-सुनील कुमार॥
महाराष्ट्र के नांदेड़ के सरकारी अस्पताल में पिछले 48 घंटों में 31 मरीजों की मौत हुई है जिनमें 16 बच्चे हैं, इनके अलावा 71 मरीजों की हालत गंभीर बताई जा रही है। अस्पताल ने यह कहा है कि वहां डॉक्टरों या दवा की कोई कमी नहीं है, और इस बात पर जोर दिया है कि मरीजों पर इलाज का असर नहीं हुआ। मामले की जांच के लिए कमेटी बनाई गई है, और इसे लेकर सभी तबकों में बड़ी फिक्र हो रही है। अलग-अलग पार्टियों के नेता महाराष्ट्र की सरकार के प्रति अपने रूख के मुताबिक बयान दे रहे हैं, लेकिन उन सबसे परे यह समझने की जरूरत है कि अस्पताल जिन नवजात शिशुओं को बहुत कम वजन के साथ पैदा होने वाला बता रहा है, वे भी तो कुपोषण की शिकार माताओं के बच्चे रहे होंगे।
इन बातों के बीच एक दूसरी खबर पर भी ध्यान देने की जरूरत है। देश में मेडिकल शिक्षा, और सरकारी अस्पतालों में इलाज इन दोनों का हाल भयानक है। अभी कुछ दिन पहले इस अखबार के यूट्यूब चैनल इंडिया-आजकल पर इस बारे में एक रिपोर्ट भी थी कि किस तरह दक्षिण भारत में नई मेडिकल सीटों पर नेशनल मेडिकल कमीशन ने रोक लगा रखी है कि उत्तर भारत के प्रदेश दक्षिण की बराबरी नहीं कर पा रहे हैं। अब इसके साथ एक दूसरी खबर आई है कि राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने 2022-23 में मूल्यांकन के दौरान अधिकतर मेडिकल कॉलेजों में फैकल्टी (शिक्षक) और सीनियर रेजीडेंट डॉक्टरों को सिर्फ कागजों पर पाया है। मतलब यह कि वे असल में काम नहीं कर रहे थे, और कमीशन की औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए उन्हें नौकरी पर दिखाया जा रहा था। कमीशन ने यह भी पाया कि ऐसे चिकित्सा शिक्षकों और चिकित्सकों की हाजिरी कम से कम 50 फीसदी होने की शर्त कहीं भी पूरी नहीं हो रही है। यह हाल मेडिकल कॉलेज और उनके अस्पतालों का है, तो बाकी सरकारी अस्पतालों के हाल को और आसानी से समझा जा सकता है।
आज जब देश में चिकित्सा शिक्षा की यह हालत है, और हमने एक जानकार डॉ.सजल सेन से इस बारे में बात की थी तो उनका कहना था कि दक्षिण भारत के मेडिकल कॉलेजों में सीटें बढ़ाने पर रोक लगाना नाजायज है क्योंकि वहां पर चिकित्सा शिक्षा की हालत उत्तर भारत से बेहतर है। अब अगर देश के कॉलेजों में पढ़ाने के लिए डॉक्टरों की कमी है, वे आधे भी नहीं हैं, उनसे जुड़े हुए अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी है, देश भर के ग्रामीण इलाकों में काम करने के लिए सरकारी डॉक्टर नहीं हैं, और ऐसे में मेडिकल कमीशन इस बात पर जुटा हुआ है कि दक्षिण में चिकित्सा शिक्षा, और चिकित्सा सेवा दोनों राष्ट्रीय औसत से अधिक क्यों हैं, उत्तर भारत से बहुत अधिक क्यों हैं, तो यह बड़ी खराब नौबत है। अगर उत्तर भारत में जरूरत के मुताबिक मेडिकल कॉलेज नहीं खुल पाए हैं, और राष्ट्रीय स्तर, 10 लाख की आबादी पर सौ एमबीबीएस सीटों से चिकित्सा शिक्षा बहुत पीछे चल रही है, तो ऐसी घिसटती हुई नौबत की वजह से दक्षिण भारत का आगे बढऩा भी रोक देना निहायत बेवकूफी की बात है। उत्तर भारत में अगर मेडिकल कॉलेज बढ़ाने हैं, तो वहां काम करने के लिए डॉक्टर भी दक्षिण भारत से ही तो मिलेंगे।
