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सोमवार 6 फरवरी को तुर्की और सीरिया, दोनों देश भूकंप के भारी झटकों से बुरी तरह प्रभावित हुए। भूकंप के बार-बार आए झटकों से भारी तबाही हुई है। दोनों देशों में मौतों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। कहीं 8 हजार लोगों के मरने की खबर आई है, कहीं 9 हजार। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की आशंका है कि मरने वालों की संख्या 20 हजार तक जा सकती है। कम से कम 20 लाख लोग इस प्राकृतिक हादसे का शिकार हुए हैं। दोनों देशों में इमारतें रेत की तरह भरभराकर गिरी हुई हैं, जिनके मलबे में न जाने कितने मासूम लोग दबे हुए बचाए जाने की आस में पल-पल मौत का सामना कर रहे हैं। बर्बादी के इस मंजर में कुछ हैरानी भरी तस्वीरें भी सामने आई हैं। जैसे एक नवजात बच्चा अपनी मां की गर्भनाल से जुड़ा रहा, वो बच गया, लेकिन उसका पूरा परिवार मारा गया। कहीं 20-30 घंटे दबे रहने के बाद भी लोगों को बचाया गया, कहीं लोग मदद का इंतजार करते हुए दम तोड़ गए। अपनों को बचाने के लिए लोग बदहवास से इधर-उधर भटक रहे हैं। बढ़ती ठंड तकलीफों को और अधिक बढ़ा रही है। जान-माल के भारी नुकसान के अलावा कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक इमारतें जमींदोज़ हो गई हैं। कुदरत की ये तबाही इंसानी सभ्यता के आगे चुनौती पेश करती नजर आती है कि मुश्किल की इन घड़ियों में वह किस सूझबूझ से नुकसान को कम कर सकता है। प्राकृतिक आपदाएं एक तरह से मानव विकास गाथा के लिए चेतावनी भी है कि प्रकृति की ताकत को कमजोर कर आंकने की जुर्रत वह न करे।
तुर्की और सीरिया दोनों देशों में मदद के लिए दुनिया भर से हाथ बढ़ रहे हैं। अमेरिका, चीन, ईरान, इराक, यूरोपीय संघ, भारत समेत दर्जनों देशों ने बचाव और राहत सामग्री भूकंप प्रभावित इलाकों में भेजी है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने जानकारी दी कि देश ने एनडीआरएफ की टीम मेडिकल सप्लाई, डॉग स्क्वॉड, ड्रिल मशीन और कई ज़रूरी उपकरणों के साथ तुर्की भेजी है। निश्चित ही यह भारत सरकार का सराहनीय कदम है और आपदा प्रभावित देशों की मदद की प्रचलित नीति का पालन भी। इससे पहले नेपाल में आए विनाशकारी भूकंप के बाद भी भारत की ओर से तत्काल मदद पहुंची थी। भारत खुद भी भूकंप से तबाही का पीड़ित रह चुका है। 26 जनवरी 2001 को गुजरात के भुज में आए भूकंप ने ऐसी ही विनाशलीला दिखाई थी। उस वक्त 30 हजार से अधिक लोगों की जान चली गई थी, जबकि डेढ़ लाख से अधिक प्रभावित हुए थे। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तब गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। इसलिए मंगलवार को संसदीय दल की बैठक में श्री मोदी ने स्वाभाविक ही उस दर्दनाक हादसे का जिक्र किया और कहा कि मुझे एहसास है कि इस वक्त तुर्की में क्या हालत है और वहां के लोग किन मुश्किलों से गुजर रहे हैं।
