वीर योद्धा लचित बोरफुकन की 4 सौवीं जयंती को भाजपा सरकार दिल्ली से लेकर असम तक जोर-शोर से मना रही है। राष्ट्रीय अखबारों में इस अवसर पर बड़े-बड़े विज्ञापन दिए गए। प्रधानमंत्री ने ट्वीट के जरिए लचित दिवस की बधाई दी और 25 नवंबर को प्रधानमंत्री लचित बोरफुकन को श्रद्धांजलि देते हुए एक पुस्तक राष्ट्र को समर्पित करने वाले हैं।
इतिहास के नायकों का यह महिमामंडन अच्छी बात है, क्योंकि इससे आज की पीढ़ी को न केवल अपनी विरासत की जानकारी मिलती है, बल्कि व्यक्तित्व विकास के लिए प्रेरणा भी मिलती है। लेकिन लचित बोरफुकन के नायकत्व को जिस तरह भाजपा हिंदुत्व के आवरण में लपेटने की कोशिश कर रही है, उस पर अब कई इतिहासकारों ने आपत्ति जतलाई है।
इतिहास का पुनर्पाठ जरूरी होता है, क्योंकि उससे हम वर्तमान और भविष्य के लिए सबक ले सकते हैं। लेकिन राजनैतिक मकसद से इतिहास का पुनर्लेखन सही नहीं है। भाजपा कई बार ये आरोप लगा चुकी है कि देश की पाठ्य पुस्तकों में जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह वामपंथी नजरिए से प्रेरित है या अंग्रेजों का लिखा हुआ है। लेकिन भाजपा खुद जिस तरह का इतिहास प्रस्तुत करती है, उसमें साफ तौर पर अंध और उग्र राष्ट्रवाद के साथ-साथ हिंदुत्व का परचम लहराने के लिए तथ्यों की गलतबयानी बिना किसी झिझक के होती है। कुछ समय पहले ही एक उदाहरण पेश हुआ था जिसमें वी डी सावरकर को बुलबुल के पंखों पर मातृभूमि की सैर करते बताया गया था।
भाजपा के इतिहास लेखन में देश के पहले प्रधानमंत्री पं.नेहरू को भी गलत बताने की सायास कोशिश दिखती है। ताजा मिसाल संरा सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सीट के सवाल को लेकर है, जिसके बारे में भाजपा का आरोप है कि पं.नेहरू ने इस सीट को इसलिए ठुकरा दिया, क्योंकि वे चीन से संबंध खराब नहीं करना चाहते थे।
जबकि इस बारे में 27 सितंबर 1955 को लोकसभा में डा. जे.एन. पारेख के सवाल का जवाब देते हुए पं.नेहरू ने साफ कहा था कि इस तरह का कोई प्रस्ताव औपचारिक या अनौपचारिक तौर पर नहीं आया है। प्रेस में तथ्यहीन संदर्भों के हवाले से यह बात उठाई गई है। सुरक्षा परिषद का गठन संरा के चार्टर के मुताबिक हुआ है, जिसमें कुछ खास देशों को स्थायी सीट दी गई है। इस चार्टर में संशोधन के बिना कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। इसलिए भारत को सीट मिलने और इंकार करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। देश के प्रधानमंत्री का यह जवाब संसद के दस्तावेज में दर्ज है, लेकिन इसे नजरंदाज कर, कुछ प्रभावशाली लोग मीडिया के इस्तेमाल से गलतबयानी कर रहे हैं। यह अपने इतिहास ही नहीं, जनता के साथ भी छल है। क्योंकि उससे सच छिपाया जा रहा है।
