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दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी एनसीआर में दीपावली के बाद से प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है। अभी उत्तर भारत में कड़ाके की ठंड शुरु भी नहीं हुई है, लेकिन आसमान में धुंध छाई रहती है, जो असल में प्रदूषण की मोटी चादर है। दिल्ली और उसके आसपास के लोगों के लिए सांस लेना भी दूभर हो चुका है। फेफड़ों को धूम्रपान से जिस तरह का नुकसान पहुंचता है, लगभग वैसा ही नुकसान इस वक्त राष्ट्रीय राजधानी में रहने वालों का हो गया है।

अगर ऐसा आलम पहली बार होता तब सरकारों की निष्क्रियता या किंकर्तव्यविमूढ़ता समझ में आ सकती थी। मगर साल दर साल दिल्ली का ऐसा ही हाल बना हुआ है, क्योंकि राजनैतिक दलों में और सरकारों में प्रदूषण की गंभीर समस्या पर चर्चा की इच्छाशक्ति ही नजर नहीं आती है। चुनावों के घोषणापत्रों में अलग-अलग वर्गों के मतदाताओं को लुभाने वाले तमाम मुद्दे मिल जाएंगे।

धर्म से लेकर व्यापार तक सभी पर राजनैतिक दलों का जोर रहेगा, लेकिन अभी की सरकारों को प्रदूषण या पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे से मानो कोई लेना-देना ही नहीं है। ऐसा लगता है मानो देश के ताकतवर लोग यानी वीआईपी किसी और ग्रह में जाकर अपने लिए प्राणवायु का इंतजाम कर चुके हैं। जिस तेजी से विज्ञान तरक्की कर रहा है, उसमें ये संभव भी है कि इंसान किसी दूसरे ग्रह पर जाकर बसेगा। लेकिन वो इंसान दुनिया के मुठ्ठी भर पैसे वाले लोग ही होंगे, आम आदमी को तो इसी धरती पर सांस लेना है और यहीं दम तोड़ना है। मगर अभी दिल्ली में हालात ऐसे बने हुए हैं कि न सांस ली जा रही है, न पूरी तरह से दम निकल रहा है। इस स्थिति के लिए एक शब्द उपयुक्त लगता है दमघोंटू माहौल।

फिलहाल दिल्ली के लोग इसी माहौल में घुट-घुट कर जी रहे हैं। और यहां जिन दो सरकारों का बोलबाला है, यानी दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार और केंद्र की एनडीए सरकार, उन दोनों के मुखिया इस वक्त हिमाचल प्रदेश और गुजरात के चुनावों में ध्यान लगाए हुए हैं, और बार-बार इन राज्यों के दौरे कर रहे हैं। जब वे दिल्ली में होते हैं, तब भी उनके दफ्तर का वातानुकूलित माहौल उन्हें घुटन का वैसा अहसास नहीं कराता होगा, जैसा इस वक्त सड़क पर निकलने को मजबूर लोगों को होता है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पिछले साल तक दिल्ली में हो रहे प्रदूषण के लिए पंजाब पर दोष डालते थे कि वहां के किसान पराली जलाते हैं, इस वजह से दिल्ली की हवा खराब होती है। मगर अब पंजाब में भी आम आदमी पार्टी की सरकार है और पराली का प्रदूषण अब भी जारी है। तो ऐसे मंत्री श्री केजरीवाल का तर्क है कि प्रदूषण केवल दिल्ली या पंजाब की समस्या नहीं है।

बिहार से लेकर राजस्थान तक प्रदूषण की स्थिति बेहद खराब है। वहीं पंजाब में पराली जलाने पर रोक में नाकामी को लेकर उनका तर्क है कि हमारी सरकार को पंजाब में 6 महीने हुए हैं, जो बहुत कम है। मान लिया कि छह महीने का वक्त किसी बड़े काम को करने के लिए कम है, मगर श्री केजरीवाल यह पहले से जानते थे कि स्वच्छ हवा की राह में पराली का जलना एक बड़ी अड़चन है, तो इसका समाधान ढूंढने की कोशिश उन्होंने पहले से क्यों नहीं की, ताकि सत्ता में आने का मौका मिलते ही वे उस पर अमल कर पाते।

