-सुनील कुमार॥
तीन बरस पहले दिल्ली की सरहद पर लंबे चले किसान आंदोलन में सैकड़ों किसानों की शहादत तो हुई, लेकिन मोदी सरकार को तीन विवादास्पद किसान कानूनों को वापिस लेना पड़ा था। इन कानूनों को सरकार ने एनडीए के संसदीय बाहुबल से बना तो लिया था, लेकिन किसान आंदोलन ने जिस तरह सरकार के सामने चुुनौती पेश की थी, उसे देखते हुए आखिर में सरकार को ही पीछे हटना पड़ा। उसके बाद से अब तक देश में कोई बड़ा किसान मुद्दा नहीं था। लेकिन छत्तीसगढ़ के इस चुनाव में किसानों का मुद्दा एक बार फिर जोर पकड़ चुका है जिसे देखते हुए भाजपा ने अपने इस घोषणापत्र में अपनी लंबी लीक से अलग हटकर धान के एक अकल्पनीय दाम की घोषणा की थी। केन्द्र सरकार का समर्थन मूल्य 22 सौ रूपए क्विंटल के करीब का है, और भाजपा ने छत्तीसगढ़ में 31 सौ रूपए के दाम का वायदा किया, और यह भी वायदा किया कि वह पूरा दाम एकमुश्त देगी। अब यह याद रखने की जरूरत है कि चार बरस पहले जब भूपेश सरकार केन्द्र के समर्थन मूल्य से अधिक दाम-बोनस छत्तीसगढ़ में देने जा रही थी तो केन्द्र ने उसे लिखकर रोक दिया था कि अगर उसके समर्थन मूल्य से अधिक दाम दिया जाएगा, तो वह राज्य का चावल नहीं खरीदेगी। अब आज जब अमित शाह भाजपा के घोषणापत्र में किसानों को एक साथ 31 सौ रूपए दाम देने की बात कहते हैं, तो दो सवाल उठते हैं कि क्या केन्द्र सरकार उस शर्त पर अड़ी रहेगी जिसके आधार पर उसने भूपेश सरकार से चावल लेना मना कर दिया था, या वह अपनी ही पार्टी के घोषणापत्र को मानने के लिए अपने नियमों या फैसलों को बदलेगी? खैर, आज धान का मुद्दा भाजपा के अधिक काम का नहीं दिख रहा है क्योंकि कांग्रेस ने घोषणापत्र के पहले ही किसान कर्जमाफी की मुनादी कर दी थी, और इस घोषणापत्र के साथ उसे दुहराया है, दूसरी तरफ कांग्रेस ने भाजपा के 31 सौ रूपए के मुकाबले 32 सौ रूपए की घोषणा की है। इन दो घोषणाओं के बाद भाजपा का धान का दाम अब कोई वजन नहीं रखता।
छत्तीसगढ़ के पिछले चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने किसान कर्जमाफी और धान का देश में अधिकतम दाम घोषित किया था। कई लोगों का मानना है कि इन्हीं दो बातों ने प्रदेश में कांग्रेस को उसकी कल्पना और उम्मीद से सवाया सीटें दिलवा दी थीं, और बरसती सीटों से कांग्रेस भवन की कांक्रीट छत भी टूट गई थी। इस चुनाव में फिर कांग्रेस ने कर्जमाफी और देश में अधिकतम धान-दाम की घोषणा की है, पिछले बरस के मुकाबले खरीदे जाने वाले धान की मात्रा भी बढ़ा दी है, और अब प्रदेश के धान के औसत उत्पादन से अधिक खरीदी का वायदा किया है। भाजपा और कांग्रेस को इनसे जो भी चुनावी फायदा होगा, उनसे परे एक दूसरी बात जो लगती है वह यह है कि अब पार्टियों को यह लगने लगा है कि अधिक किसानी वाले राज्यों में किसान ही सरकार बना और बिगाड़ सकते हैं, और यह बात हर किसी को साफ हो गई है कि अगर किसान सुखी नहीं होंगे, तो वैसी पार्टी को सत्तासुख भी नहीं मिल सकेगा। भाजपा के छत्तीसगढ़ चुनाव के पूरे घोषणापत्र में धान के 31 सौ रूपए दाम से बड़ा और कोई वायदा नहीं था, यह अलग बात है कि कांग्रेस ने किसान की सेवा करने की बोली और अधिक लगाई, और घोषणापत्र की लड़ाई में जीत चुकी है।