यही छलावा तब भी दिखाई देता है, जब मुगल शासकों को उन विदेशी आक्रांताओं के समकक्ष खड़ा किया जाता है, जिन्होंने हिंदुस्तान पर आक्रमण केवल दौलत लूटने के उद्देश्य से किया। जबकि मुगल दौलत लूटकर कहीं भागे नहीं, बल्कि यहां उसी तरह उनकी सल्तनत कायम हुई, जैसे अनेक राजवंशों की रही। मुगलकाल की स्थापत्य कला से लेकर खानपान, नृत्य, संगीत, साहित्य, वस्त्राभूषण, शासन व्यवस्था की धरोहर भारतीय इतिहास और संस्कृति को समृद्ध बनाती है। लेकिन राजनैतिक स्वार्थ में इस खजाने के लुटने का खतरा है।
इतिहास के पन्ने ऐसी कई गाथाओं से भरे पड़े हैं, जब राजवंशों में अपने राज्य के विस्तार और प्रभाव के लिए आपसी लड़ाइयां होती थीं। राजाओं की सेना में धर्म के आधार पर नहीं, योग्यता और वफादारी के आधार पर सैनिक और अधिकारी नियुक्त होते थे। ऐसी ही एक लड़ाई मुगल बादशाह औरंगजेब और अहोम साम्राज्य के बीच हुई, जिसे 1671 के सराईघाट के युद्ध के तौर पर जाना जाता है। इस युद्ध में अहोम सेनापति लचित बोरफुकन ने मुगल सेनापति राजा राम सिंह कछवाहा को मात दी, जो आमेर के राजपूत थे।
औरंगजेब की सेना में कई हिंदू सैनिक थे और इनका मकसद मुगल साम्राज्य की जद में अहोम साम्राज्य को शामिल करना था। जबकि अहोम सेना में इस्माइल सिद्दीक नाम के नौसेना अधिकारी थे, जिन्हें बाग हजारिका के नाम से जाना जाता है। लचित बोरफुकन ने अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए वीरता से युद्ध किया, इसके पीछे कोई धार्मिक कारण नहीं था। लेकिन अब 4 सौ साल बाद लचित बोरफुकन को हिंदुत्व के रक्षक के तौर पर दिखाने की कोशिश हो रही है।
असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वासरमा ने कहा कि अहोम सेनापति को वो सम्मान देश में नहीं मिला, जो छत्रपति शिवाजी को मिला। और ये उत्सव उन्हें सही सम्मान का अधिकार देने के लिए हैं। लचित बोरफुकन को पूर्वोत्तर का शिवाजी भी कुछ अखबारों ने लिखा है। जो पूर्वोत्तर के लिए हमारे अलग नजरिए की परिचायक है। छत्रपति शिवाजी और लचित बोरफुकन दोनों में ये समानताएं तो ढूंढी जा सकती हैं कि दोनों ही वीर थे और दोनों ने औरंगजेब की सेना से मोर्चा लिया। लेकिन इससे अधिक दोनों में साम्यता ढूंढने का न कोई अर्थ है, न औचित्य, क्योंकि दोनों अपनी तरह के महान योद्धा हैं।
लचित बोरफुकन ताई क्षेत्र से आते थे और उनकी सेना में कई आदिवासी सैनिक थे। इसलिए अहोम की सेना को हिंदूवादी सेना नहीं कहा जा सकता। वैसे भी लचित बोरफुकन असम के लोगों के लिए वीरता और अस्मिता का प्रतीक हैं। 80 के दशक में जब असम में प्रवासियों के खिलाफ आंदोलन शुरु हुए, तो इसमें स्थानीय हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लिए लचित बोरफुकन एक नायक की तरह आदर्श बने, जिन्होंने खुद बाहरी लोगों से लड़ाई लड़ी थी। 1999 से राष्ट्रीय रक्षा अकादमी, एनडीए में हर वर्ष लचित बोरफुकन स्वर्ण पदक सर्वश्रेष्ठ कैडेट को देती है। उन्होंने जिस तरह युद्ध में नौसेना का इस्तेमाल किया, वह भी एक मिसाल है। लेकिन अब भाजपा लचित बोरफुकन को केवल एक हिंदू योद्धा के तौर पर प्रस्तुत कर रही है, जो गलत है।