-सुनील कुमार।।
सार्वजनिक जगहों पर राजनीतिक चेतना की आंदोलनकारी कलाकृतियां बनाने के लिए बैंक्सी के छद्मनाम से काम करने वाले इंग्लैंड में बसे एक कलाकार की कलाकृतियां अभी रूसी हमले में तबाह यूक्रेन के ताजा खंडहरों पर दिखाई पड़ी, और इन्हें देखकर ही यह अंदाज लगा कि बैंक्सी यहां आकर गया है। यह फुटपाथी कलाकार एक फक्कड़ मिजाज लगता है, लेकिन इसकी कुछ कलाकृतियां करोड़ों में बिकती हैं। और ऐसा कलाकार राजनीतिक चेतना की पेंटिंग्स सार्वजनिक दीवारों पर मुफ्त में, अपनी सामाजिक जिम्मेदारी मानकर बनाते चलता है। उसकी शिनाख्त उजागर नहीं हुई है, और कुछ लोग रॉबिन गनिंगहैम नाम के एक आदमी को बैंक्सी मानते हैं। यह रहस्य उसकी चर्चित कलाकृतियों को और अधिक खबरों में लाता है। उसने दुनिया भर के युद्ध के खिलाफ, रंगभेद और नस्लभेद के खिलाफ, पूंजीवाद के खिलाफ, मानवाधिकार के हक में अंतहीन काम किया है, और उसकी कुछ सहज और सरल वॉलपेंटिंग्स दुनिया भर में करोड़ों-अरबों बार पोस्ट हो चुकी हैं, वे राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों का पोस्टर बन चुकी हैं। अभी बैंक्सी ने अपने इंस्टाग्राम पेज पर यूक्रेन की तबाह दीवारों पर कई पेंटिंग्स बनाई, और यूक्रेन के हालात को एक बार फिर चर्चा में ला खड़ा किया। उसकी बनाई एक पेंटिंग में एक बच्चा जूडो-कराते के कपड़े पहने हुए एक बड़े आदमी को पटकते हुए दिख रहा है, जो कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन की ऐसे कपड़ों में अक्सर दिखने वाली तस्वीरों से मिलता-जुलता दिख रहा है।
खैर, एक कलाकार की इस राजनीतिक चेतना की चर्चा महज उसके संदर्भ में करने का हमारा कोई इरादा नहीं है, बल्कि एक कलाकार की ऐसी जागरूकता के बारे में बात करने का है। राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक बेइंसाफी तो दुनिया की अधिकतर जगहों पर भरी हुई है। हिन्दुस्तान में इसके साथ-साथ धार्मिक बेइंसाफी और जुड़ जाती है। आज ही सुबह की एक खबर है कि सोमालिया ऐसी भयानक भुखमरी का शिकार है कि अगले एक-दो बरस में वहां पांच लाख से अधिक बच्चों के भूख से मर जाने की आशंका है। दुनिया के अलग-अलग देशों में पूंजीवाद की हिंसा गरीबों का जीना मुश्किल कर रही है, खाने से लेकर दवाई तक के कारोबार में पूंजीवाद गरीब जिंदगियों को खत्म कर रहा है, और खुद दानवाकार हो रहा है। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था कमजोर तबकों की पहुंच के बाहर है, कमजोर और उपेक्षित धर्म और जातियों के लोग सामाजिक जिंदगी के हाशिये पर धकेल दिए गए हैं, लेकिन हिन्दुस्तान की दीवारें गुप्तरोग के इश्तहारों से पटी हुई हैं। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र को जो खुला रोग हो चुका है, उसके इलाज के कोई इश्तहार मुफ्त की दीवारों पर नहीं हैं। ऐसे में लगता है कि थोड़ा सा रंग और एक मामूली कूंची लेकर बेइंसाफी के खिलाफ दीवारों जो प्रतिरोध दर्ज कराया जा सकता है, उससे भी हिन्दुस्तानी कलाकार अनजान हैं, या फिर बेपरवाह हैं। बंगाल में जरूर एक वक्त राजनीतिक चेतना की वॉलग्राफिती, या स्ट्रीटऑर्ट का नजारा होता था, लेकिन वामपंथियों के सूर्यास्त