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पुत्र हुआ था नीट में फेल

-सुनील कुमार॥

तमिलनाडु में भारत सरकार के शुरू किए हुए मेडिकल दाखिला इम्तिहान, राष्ट्रीय पात्रता व प्रवेश परीक्षा (नीट) को लेकर तमिलनाडु ने शुरू से विरोध किया है। उसका कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा कोई इम्तिहान नहीं होना चाहिए। वहां पर सरकारी मेडिकल कॉलेज में सीट न मिलने पर बहुत से छात्रों ने आत्महत्या कर ली है, और आज यह मुद्दा एक बार फिर खबर में इसलिए भी है कि आत्महत्या करने वाले ऐसे एक छात्र के साथ-साथ, उसके बाद सदमे में आए उसके पिता ने भी खुदकुशी कर ली। एक रिपोर्ट कहती है कि बाप-बेटे को यह उम्मीद थी कि राज्य के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने कहा था कि वे नीट को खत्म कर देंगे, और अगर वह इम्तिहान खत्म हो गई रहती तो बहुत से लोगों की जान बचती। अभी का खुदकुशी वाला यह छात्र अपने पिता के किसी तरह कोचिंग सेंटर को किए गए भुगतान के बोझ से वाकिफ था, और पिता ने बेटे की हौसला अफजाई के लिए नीट में न चुने जाने पर कोचिंग सेंटर में दुबारा फीस जमा कर दी थी, लेकिन निराश छात्र ने खुदकुशी कर ली, और बाद में पिता ने। अब तक वहां 16 से अधिक लोग आत्महत्या कर चुके हैं। तमिलनाडु में विधानसभा में नीट के खिलाफ विधेयक पास किया था, और इसे राज्यपाल के लौटाने के बाद राष्ट्रपति को भेजा हुआ था, लेकिन उसे मंजूरी मिल नहीं रही है, और आत्महत्याएं जारी हैं।

हम किसी इम्तिहान के तरीके को ऐसी आत्महत्याओं के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार नहीं कहते, फिर चाहे वे इम्तिहान अपने आपमें गलत ही क्यों न हों। परिवार और समाज को अपने बच्चों को इस तरह से तैयार करना चाहिए कि वे किसी कोर्स में दाखिले को जिंदगी का अंत ही न मान लें। हर कॉलेज में हर किसी को तो दाखिला मिल भी नहीं सकता, और बेहतर यही है कि प्राथमिक शिक्षा के बाद से धीरे-धीरे बच्चों को उनके रूझान, और उनकी क्षमता के मुताबिक आगे बढ़ाना चाहिए। आज जिस तरह से छोटे-छोटे कस्बों में भी कॉलेज खुल गए हैं, छात्र-छात्राएं वहां से बीए, बीकॉम करके बेरोजगार बनते चले जा रहे हैं, उससे एक बड़ी पीढ़ी के सामने भविष्य का खतरा खड़ा हो गया है। गरीब या किसान परिवार, या किसी छोटे कस्बाई कारोबारी के बच्चे भी जब कॉलेज की पढ़ाई कर लेते हैं, तो वे नौकरी के अलावा कोई और काम करना नहीं चाहते हैं। वे पढ़े-लिखे, सफेद कपड़ों वाले काम करना चाहते हैं, जो कि गिनती के रहते हैं। अनगिनत बेरोजगार, और गिनती के रोजगार। यह नौबत कुछ उसी तरह की रहती है कि कुछ हजार मेडिकल सीटों के लिए दसियों लाख छात्र-छात्राएं मुकाबला करते हैं, और निराश होने पर उनमें से कई लोग खुदकुशी कर लेते हैं, और अनगिनत लोग डिप्रेशन में चले जाते हैं।

सरकार और समाज को यह भी सोचना चाहिए कि जिस तरह दाखिला इम्तिहानों को ही जिंदगी का मकसद बना दिया गया है, उसकी वजह से बच्चों की पढ़ाई में दिलचस्पी घटती जा रही है, और महज कोचिंग में दिलचस्पी बनी हुई है। देश के शिक्षाशास्त्रियों को यह भी सोचना चाहिए कि प्राइमरी स्कूल से लेकर 12वीं के बाद की किसी दाखिला इम्तिहान तक हर बरस के इम्तिहान के नंबरों को किसी बड़े कॉलेज में दाखिले के वक्त क्यों नहीं जोड़ा जाना चाहिए? अगर ऐसा करना मुमकिन न भी हो, तो भी 12वीं तक की तीन-चार बोर्ड इम्तिहानों के नंबरों का हिसाब आगे के दाखिला इम्तिहान के साथ लगाना ही चाहिए। इसके बिना बच्चों और उनके मां-बाप की भी दिलचस्पी सिर्फ कोचिंग में रहती है, और स्कूली पढ़ाई किनारे धरी रह जाती है। इससे बच्चों को बड़ी अधूरी पढ़ाई मिल रही है जिससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी असर पडऩे लगेगा।

