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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग परंपराएं रहती हैं। और देशों के भीतर ही हर इलाके के अपने रिवाज रहते हैं। लोग उन्हें बहुत गंभीरता से लेते हैं, और कई इलाकों में पीढिय़ों तक ये रिवाज चले आते हैं। अभी आन्ध्र के एक गांव वेमना इंडलू पर बीबीसी की एक रिपोर्ट आई है। इसके मुताबिक इस गांव में सभी लोग नंगे पैर रहते हैं, कोई जूते नहीं पहनते, और गांव के बाहर से अगर कोई बड़े अफसर भी वहां आ जाएं, तो उन्हें गांव के बाहर ही जूते उतारकर भीतर आना पड़ता है। इस गांव के लोग बीमार पडऩे पर इलाज नहीं कराते, और मंदिर की परिक्रमा करके ठीक हो जाने की मान्यता रखते हैं। सांप काट ले तो भी इलाज को नहीं ले जाते कि ईश्वर ठीक कर देंगे। गांव के बाहर का न तो कुछ खाते, न बाहर का पानी पीते। घर से ही पानी लेकर निकलते हैं, और उसी पर जिंदा रहते हैं। कुल 80 लोगों की आबादी है, 25 घर हैं, कुछ लोग ही ग्रेजुएट हुए हैं, लेकिन बाकी लोग गांव की ही खेती-बाड़ी पर चल रहे हैं। माहवारी के दौरान महिलाओं के रहने के लिए गांव के बाहर एक कमरा बना दिया गया है, और पांच दिन उन्हें वहीं रहना पड़ता है। यह जाति ओबीसी में आती है, और इसके बच्चे स्कूल जाते हैं तो वहां दोपहर का भोजन नहीं करते, खाना खाने घर आते हैं। किसी को छूते हैं तो नहाने के बाद ही घर में घुसते हैं। महिलाओं को प्रसव के लिए अस्पताल नहीं ले जाया जाता। इस गांव में दलितों का दाखिला नहीं है, और लोग दलितों से बात भी नहीं करते। इस रिपोर्ट के मुताबिक यह गांव तिरुपति से 50 किलोमीटर दूर है, और अफसरों का कहना है कि वे लोगों का अंधविश्वास दूर करने की कोशिश करेंगे।

हिन्दुस्तान परंपराओं से लदा हुआ देश है, और ये परंपराएं लोगों की जिंदगी को जकडक़र रख देती हैं। लोग समाज की परंपराओं से भी लदे रहते हैं, गांव या कस्बे की बातों को भी मानने को मजबूर रहते हैं, और परिवार के रीति-रिवाज को तो मानना ही होता है। इस देश में इस बात को बहुत बड़ा माना जाता है कि कहां किस संयुक्त परिवार के कितने दर्जन लोग एक छत के नीचे रहते हैं, एक रसोई में बना हुआ खाते हैं। जाहिर है कि इन दर्जनों लोगों में कम से कम तीन पीढिय़ों के लोग तो रहते ही होंगे, और ऐसी संयुक्त परिवार व्यवस्था में सबसे बुजुर्ग की बात का सबसे अधिक वजन रहता है। और जाहिर है कि यह बुजुर्ग पीढ़ी नौजवान पीढ़ी से आधी सदी बूढ़ी रहती है, उसकी सोच पुरानी रहती है, बदलती हुई दुनिया का न उन्हें अंदाज रहता है, और न परवाह। ऐसे बरगदों के नीचे जीने वाले लोगों की नई पीढ़ी अपनी हसरतों और महत्वाकांक्षाओं को किनारे रखकर एक चूल्हे का खाने का फख्र हासिल करती रहती है। जिस गांव की कहानी इस रिपोर्ट में है, वह ऐसे ही एक बड़े परिवार की तरह का है, उसमें कई दर्जन लोग हैं, एक ही जाति के हैं, और जिंदगी के बहुत से गैरजरूरी और महत्वहीन पहलुओं को ढोकर चलने वाले हैं। वे रोजमर्रा की व्यवहारिकता से अछूते रहकर एक अलोकतांत्रिक तौर-तरीके से चल रहे हैं। न महिलाओं को बराबरी का हक है, न दलितों को घुसने का हक है, और न लोगों को बाहर की दुनिया में जाकर खाने-पीने का हक है। और तो और बच्चों को स्कूल में दोपहर का भोजन करने का हक नहीं है क्योंकि गांव की परंपरा उसके खिलाफ है। यह पूरा सिलसिला इतिहास के एक पन्ने की तरह लगता है, जिसे इतिहास बन जाना चाहिए था, लेकिन वह वर्तमान बना हुआ है, और भविष्य की छाती पर मूंग दल रहा है।

लोकतंत्र और संविधान दोनों का तकाजा यह है कि ऐसे समाज बदले जाने चाहिए, चूंकि वहां पीढिय़ां रह रही हैं, इसलिए सबसे पुरानी पीढ़ी के सामने और किसी का कुछ चलना नहीं है, कोई समाज सुधार हो नहीं सकता, इसलिए कानून दखल देना चाहिए। घर के भीतर के रीति-रिवाजों में तो कानून की जगह नहीं निकल सकती, लेकिन गांव में जूते-चप्पल पहनकर न घुसने के नियम को तो सरकार तोड़ ही सकती है, दलितों का गांव में दाखिला करवाना ही चाहिए। जब तक सरकारी दखल नहीं होगी, तब तक यह गांव एक किस्म से कुएं में जीता रहेगा, इसके लोगों को कुएं से बाहर लाकर दुनिया दिखाने के लिए जहां-जहां कानून की भूमिका हो सकती है, उसका इस्तेमाल करना चाहिए।

न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि दुनिया भर में जगह-जगह धर्म, आध्यात्म, और सम्प्रदायों के नाम पर कई किस्म के पाखंड, कई किस्म की हिंसक परंपराएं चलती रहती हैं। तमाम विकसित और सभ्य लोकतंत्रों में इनको तोडऩे के लिए सरकारें दखल देती ही हैं। अमरीका में एक वक्त एक किसी स्वघोषित गुरू के मातहत हजारों लोगों का एक ऐसा कम्यून बना हुआ था जो कि सरकारी सैनिकों से भी टकराव ले रहा था, और सरकार ने फौजी मदद से ही उसे तोड़ा था। हिन्दुस्तान में राम-रहीम से लेकर बहुत से दूसरे ऐसे गुरू रहे हैं जिन्होंने कानून के खिलाफ जाकर, अलोकतांत्रिक तरीके से अपने सम्प्रदाय चलाए, और फिर आखिर में जेल पहुंचे। लोकतंत्र में सरकार देश-प्रदेश के किसी भी हिस्से को कानून से ऊपर रखने की इजाजत नहीं दे सकती, यह उसकी बुनियादी जिम्मेदारी रहती है कि लोग अगर कानून के खिलाफ चल रहे हैं तो उन्हें पटरी पर लेकर आए। अभी जिस गांव की चर्चा चल रही है वह शारीरिक हिंसा तो नहीं कर रहा है, लेकिन दलितों का बहिष्कार करके, अपनी महिलाओं को अछूत मानकर वह सामाजिक हिंसा कर रहा है, इसलिए अफसरों को जरूरत पडऩे पर लड़ाई का इस्तेमाल करके भी इस सिलसिले को खत्म करवाना चाहिए।

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