दूसरी बात यह कि महाराष्ट्र में अभी जो मौतें हो रही हैं, उनको देखते हुए ऐसा लगता है कि चिकित्सकों, अस्पताल की दूसरी सहूलियतों, और बाकी इंतजामों में भी कहीं न कहीं कमी बनी हुई है जो कि थोक में ऐसी मौतें हो रही हैं। अगर मौतें एक साथ इतनी बड़ी संख्या में नहीं हुई रहतीं, तो यह पता भी नहीं चला होता। इसलिए आज देश को एक मानकर, जहां से भी जितने चिकित्सक तैयार हो सकते हैं, उनके लिए कोशिश करनी चाहिए। आज तो यूक्रेन, रूस, चीन, बांग्लादेश, और नेपाल जैसे देशों से भी डॉक्टरी की पढ़ाई करके हिन्दुस्तानी लौटते हैं, और यहां पर काम करते हैं। अब अगर हिन्दुस्तानी छात्र-छात्राओं को चिकित्सा शिक्षा के लिए दूसरे देश भी जाना पड़ता है, तो इससे बेहतर तो यही है कि वे बाकी प्रदेशों से दक्षिण भारत ही चले जाएं। क्योंकि उत्तर भारत कॉलेज नहीं बना पा रहा है, मेडिकल सीटें नहीं बढ़ा पा रहा है, इसलिए देश के अधिक सक्षम राज्य भी आगे न बढ़ सकें, यह तो बहुत ही खराब सोच है, और इससे राष्ट्रीय एकता भी कमजोर होगी। वैसे भी उत्तर और दक्षिण के बीच एक अघोषित विभाजन रेखा खिंची हुई है, और आने वाले लोकसभा डी-लिमिटेशन में भी उत्तर-दक्षिण का विभाजन और अधिक गहरा होने वाला है क्योंकि दक्षिण में आबादी के अनुपात में लोकसभा सीटें घटेंगी, और उत्तर भारत में गैरजिम्मेदार जनसंख्या बढ़ोत्तरी के चलते सीटें बढ़ेंगी। ऐसे में दक्षिण की बेहतर शिक्षा व्यवस्था की भी एक सीमा बांध देना बहुत समझदारी की बात नहीं है।
आज हालत यह है कि देश के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में भी डॉक्टर और प्राध्यापक फर्जी दिखाए जाते हैं। यह हालत भी तब है जब चिकित्सा शिक्षकों को 70 बरस की उम्र तक काम करने की छूट मिली हुई है। सरकारी इंतजाम में डॉक्टर अपने लिए तय घंटों तक भी काम नहीं करते हैं, और अधिकतर जगहों पर प्राइवेट प्रैक्टिस में लगे रहते हैं। इसलिए सरकारी कागजों में दिखने वाली चिकित्सा-क्षमता सच्चाई से बहुत दूर रहती है। केन्द्र सरकार को खुद राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के आंकड़ों को देखते हुए तुरंत ऐसी नीति बनानी चाहिए कि अगले 20-25 बरस में उत्तर भारत अपनी क्षमता बढ़ा सके, और आबादी के अनुपात में मेडिकल सीटों को ला सके। लेकिन तब तक तो देश को दक्षिण भारत की तरफ देखना ही होगा, और इससे परहेज करना दक्षिण के तो कम नुकसान का होगा, उत्तर भारत के, और बाकी भारत के अधिक नुकसान का होगा।