के बाद अब वह सिलसिला भी शायद कमजोर हो गया है, या बंद हो गया है। फिर भी बंगाल के बारे में इतना तो कहना ही होगा कि वहां साल के सबसे बड़े त्यौहार दुर्गापूजा के पंडालों में पूरी दुनिया के राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर राजनीतिक बयान वाली सोच दिखाई पड़ती है। एक से बढक़र एक मिसालें जागरूकता को स्थापित करती हैं। लेकिन बाकी का हिन्दुस्तान इस जागरूकता के पैमाने पर कहां पहुंचता है, इसे हर प्रदेश और समाज के लोगों को सोचना चाहिए।
जो कलाकृतियां कलादीर्घाओं और संग्रहालयों की शोभा बढ़ाती हैं, या कि जो करोड़पति-अरबपति, तथाकथित कलारसिकों के निजी संग्रह में उनके हरम की सुंदरी की तरह कैद रहती हैं, क्या उन्हें सचमुच ही कोई कला कहा जाना चाहिए, या फिर वह दुनिया के कला-कारोबार की एक करेंसी भर है? यह भी समझने की जरूरत है कि अपने आपको कलाकार, साहित्यकार, रचनाकार कहने वाले लोगों का अगर असल जिंदगी के जलते-सुलगते मुद्दों से कोई लेना-देना नहीं है, तो फिर उनका जिंदा रहना भी क्या कोई जिंदा रहना है, उनका काम करना तो न करने से भी गया-बीता है। उन आम लोगों को तो कोई तोहमत नहीं दी जा सकती जिन्हें कोई कलाकृति बनाना नहीं आता। लेकिन जिन्हें आता है, उन पर तो सामाजिक जागरूकता की मिसाल पेश करने की जवाबदेही भी आती है। एक किसान या मजदूर अगर लिखना नहीं जानते, तो संघर्ष के कोई गाने लिखने की जिम्मेदारी उन पर नहीं आती है। लेकिन राजाओं की चाटुकारिता के ग्रंथ लिखने वाले लोगों को तो लिखना आता है, और जब उनके पास सामाजिक इंसाफ की हिमायत में लिखने को कुछ नहीं रहता, तो उनकी सरोकारविहीनता सिर चढक़र बोलती है।
बैंक्सी की यह मिसाल यह सोचने पर मजबूर करती है कि दीवारों पर बहुत मामूली रंगों से, बहुत मामूली कलाकारी से बनाई गई कोई तस्वीर महान इसलिए भी हो जाती है कि वह लगातार राजनीतिक चेतना का झंडा फहराने वाले कलाकार की बनाई हुई एक और राजनीतिक चेतनासंपन्न कलाकृति है। महज नाम ही काफी नहीं है, काम भी जागरूकता का होना जरूरी है। दूसरे देशों के लोगों को अपने-अपने चर्चित कलाकारों, लेखकों, और मूर्तिकारों को देखना चाहिए कि आज समाज की जलती-सुलगती हकीकत, और भूख की भभकती जरूरत के लिए उनकी कला, उनकी रचना में क्या है? अगर वे महज शास्त्रीय रागों में महज कृष्ण, बादलों, और सुंदरियों से प्रेम ही गाते हैं, तो वे मजदूर गीतों को रचने और अपनी खुरदुरी आवाज में गाने वाले लोगों के पांवों की धूल भी नहीं है। वे महज राज्याश्रय में पलने वाले तथाकथित कलाकार हैं, जिनकी तमाम शास्त्रीयता ऐसे कुलीन पैमानों पर गढ़ी, और उनसे बंधी रहती है, कि वह आम लोगों की पहुंच से उसी तरह दूर रहे, जिस तरह शूद्रों के कानों से शास्त्रों के शब्दों को दूर रखा जाता था। राजा और सत्ता के हरम की सुंदरियों की तरह की शास्त्रीय कलाएं जनता के पैसों पर अपना रूप-रंग निखारती हैं, और जनता की जिंदगी से अपने को अनछुआ भी रखती हैं। यूक्रेन की दीवारों पर बनी इन ताजा पेंटिंग्स से दुनिया भर में कला और कलाकारों की सामाजिक जवाबदेही के नए पैमानों पर चर्चा होनी चाहिए, और सरोकार से मुक्त कलाओं का धिक्कार भी होना चाहिए।