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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

उत्तरप्रदेश में आखिर वही हुआ जिसकी बहुत से लोगों को आशंका थी, और जिसका शायद पुख्ता अंदाज अतीक अहमद को था। सपा के इस भूतपूर्व सांसद और विधायक को अभी-अभी एक कत्ल के मामले में उम्रकैद हुई थी, और ताकत इतनी थी कि उत्तरप्रदेश की जेलों में रहते हुए भी वह बाहर जुर्म करवाते रहता था। उसे यूपी के बाहर गुजरात की जेल में रखा जाता था, और अदालती पेशी पर लाया जाता था। पिछले कुछ हफ्तों में उसे जब यूपी लाया गया, तो यह आशंका जताई जा रही थी कि रास्ते में गाड़ी पलट सकती है, और वह मारा जा सकता है। यूपी पुलिस की चर्चित साख के मुताबिक यह भी माना जा रहा था कि उसकी मुठभेड़ मौत या हत्या हो सकती है, जैसी कि चार दिन पहले उसके बेटे की हुई है। बेटे के कफन-दफन में वह जा नहीं पाया था, और आज भाई के साथ उसके कफन-दफन के मौके पर वह बेटा नहीं है, बीवी फरार है। यहां पर याद रखने की बात यह भी है कि अतीक अहमद ने अभी-अभी, मार्च में ही सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी कि उसे कत्ल का खतरा है, और हिफाजत दी जाए, लेकिन वहां जस्टिस अजय रस्तोगी, और जस्टिस बेला त्रिवेदी की बेंच ने इस अपील को सुनने से मना कर दिया था कि वह पुलिस हिरासत में है, और राज्य सरकार पर उसकी हिफाजत की जिम्मेदारी है। लेकिन चारों तरफ आम लोगों को यह भरोसा था कि यूपी विधानसभा में जिस तरह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि वे इसे मिट्टी में मिला देंगे, और वे वैसा कर दिखाएंगे, और हुआ भी वही। पोस्टमार्टम के बाद आज नहीं तो कल अतीक अहमद अपने भाई के साथ मिट्टी में ही मिल जाएगा। कल आधी रात के पहले जिस तरह खबरों के साथ वीडियो आने लगे कि किस तरह तीन पिस्तौलबाजों ने इतनी पुलिस के बीच पहुंचकर, मीडिया के जाने कितने ही कैमरों के सामने उसके सिर से पिस्तौल टिकाकर उसका कत्ल किया, उन्होंने कत्ल तो दो का किया, लेकिन बाकी देश के लोगों को भी यह दिखा दिया कि किसके साथ क्या हो सकता है। ऐसे दर्जनों वीडियो देखने के बाद जो बात साफ निकलकर दिखती है कि आसपास पुलिस तो बहुत थी, लेकिन जब तक इन पिस्तौलबाजों ने अपनी सारी गोलियां खाली नहीं कर दीं, तब तक पुलिस ने किसी को नहीं पकड़ा, और कोई गोली तो उन पर चलाई ही नहीं। यूपी पुलिस का यह बर्ताव कोई बहुत बड़ा रहस्य भी नहीं है, और सडक़ों पर अपनी मर्जी का इंसाफ करना, उसका कोई नया सिलसिला भी नहीं है। छह बरस के योगीराज में 10 हजार 8 सौ से अधिक मुठभेड़ हुई हैं जिनमें 180 से अधिक मौतें हुई हैं। अब इन दो ताजा कत्लों में चूंकि बाहरी कातिल बताए जा रहे हैं, इसलिए फिलहाल इन्हें मुठभेड़-हत्या में गिनना ठीक नहीं है हालांकि ये पुलिस की हिरासत में, मौजूदगी में, और उसके तमाशबीन बने-बने हुई हत्याएं जरूर हैं।

