-सुनील कुमार॥
गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देकर देश की मोदी सरकार ने जनता का बर्दाश्त एक बार और परखने का प्रयोग किया है। बहुत से साम्प्रदायिक, जातीय, ऐतिहासिक मुद्दों पर, रीति-रिवाजों और संस्कारों पर यह सरकार ठीक उसी तरह प्रयोग करते आ रही है जिस तरह लोगों में प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने के लिए कुछ किस्म की चिकित्सा प्रणाली में धीरे-धीरे दवा देकर यह काम किया जाता है। सरकार लोगों में बर्दाश्त बढ़ा रही है। इस अखबार ने अपने यूट्यूब चैनल के लिए कल देश के एक चर्चित लेखक अक्षय मुकुल को इंटरव्यू किया जिन्होंने गीता प्रेस के इतिहास और उसके प्रभाव पर बरसों तक रिसर्च करके एक महत्वपूर्ण किताब, गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिन्दू इंडिया, लिखी है। अक्षय मुकुल ने इस किताब से परे कई लेख भी ऐसे लिखे हैं जो कि गीता प्रेस को गांधी के नाम वाला राष्ट्रीय पुरस्कार देने के सरकार के फैसले को कटघरे में खड़ा करता है। लेकिन दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ अखबार को दिए इंटरव्यू में अक्षय मुकुल कहते हैं अब इन 9 बरसों में मोदी सरकार के फैसलों ने चौंकाना बंद कर दिया है। वे इसे नवसामान्य स्थिति मानते हैं। गीता प्रेस को ऐतिहासिक तथ्यों और संदर्भों में समझने के लिए यह किताब मददगार है, और आज यहां इस मुद्दे पर लिखने के लिए भी हमें इससे समझ मिल रही है।
गीता प्रेस के संस्थापकों में से एक, हनुमान प्रसाद पोद्दार गांधी के लगातार संपर्क में रहे, गांधी उन्हें पसंद भी करते थे, गांधी से गीता प्रेस की पत्रिका, कल्याण, के लिए कभी-कभी लिखवा भी लिया जाता था, लेकिन पोद्दार पूरी तरह से एक सवर्ण, बनिया, ब्राम्हणवादी, जातिवादी, महिलाविरोधी, दलितविरोधी, अल्पसंख्यकविरोधी, और धार्मिक कट्टरता वाले व्यक्ति थे। गांधी के रहते हुए ही वे गांधी से सीधे संपर्कों के बावजूद गांधी के हरिजन प्रेम के खिलाफ रहे, साथ खाने के खिलाफ रहे, शुद्धता के लिए अड़े रहे, दलितों के मंदिर प्रवेश के खिलाफ रहे, अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमेशा एक मोर्चा चलाते रहे, लगातार नफरत फैलाते रहे, और हिन्दू समाज के भीतर भी वे एक ब्राम्हणवादी व्यवस्था को बढ़ावा देकर उसे भी कायम रखने का काम करते रहे। गौरक्षा के नाम पर इंसानों को थोक में मारने वालों के खिलाफ भी गीता प्रेस के पास कुछ नहीं था, और वह गाय पर अपने विशेषांक निकाल-निकालकर हिन्दू समाज को गाय के प्रति अतिसंवेदनशील उत्तेजना से भरने का काम करती रही। आरएसएस और हिन्दू महासभा से गीता प्रेस का इतना घरोबा रहा कि गांधी-हत्या के बाद हनुमान प्रसाद पोद्दार को भी हजारों दूसरे लोगों के साथ गिरफ्तार किया गया था। यह शायद दुनिया के इतिहास का अकेला ऐसा मौका रहा होगा कि गांधी ने पोद्दार को अपना जितना करीबी माना था, अपने साम्प्रदायिक कट्टरता के संबंधों की वजह से उन पोद्दार को गांधी-हत्या के बाद गिरफ्तार किया गया था। कल्याण ने हिन्दू समाज के भीतर जातियों को लेकर चल रहे जुल्म के खिलाफ कोई आंदोलन शुरू नहीं होने दिया, और वह लगातार दलितों को पिछले जन्म के कुकर्मों की सजा बताता रहा, उन्हें संघर्ष के लायक चेतना से दूर रखने की साजिश चलाता रहा। वह महिलाओं के लिए खासकर इतना दमनकारी रहा कि उन्हें परिवार के पुरूषों का गुलाम बनाकर रखने के अलावा उसने कोई भूमिका नहीं दी।