यह भी सोचने की जरूरत है कि मिडिल स्कूल के वक्त से ही किस तरह पढ़ाई में कमजोर रूझान वाले बच्चों को रोजगार से जुड़ी हुई पढ़ाई की तरफ मोडऩा चाहिए, ताकि वे आगे जाकर किसी काम के तो रहें। आज अधिक से अधिक बच्चों को पास कर दिया जाता है, और बाद में इनमें से हर कोई बहुत औसत दर्जे की डिग्री पाकर नौकरी के सपने देखते हैं, और अपने मां-बाप की छाती पर मूंग दलते हैं। यह सिलसिला ठीक नहीं है। स्कूल के भी आखिरी तीन-चार बरसों में रोजगार से जुड़े प्रशिक्षण को जोडऩा चाहिए, और जिंदगी के लिए जरूरी मामूली पढ़ाई के बाद, पढ़ाई में कमजोर बच्चों को दूसरे हुुनर सिखाने चाहिए। आज तमाम बच्चों को हर दाखिला इम्तिहान में शामिल होने का हक है, और नतीजा यह होता है कि जो स्कूल में भी बहुत कमजोर रहे हैं, वे भी बड़े कठिन इम्तिहानों में नाकामयाब होने की पूरी आशंका के साथ शामिल होते हैं, मां-बाप बहुत खर्च करते हैं, बच्चे तैयारी के दौरान भी खुदकुशी करते हैं, और सेलेक्शन न होने पर भी।

आज देश में जितने किस्म के हुनर के जानकार और प्रशिक्षित लोगों की जरूरत है, वह पूरी नहीं हो पा रही है। अधिकतर कामों के लिए नौसिखिया, अर्धसिखिया, लोग मौजूद रहते हैं, जो कि काम की क्वालिटी भी खराब रखते हैं। ऐसे में अगर हुनरमंद लोगों को तैयार किया जाए, तो वे गिनी-चुनी सरकारी नौकरियों के लिए मीलों लंबी कतार में लगने के बजाय स्वरोजगार से कमाई करने लगेंगे। हिन्दुस्तान की शिक्षा नीति में कई किस्म के प्रयोग तो हुए हैं, लेकिन अब भी कोई सरकार छात्र-छात्राओं को मुंह पर यह कहने का हौसला नहीं रखती कि आगे किताबी पढ़ाई के मुकाबले में उनका भविष्य बहुत अच्छा नहीं रहेगा, और उन्हें कोई दूसरा रास्ता छांटना चाहिए। देश और प्रदेशों की जरूरत के मुताबिक अंदाज 25-30 बरस बाद का भी लगाना होगा तभी जाकर कुछ खास किस्म कॉलेज बढ़ाए या घटाए जा सकेंगे। एक तरफ तो मेडिकल सीट न मिलने पर आत्महत्याएं हो रही हैं, दूसरी तरफ मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाने के लिए डॉक्टर नहीं मिल रहे हैं, गांवों में काम करने के लिए डॉक्टर नहीं हैं। डिमांड और सप्लाई का यह बड़ा फासला देश का नुकसान कर रहा है, और यहां से हर बरस दसियों हजार छात्र-छात्राएं यूक्रेन से लेकर चीन तक मेडिकल पढ़ाई के लिए जाते हैं। देश में आईआईएम जैसे दुनिया के विख्यात मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट हैं, फिर भी जाने क्यों डॉक्टरों की जरूरत और मेडिकल पढ़ाई की क्षमता के बीच कोई तालमेल नहीं बैठाया जा सका है।

हमने यहां कई अलग-अलग मुद्दों को छुआ है। जिसमें से एक सबसे व्यापक मुद्दा स्कूली बरसों में ही किताबों से परे के प्रशिक्षण का है। देश के लोगों को यह बात समझाना भी आसान नहीं होगा कि उनके बच्चे डिग्री पाकर बेरोजगार बनने लायक ही नंबर लाते दिख रहे हैं, और उससे बेहतर होगा कि वे कोई हुनर सीखकर तकनीकी क्षमता विकसित कर लें। देखें, कि सरकार और समाज अगली पीढ़ी को कड़वी बात कहने की कितनी हिम्मत जुटा पाते हैं।

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