उम्रकैद पाने के बाद, और सौ दूसरे जुर्मों के मामलों में कटघरों में खड़े हुए अतीक अहमद और उनके कुनबे का कोई बहुत बड़ा भविष्य बाकी नहीं था। इसलिए उन्हें सिर्फ उनकी वजह से खत्म किया गया हो, यह भी बहुत तर्कसंगत नहीं दिखता है। यह बात इस हिसाब से ठीक लगती है कि तीन हिन्दू कातिलों ने जयश्रीराम के नारे लगाते हुए अतीक अहमद और उसके भाई को जिस तरह मारा है, उससे बाकी हिन्दुस्तान में हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच एक साफ-साफ संदेश जाता है, और इसकी वजह से दोनों में से किसी भी तबके में अगर पहले, या दोनों में साथ-साथ ध्रुवीकरण होता है, तो इसका चुनावी फायदा दिलवाने के लिए इन तीनों कातिलों का नाम भारत के ताजा चुनावी इतिहास में बड़े-बड़े हर्फों में दर्ज किया जाएगा। जो पहले से कत्ल सरीखे मामलों में जेल हो आए हैं, वैसे मुजरिम एकाएक अतीक अहमद को पाकिस्तानपरस्त करार देते हुए उसकी जिस तरह से हत्या करते हैं, वह पूरा सिलसिला थोड़ा सा ज्यादा फिल्मी है, और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उत्तरप्रदेश में जिस फिल्म उद्योग को बनाने और बढ़ाने की हसरत रखते हैं, उसमें लिखी गई कहानी सरीखा अधिक दिखता है। इतने बड़े खतरे के बीच इतनी पुलिस की मौजूदगी में तीनों कातिल गोलियां चलाएं, और पुलिस की एक गोली भी उन पर न चले, और पकडऩे के मिनट भर के भीतर उन्हें एक गाड़ी में डालकर वहां से तेजी से ले जाया जाए, यह पूरा सिलसिला बड़ा रहस्यमय दिखता है। अमरीका के इतिहास में राष्ट्रपति जॉन एफ.कैनेडी के कत्ल के बाद कथित कातिल के कत्ल का राज आज आधी सदी बाद भी सुलझा नहीं है। इसलिए उत्तरप्रदेश की बीती रात की गोलीबारी की पहेली को सुलझाना आसान नहीं मानना चाहिए। जब सत्ता पहेली का एक टुकड़ा होती है, तो वह किसी भी हल को मुश्किल कर देने की ताकत रखती है।

जब ऐसे नामी-गिरामी गैंगस्टर को तीन हिन्दू-हत्यारे मारें, जयश्रीराम के नारे के साथ मारें, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कही बात को सही साबित करने के लिए मारें, तो फिर देश को अपने लोकतंत्र के आज के हाल पर गौर करना चाहिए। यह तो ठीक है कि आज मारे जाने वाले लोग मासूम नहीं थे, और मुस्लिम भी थे, इसलिए हिन्दुस्तान की बहुसंख्यक आबादी को उनके साथ खुली सडक़ पर किया गया यह इंसाफ सुहा रहा होगा, लेकिन क्या सुप्रीम कोर्ट को भी यह इंसाफ सुहा रहा है? क्या अदालत को इंसाफ करने के अपने एकाधिकार के इस तरह छिन जाने पर कोई शिकायत नहीं है? क्या यह मैक्सिको और इटली के माफिया के राज सरीखा राज नहीं है? और अगर अराजकता इसी तरह बढ़ती चली जानी है, तो फिर महफूज कौन रहेंगे? अतीक अहमद और उसका भाई जितनी पुलिस के घेरे में चल रहे थे, उससे अधिक पुलिस तो इस मुल्क के किसी जज को भी नसीब नहीं होती। जिस प्रयागराज में कल ये कत्ल हुए हैं, वहां से कुछ ही दूरी पर देश का सबसे बड़ा, इलाहाबाद हाईकोर्ट मौजूद है। आज इतवार की छुट्टी है, लेकिन अदालतें और जज तो असाधारण स्थितियों में इतवार को भी, घर से भी काम करते हैं। पता नहीं कल के ये कत्ल किसी अदालती दखल का सामान हैं या नहीं, ये पूरे देश में एक दहशत और ध्रुवीकरण का सामान तो हैं ही। और किसी टीवी चैनल के उत्साही रिपोर्टर को अयोध्या जाकर रामलला से भी इंटरव्यू की कोशिश करनी चाहिए कि उनके नाम के जय-जयकार के साथ मुस्लिमों के ऐसे कत्ल पर उनका क्या कहना है? अगर कोई जवाब मिलता है तो वह हिन्दुस्तानी टीवी के इतिहास का सबसे बड़ा टीआरपी भी हो सकता है।

एक आखिरी बात यह कि हिन्दुस्तान पिछले दो-तीन दिनों से जम्मू-कश्मीर के भूतपूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक के एक पत्रकार करण थापर को दिए गए इंटरव्यू के सैलाब से भीगा हुआ था। चारों तरफ उसके हिस्से तैर रहे थे, उनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, और उनकी सरकार पर इतने गंभीर आरोप थे जितने गंभीर आरोप मोदी पर 2002 के बाद से कभी नहीं लगे थे। और ये आरोप किसी विपक्ष के नहीं थे, ये मोदी सरकार के मनोनीत राज्यपाल के थे, कैमरे के सामने साफ-साफ दिए हुए थे। एक घंटे नौ मिनट से अधिक का यह इंटरव्यू ज्वालामुखी फटने सरीखा था, लेकिन कल आधी रात से यह समझ आ गया है कि 28 सेकेंड का अतीक अहमद के कत्ल का वीडियो इस पूरे इंटरव्यू को धकेलकर हाशिए पर कर चुका है। सतपाल मलिक के समाचार-महत्व को पल भर में खत्म कर देने में अतीक अहमद के कत्ल का योगदान इतिहास में दर्ज किया जाएगा।

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