देश के प्रधानमंत्री पीड़ितों के लिए चिंता व्यक्त कर रहे हैं और केंद्र सरकार हरसंभव मदद भेज रही है। लेकिन मौके की नजाकत को समझे बिना तुर्की और भारत के संबंधों पर कुछ टिप्पणियां सामने आई हैं, जो संवेदनहीनता को दिखाती हैं। जैसे एक चैनल ने सवाल उठाया है कि कब आएगी अक्ल। इसमें बताया गया है कि तुर्की ने तो हर बार पाकिस्तान का साथ दिया, लेकिन उस पर मुसीबत आई, तो भारत ही मददगार बना है, पाकिस्तान नहीं। चैनल ने ये भी याद दिलाया है कि भारत को तुर्की ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर हमेशा धोखा दिया है। हाल ही में तुर्की ने अपनी संसद में कश्मीर पर एक कमेटी बनाकर भारत के खिलाफ कदम उठाया था। मीडिया में कुछ और खबरें इसी तरह की प्रसारित हुई हैं, जिनमें तुर्की और भारत के संबंधों की याद दिलाते हुए एहसान की तरह ये बताया गया है कि भारत तुर्की की मदद कर रहा है। ऐसा लगता है कि कुछ पत्रकारों को अंतरराष्ट्रीय कूटनीति, शिष्टाचार और नैतिकता का पाठ पढ़ने की जरूरत है।
ये सही है कि भारत और तुर्की के संबंध अभी प्रगाढ़ नहीं हैं। बल्कि राष्ट्रपति रेचप तैयब एर्दोगान ने जिस तरह पिछले साल सितंबर में संरा में कश्मीर मुद्दा उठाया था, उससे संबंधों में थोड़ी तल्खी आ गई थी। एर्दोगान का पाकिस्तान के लिए झुकाव, इस्लामी जगत का नया नेता बनने की ख्वाहिश इन सब वजहों से भारत के निकट सहयोगी वे अब तक नहीं बन पाए हैं। लेकिन इसे सीधे-सीधे दुश्मनी का नाम देना या फिर इस आधार पर मुसीबत के दौरान पुरानी बातों को याद दिलाना सही नहीं है। तीन साल पहले 2020 में आमिर खान इस वजह से ट्रोल हुए थे, क्योंकि उनकी तुर्की यात्रा के दौरान राष्ट्रपति एर्दोगान की पत्नी के साथ एक तस्वीर आई थी। इस तस्वीर के आधार पर आमिर खान की देशभक्ति पर सवाल उठने शुरु हो गए थे, क्योंकि तब भी तुर्की को पाकिस्तान का मित्र और भारत का विरोधी बताया गया था। लेकिन दोस्ती और दुश्मनी की परिभाषाओं से परे दोनों देशों के बीच जो पुराने संबंध रहे हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए। जब मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने ऑटोमन सुल्तान को हटाकर तुर्की को एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य स्थापित किया था, तो नेहरूजी इससे काफी प्रभावित हुए थे और भारत को वे ऐसा ही धर्मनिरपेक्ष देश बनाना चाहते थे। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दो गुटों में बंटी दुनिया में तुर्की अमेरिकी खेमे के साथ हो गया। शीतयुद्ध के काल में उसकी पाकिस्तान से नजदीकियां बढ़ीं। 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्धों में तुर्की ने पाकिस्तान की काफ़ी सहायता की। 1974 में तुर्की ने साइप्रस पर हमला कर दिया तो भारत और तुर्की के संबंध और बिगड़ते चले गए क्योंकि भारत ने साइप्रस का साथ दिया था। इस तरह संबंधों में कई बार तल्खियां आईं, लेकिन राजीव गांधी, नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, नरेन्द्र मोदी सभी प्रधानमंत्रियों ने अपने स्तर पर तुर्की से संबंधों का विस्तार किया है।
दो देशों के बीच संबंधों के ये उतार-चढ़ाव चलते ही रहेंगे, लेकिन इससे मुसीबत के वक्त मदद को एहसान की तरह बताना ठीक नहीं है। फिलहाल यही उम्मीद करना चाहिए कि पीड़ितों को यथासंभव राहत मिले और जनजीवन फिर से सामान्य हो जाए।

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