक्रम सुनियोजित व अंतर्गुंफित है। सब एक क्रोनोलॉजी के तहत किसी बड़े से मुकाम को हासिल करने के लिये सायास कराये जा रहे हैं। ऐसा मानने के कई कारण हैं। पिछले लगभग एक साल का घटनाक्रम व मौजूदा हालात देखें तो साफ है कि चुनाव जीतने के भारतीय जनता पार्टी व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पुराने फार्मूले काम नहीं आने वाले। पुलवामा दोहराया नहीं जाएगा, क्योंकि इस पर संदेह के सारे बादल छंट चुके हैं कि अब ऐसी कोई भी घटना होने पर वे लोग इसके पीछे के खेल को जान जायेंगे जिन्होंने इससे द्रवित होकर भाजपा-मोदी की दूसरी बार ताजपोशी की थी। राममंदिर, महाकालेश्वर, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर आदि को जितना लाभ देना था, सारा मिल चुका है। हालांकि ज्ञानवापी मुद्दे को भी खोला जा रहा है।
उधर राहुल गांधी के खिलाफ मोदी सरनेम को लेकर दिये गये उनके बयान पर दाखिल केस से वे कमजोर नहीं पड़े। उलटे, लोग जान गये कि उन्हें संसद से बाहर रखने के लिये ही यह अवमानना-अवमानना का खेल खेला गया था। राहुल लोगों की सहानुभूति बटोर ले गये और देश के ज्यादातर मजबूत विपक्षी दल उनके पीछे लामबन्द हो गये हैं। मोदी के कारोबारी मित्र गौतम अदानी के साथ उनके सम्बन्धों को लेकर आवाज़ उठाने के कारण लोकसभा से निकाल बाहर किये गये राहुल की आवाज दब न सकी और अब तो सत्ता पक्ष को धुकधुकी है कि सुप्रीम कोर्ट उनके खिलाफ सजा को रद्द न कर दे अथवा घटा न दे जिससे उनका सदन में वापसी का रास्ता खुल जाये। खैर, इस बारे में आने वाला समय ही खुलासा करेगा कि राहुल की लड़ाई सदन में लौट आती है या वे सड़कों पर ही सरकार विरोधी अपने हमलों को विस्तार देंगे।
राहुल की भारत जोड़ो यात्रा पहले ही लोकप्रिय हो चुकी है। इसने मोदी की छवि को धराशायी कर दिया और इसके विपरीत लोगों को राहुल में एक जन नेता की वह तस्वीर दिखलाई पड़ने लगी जिसे एक खर्चीले अभियान के तहत उन ताकतों द्वारा विकृत कर दिया गया था, जिसका उद्देश्य एक लोकहितकारी सरकार को हटाकर ऐसी सरकार बनाना था जो पूंजीपतियों की तिजोरियां भर सके। मोदी इसी तरीके से केन्द्र की सत्ता में बैठे। उन्होंने अपने तमाम जनविरोधी फैसलों को धर्म और राष्ट्रवाद की चाशनी में लपेटकर यूं पेश किया कि आम जनता को उनकी कड़ुवाहट महसूस नहीं हुई। आर्थिक निर्णय से जनता कंगाल व कमजोर होती गई तो धर्म आधारित कामों से वे जनता का भावनात्मक दोहन भी करते रहे। एक तरह से उन्होंने देश को दो वर्गों में विभाजित कर दिया- एक बहुसंख्यकों का तो दूसरा अल्पसंख्यकों का। समानता पर आधारित समाज देश के लिए देखते-देखते इतिहास हो गया। आड़े आने वाले नेताओं से निपटने के लिए उन्हें केन्द्रीय जांच एजेंसियों की जांच टेबलों पर भेजा जाने लगा।
देश की मुख्यधारा का मीडिया चाहे उन्हें महामानव साबित करता रहा हो, परन्तु विदेश में मोदी की भरपूर भद्द पिटी और अपनी कार्यपद्धति पर उन्हें मुश्किल सवालों का देश के बाहर सामना करना पड़ा। इधर अपनी तिजोरियों के मुंह खोल देने और तमाम हथकण्डों के बावजूद पहले हिमाचल प्रदेश और तत्पश्चात कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में जब भाजपा खेत रही तो उसे अपने चिर-परिचित हथियार यानी साम्प्रदायिकता पर फिर से सान चढ़ाने की ज़रूरत महसूस होने लगी है। तभी तो मणिपुर की आग को खूब सुलगाया गया। कुकी समुदाय को मैतेइयों से भिड़ाकर भाजपा की डबल इंजिन सरकार इसलिए चुप बैठी रही क्योंकि वह स्थिति विस्फोटक ही सही परन्तु सामाजिक ध्रुवीकरण के काम आ रही थी (अब भी आ रही है)। मामला शीर्ष अदालत में पहुंचा और जब वहां मी लॉर्ड ने सख्ती दिखाई तो मोदी ने संसद भवन के बाहर संक्षिप्त बयान दिया पर मुख्य बात से वे अब भी भाग रहे हैं। अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने मणिपुर के आला अधिकारियों को तलब कर ही दिया है तो केन्द्र सरकार व भाजपा के पांव कांप रहे हैं।
छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम विधानसभा चुनावों के निकट पहुंचकर भाजपा को अपनी राह कठिन दिख रही है। लोकसभा की डगर तो और भी जटिल। उसके कांग्रेस मुक्त, विपक्ष मुक्त, वंशवाद, प्रतिपक्षियों के कथित भ्रष्टाचार के नारे भोथरे होते जा रहे हैं, तो स्वाभाविकत: भाजपा साम्प्रदायिक दंगों पर ही दांव खेलेगी। यह पहले से ही लग रहा था। मणिपुर से मेवात तक की रक्तरंजित घटनाएं एक ही डोर से बंधी है जिनसे टपकती खून की लकीरें लोकसभा-2024 की चौखट की तरफ जाती दिख रही हैं। भाजपा सम्भवत: इसी खून से सने पैरों से संसद में प्रवेश की तैयारी कर रही है।
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