-राजेश ज्वेल॥
जो चर्चा हर ठिये, पान या चाय की दुकान पर खुलेआम होती है उस पर अगर सुप्रीम कोर्ट ने पूछताछ शुरू कर दी तो गलत क्या है..? बीते कुछ वर्षों में चुनाव आयोग की भूमिका हिज मास्टर्स ऑफ वॉइज हो गई और वो केन्द्र के इशारे पर काम करता है… इसके एक नहीं अनेकों उदाहरण हैं…
जब चुनाव तिथियों की घोषणा से लेकर सत्ता पक्ष और खासकर प्रधानमंत्री के दौरों-घोषणाओं के मद्देनजर आयोग ने अपने निर्णय बदले… इसमें कोई शक नहीं कि पूरा देश टीएन शेषन को इसलिए जानता है क्योंकि उन्होंने पहली बार चुनाव आयोग की शक्तियों से देश को रूबरू कराया और स्वच्छ मतदान के चलते लोकतंत्र को मजबूती दी…
वरना उसके पहले बूथ कैप्चरिंग सहित तमाम घटनाएं चुनावों में आम बात थी… भाजपा अगर पारदर्शिता, स्वच्छता और ईमानदारी के ढोल पीटती है तो उसे संवैधानिक संस्थाओं को पूरी छूट देना चाहिए, न कि उन्हें बंधक बना लिया जाए… बीते वर्षों में लगभग सभी संवैधानिक संस्थाओं को खत्म करने का खेल किया गया… हालांकि कांग्रेस भी दूध की धुली नहीं है, उसने भी सीबीआई, आयोग, इनकम टैक्स से लेकर अन्य एजेंसियों का इस्तेमाल विरोधियों का निपटाने में किया…
मगर अभी ईडी से लेकर अन्य एजेंसियों की एकतरफा कार्यवाही अति की श्रेणी में आ गई है.. ये मंजर पहले कभी नहीं रहा.. सुप्रीम कोर्ट को सलाम कि उसने पूर्व नौकरशाह अरुण गोयल की ताबड़तोड़ की गई चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर सवाल खड़े किए और फाइल भी तलब की… मगर ऐसा न हो कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ डांट-फटकार तक ही सीमित रहे… बल्कि अब संविधान पीठ चुनाव आयोग में होने वाली नियुक्तियों के संबंध में स्पष्ट आदेश जारी करे और ऐसा फैसला लिखे जो नजीर बने…
भारत जैसे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में पारदर्शिता के साथ ही चुनाव होना चाहिए और कोई भी दल हो, उसे किसी तरह की छूट नहीं मिलना चाहिए… चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के संबंध में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब जानने की उत्सुकता देश के मतदाताओं में भी है, क्योंकि टीएन शेषण वाला चुनाव आयोग फिलहाल कठपुतली और पिंजरे के तोते की भूमिका में आ गया है … लिहाजा इंतजार रहेगा सुरक्षित रखे गए सुप्रीम कोर्ट फैसले का…!