इस देश में किसानों को उपज के अधिक दाम देने की बात जाने कब से चली आ रही है। और भाजपा-एनडीए जब केन्द्र की सत्ता में आए, तब उसका वायदा था कि देश में स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक फसल के दाम बढ़ाए जाएंगे, जो कि तकरीबन दोगुना हो जाने चाहिए थे। लेकिन सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने यह साफ कर दिया था कि इन सिफारिशों को मानना मुमकिन नहीं है, और इनसे देश में किसी भी और काम के लिए पैसा ही नहीं बचेगा। उस दौरान रमन सिंह सरकार के मेहमान रहे उस वक्त के भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने छत्तीसगढ़ में एक अनौपचारिक चर्चा में कहा था कि स्वामीनाथन कमेटी पर अमल नामुमकिन है। लेकिन अब जिस तरह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस घोषणापत्र के पहले लाए गए अपने घोषणापत्र में भाजपा ने धान के दाम 31 सौ रूपए करने की घोषणा की थी, उससे साफ है कि अब किसान और उसकी उपज बहुत बड़ा मुद्दा बन चुके हैं।
जिस तरह बिहार से शुरू जातीय जनगणना का मुद्दा आज इंडिया-गठबंधन और खासकर कांग्रेस पार्टी के फैलाए हुए पूरे देश का एक सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बन रहा है, या बन चुका है, उसी तरह किसान को फसल के दाम का मुद्दा अब छत्तीसगढ़ से परे भी फैल सकता है, और राजनीतिक दल चुनावी मुकाबले में, और देखादेखी में एक-दूसरे की बराबरी कर सकते हैं। यह बात इस हिसाब से ठीक है कि देश में कारों के दाम, हवाई टिकटों के दाम, पेट्रोल और डीजल के दाम, जूतों और कपड़ों के दाम, इनमें से किसी पर भी ग्राहकों का काबू नहीं है, लेकिन किसान की उपज को दाम देते हुए लोगों की जान निकल जाती है। लोग खुद तरह-तरह की टैक्स-रियायतें चाहते हैं, सरकारों से मुफ्त में इलाज चाहते हैं, मुफ्त में पढ़ाई चाहते हैं, मुफ्त मकान चाहते हैं, लेकिन फसल के ठीकठाक दाम देना कोई नहीं चाहते। वे लोग भी नहीं चाहते जो खुद नई पेंशन स्कीम के बजाय पुरानी पेंशन स्कीम चाहते हैं। ऐसे लोग भी कभी प्याज के दाम पर झींकते हैं, तो कभी टमाटर के दाम पर। साल में दस-बीस दिन अगर किसानों को इन चीजों के थोड़े से दाम अधिक मिल जाते हैं, तो उस पर भी लोगों को दर्द होता है। ऐसे माहौल में आज जब छत्तीसगढ़ के पिछले और इस चुनाव से किसान देश के राजनीतिक एजेंडे के केन्द्र में आ रहा है, तो वह देश के दसियों करोड़ किसानों, और खेतिहर मजदूरों सहित ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी बात है। छत्तीसगढ़ में भाजपा भी इस दौड़ में कुछ कदम चली, और फिर पिछड़ गई। लेकिन देश भर में लोग भाजपा को भी जगह-जगह यह याद दिलाएंगे कि छत्तीसगढ़ के उसके घोषणापत्र में केन्द्र के समर्थन मूल्य से करीब डेढ़ गुना दाम का वायदा किया गया था। देश के अन्नदाता खुद भी जिंदा रह सकें, और खुदकुशी को मजबूर न हों, यह एक अच्छी बात रहेगी, और यह भी याद रखने की जरूरत है कि यह किसी किस्म की रेवड़ी नहीं है, यह पूरी तरह से देश का पेट भरने वाले इस तबके का जायज हक है।