जाहिर है उनकी प्राथमिकता अपने विरोधियों की आलोचना और हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ावा देने की है। इसके साथ ही दूसरे राज्यों में अपनी सरकार बनाने का लक्ष्य है। यही स्थिति भाजपा की है, जो बार-बार अपने मजबूत प्रशासन और त्वरित निर्णय क्षमता का दंभ भरती है। जब अपने बहुमत का फायदा उठाकर संसद में भाजपा कई तरह के विधेयक पारित करवा सकती है, जब रातों-रात जम्मू-कश्मीर की भू-राजनैतिक स्थिति बदल सकती है, जब नोटबंदी और लॉकडाउन के फैसले चंद घंटों की मोहलत देकर देश पर थोप सकती है, तो फिर इसी ताकत का इस्तेमाल प्रदूषण को रोकने के लिए क्यों नहीं किया जाता। आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है, या किन्हीं शक्तियों का दबाव है कि दिल्ली की हवा को स्वच्छ होने से रोका जा रहा है।

क्या इसके पीछे कोई व्यापारिक षड्यंत्र है, जिससे प्रदूषण की मार से आम आदमी बीमार हो और इसका फायदा दवा कारोबारियों, अस्पतालों को हो। गौर कीजिए कि शरीर में कम होती प्रतिरोधक क्षमता का डर दिखाकर किस तरह च्यवनप्राश आदि की बिक्री बढ़ जाती है। हवा को स्वच्छ करने वाले पौधे दोगुनी-तिगुनी कीमतों पर दवा दुकानों में मिलने लगते हैं। मास्क की बिक्री बढ़ जाती है। जो संपन्न लोग होते हैं, वे घरों में वायु शुद्धता उपकरण यानी एयर प्यूरीफायर खरीद कर रख लेते हैं और अब तो आक्सीजन भी बिकने की चीज हो चुकी है।

जब तीन-साढ़े दशक पहले बोतलबंद पानी बहुतायत में बिकने लगा था या घरों में लोग पानी के फिल्टर लगाने लगे थे, तो उस समय अक्सर बातचीत में कहा जाता था कि क्या जमाना आ गया है, अब पानी भी बिकने लगा है। तब ये कल्पना कम ही लोगों ने की होगी कि ऐसा वक्त भी आएगा जब स्वच्छ हवा के लिए भी आम आदमी को तरसना पड़ेगा और जो शक्तिशाली रहेगा वो अपने लिए उसका भी इंतजाम करके रहेगा। प्रदूषण को राजनीति का विषय बनाकर इस कल्पना को भी सच कर दिया गया है।

फिलहाल दिल्ली में सांस की तकलीफ से गुजरते मरीजों की संख्या 25 प्रतिशत तक बढ़ गई है। सरकार ने हालात की गंभीरता को देखते हुए डीजल गाड़ियों पर रोक लगाई है, दिल्ली के प्राथमिक स्कूल बंद कर दिए गए हैं और बहुत से दफ्तरों में घर से काम की व्यवस्था फिर से शुरु कर दी गई है।

सरकार फिर से सम-विषम की व्यवस्था पर विचार कर रही है। कई तरह के निर्माण कार्य भी बंद हो गए हैं। इन सब प्रतिबंधों से कुछ लोगों को आराम मिल सकता है, लेकिन बड़ी आबादी के रोजगार पर संकट आ सकता है। वैसे भी इन फौरी उपायों से दो-चार दिन की राहत से अधिक कुछ हासिल नहीं होगा। वातावरण में जो जहर घुला हुआ है, उसे दूर करने के लिए राजनैतिक लाभ-हानि से ऊपर उठकर कड़े फैसले लेने होंगे। मगर अभी भाजपा और आप दोनों की प्राथमिकता विधानसभा चुनाव हैं।

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