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अगस्त 2021 में अफगानिस्तान पर फिर से तालिबान ने कब्जा जमा लिया था, तो यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि वहां प्रगतिशील और उदार समाज की बची-खुची गुंजाइश भी खत्म हो जाएगी। और यह कड़वा सच एक महीने के भीतर ही दिखने लगा था। महिलाओं पर कई तरह की पाबंदियां लगना शुरू हो गई थीं। तालिबान ने महिलाओं के विदेशी कपड़े पहनने, पुरुषों के साथ दफ्तर में कामकाज करने, कॉलेज में लड़के-लड़कियों के साथ पढ़ने पर पाबंदियां लगाईं। महिलाओं को पार्क, जिम और सार्वजनिक स्नानागार में जाने से भी रोक दिया गया है। लड़कियों के लिए माध्यमिक विद्यालय एक साल से अधिक समय से बंद हैं। इस हफ्ते ही तालिबान ने एनजीओ की महिला कर्मचारियों को भी काम पर आने से रोकने का आदेश दिया। यानी तालिबान हर वो कदम उठा रहा है, जिससे महिलाओं का सार्वजनिक जीवन बाधित हो जाए। जबकि दुनिया के सामने अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में तालिबान ने सरकार में महिलाओं को जगह देने की बात कही थी।

सत्ता के डेढ़ साल बीतते न बीतते तालिबान के महिलाविरोधी चेहरे का सच पूरी तरह सामने आ गया। इस 20 दिसंबर को तालिबानी ने एक और फरमान जारी किया कि देश में अब लड़कियां उच्च शिक्षा की क्लास में यूनिवर्सिटी, कॉलेज में नहीं जा सकतीं। जाहिर है तालिबान इस्लाम की आड़ में मध्ययुगीन बर्बरता को 21वीं सदी में थोप रहा है। जबकि कोई भी धर्म इंसान को उसकी गरिमा से वंचित करने की पैरवी नहीं करता। गनीमत ये है कि तालिबान की इस कट्टरता के खिलाफ खड़े होने का साहस अब अफगानिस्तान की लड़कियां ही कर रही हैं और ये देखकर सुकून मिल रहा है कि वहां के बहुत से पुरुष लड़कियों की इंसाफ की लड़ाई में उनका साथ दे रहे हैं।

तालिबान के अन्यायपूर्ण फैसले की मुखालफत में अगले ही दिन अफगानी लड़कियों ने विरोध करना शुरु कर दिया। कालेज और यूनिवर्सिटी में पढ़ने के अधिकार की बात करते हुए अफगानी लड़कियां सड़कों पर उतरीं, तो 22 दिसंबर को अफगानी छात्रों ने उनके साथ एकजुटता दिखाने के लिए परीक्षाओं का बहिष्कार कर दिया। इसी तरह एक प्रोफेसर ने टीवी पर चर्चा के दौरान ये कहते हुए अपने डिप्लोमा फाड़ दिए कि- आज से मुझे इन डिप्लोमा की जरूरत नहीं है क्योंकि इस देश में शिक्षा के लिए कोई जगह नहीं है। अगर मेरी बहन और मेरी मां पढ़ नहीं सकती हैं, तो मैं इस शिक्षा को स्वीकार नहीं करता।

जिस तरह का साहस ईरान की महिलाएं हिजाब थोपने के विरोध में दिखा रही हैं, कुछ वही जज्बा अफगानिस्तान में देखने मिल रहा है। एक 18-19 बरस की लड़की मारवा का वीडियो पिछले दिनों सोशल मीडिया पर देखा गया, जिसमें वह अकेली ही पढ़ाई के अपने हक को लेकर तालिबानी सैनिकों के सामने डटकर खड़ी है। पिछले रविवार जब पूरी दुनिया क्रिसमस की खुशियां मना रही थीं, तब काबुल यूनिवर्सिटी के पास मारवा एक पोस्टर लेकर खड़ी हो गई, जिस पर लिखा था- इकरा यानी पढ़ो।

मारवा की बहन ने इस दौरान उसका वीडियो बनाया, जिसे अब पूरी दुनिया देख रही है। मारवा को यूनिवर्सिटी में तैनात गार्डों ने ताने दिए, बहुत बुरी तरह झिड़का लेकिन मारवा शांतिपूर्वक खड़ी रही और उन्हें कोई जवाब नहीं दिया। मारवा ने कहा कि मैं एक अकेली अफगान लड़की की ताकत उन्हें दिखाना चाहती थी। यह बताना चाह रही थी कि एक अकेला शख्स भी उत्पीड़न के खिलाफ खड़ा हो सकता है। जब मेरी अन्य बहनें देखेंगी कि एक अकेली लड़की तालिबान के खिलाफ खड़ी हो गई है, तो इससे उन्हें तालिबान को हराने में और मदद मिलेगी। इससे पहले 24 दिसंबर को भी कुछ छात्राओं ने तालिबान के फैसले का विरोध करते हुए प्रदर्शन किया था लेकिन पुलिस ने उन पर पानी की बौछार कर उन्हें तितर-बितर कर दिया।

तालिबान के पास सैन्य और सत्ता दोनों तरह की शक्तियां हैं, लेकिन जो लड़कियों के आगे बढ़ने और पढ़ने से खौफजदा हो, वह भीतर से कितना कमजोर होगा, ये समझना कठिन नहीं है। कमजोरी और डर का यह सिद्धांत केवल तालिबान ही नहीं हर तरह के कट्टरपंथियों पर लागू होता है। धर्म के नाम पर उन्माद और कट्टरता फैला कर हुकूमत की चाह रखने वाले दरअसल हर तरह की प्रगतिशीलता से घबराते हैं। वे डरते हैं कि समाज के जिन तबकों को सदियों तक हाशिए पर रखा गया, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित किया गया, अगर वो तबका शिक्षा की शक्ति हासिल करेगा, तो फिर अपने लिए बराबरी और सम्मान की मांग करेगा और तब डर की नींव पर खड़ी सत्ता कमजोर पड़ जाएगी।

अफगानिस्तान में लड़कियों का यह विरोध किस मुकाम पर पहुंचता है और लड़कियों के अधिकारों, शिक्षा के अधिकारों को लेकर काम करने वाली तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं इस मुद्दे पर अफगान लड़कियों के साथ किस तरह खड़ी होती हैं, ये देखना होगा। इधर अपने देश भारत में भी कट्टरता बढ़ती दिख रही है। वैसे तो भारत में लोकतंत्र की जड़ें काफी गहरी हैं और इसलिए यहां व्यापक समाज को उस तरह खतरा नजर नहीं आता। लेकिन कट्टरता का मठा लोकतंत्र की जड़ों पर उड़ेलने की शुरुआत हो ही चुकी है।

आज से पचास बरस बाद भी हमारी लोकतांत्रिक, संवैधानिक जड़ें मजबूत रहें, यह सुनिश्चित करने के लिए आज कट्टरता की छोटी से छोटी घटना का विरोध करते हुए उसे रोकना होगा। वैसे तमाम विपरीत हालात के बीच एक अच्छी खबर आई है कि उप्र के छोटे से गांव जसोवर की सानिया मिर्जा नाम की लड़की देश की पहली मुस्लिम महिला फाइटर पायलट बनने के लिए चुन ली गई हैं। देश की पहली महिला फाइटर पायलट अवनि चतुर्वेदी हैं। सानिया की यह उपलब्धि उन तमाम लोगों के लिए मिसाल है, जो किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति को अपने अनुकूल बना लेना चाहते हैं।
दुनिया को मारवा और सानिया जैसे लोगों की जरूरत है, कट्टरता की नहीं।

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