लेकिन हिन्दुस्तान का वह दौर ऐसा था कि उसने गांधी की छाया भी जिस पर पड़ जाए उसे भी एक विश्वसनीयता मिल जाती थी, फिर गांधी तो गीता प्रेस की पत्रिका के लिए लिख भी देते थे, और गीता प्रेस दूसरी जगहों पर गांधी के लिए हुए का वह हिस्सा छाप लेता था, जो उसे धर्म के अनुकूल लगता था। इस तरह गांधी के समग्र से परे गांधी के लेखन के कतरों का इस्तेमाल करके गीता प्रेस एक अलग किस्म की साख पा लेता था। लेकिन वह हिन्दू धर्म के प्रकाशक का काम करते हुए, मुस्लिमों से नफरत, दलितों को अछूत रखने, औरतों को कुचलने जैसे काम में लगे रहा।
लोकतंत्र में कई तरह की चीजों की छूट रहती है, इनमें से इस बात की भी छूट हो सकती है कि लोग औरत के खिलाफ दकियानूसी बातें फैलाएं, उसे गुलाम की तरह रखें, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह सोच बढ़ाते चलें। लेकिन ये सारी की सारी सोच गांधी की जिंदगी में ही गांधी के खिलाफ थी, गीता प्रेस ने गांधी के खिलाफ खुलकर लिखने का काम भी किया था, उनकी खुलकर आलोचना की थी। ऐसे में भारत सरकार का यह फैसला कि गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार दिया जाए, जले पर नमक छिडक़ने की तरह का है। इस देश में आज गांधी को प्रिय तमाम सिद्धांत और तमाम तबके कुचले जा रहे हैं। हरिजनों पर जुल्म हो रहा है, अल्पसंख्यकों को मारा जा रहा है, और जातिवाद इस देश को तबाह कर रहा है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाले निर्णायक मंडल ने आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान अगर गीता प्रेस को गांधी के नाम का शांति पुरस्कार दिया है, तो यह गांधी का मखौल बनाना, और गांधी के मूल्यों से नफरत करने वालों को गांधी की साख देना है। इस पुरस्कार को देते हुए सरकारी बयान कहता है कि मोदी ने शांति और सामाजिक सद्भाव के गांधीवादी आदर्शों को बढ़ावा देने में गीता प्रेस के योगदान का स्मरण किया। उन्होंने कहा कि मानवता के सामूहिक उत्थान में योगदान देने के लिए गीता प्रेस के महत्वपूर्ण और अद्वितीय योगदान को यह पुरस्कार दिया जा रहा है जो सच्चे अर्थों में गांधीवादी जीवनशैली की प्रतीक संस्था है।
अब गीता प्रेस के योगदान को देखें, तो देश की आधी औरत-आबादी के वह खिलाफ है, देश के दलितों के वह खिलाफ है, वह अल्पसंख्यकों के खिलाफ है, उसने समाज में विभाजन पैदा करने, और चौड़ा करने के लिए पूरी जिंदगी कोशिश की है, और ऐसी संस्था को केन्द्र सरकार का यह सम्मान गांधी के अपमान के अलावा कुछ नहीं है। अगर इस संस्था में ईमानदारी होती, तो उसे इस मौके पर गांधीवादी मूल्यों से अपनी कट्टर असहमति गिनाते हुए गांधी के नाम का पुरस्कार लेने से मना कर देना था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। इस संस्था ने महज इस पुरस्कार की नगद रकम लेने से मना कर दिया है, और पुरस्कार मंजूर कर लिया है।
गांधी का दिल तो बहुत बड़ा था, वे तो ऊपर जहां कहीं भी होंगे, वे ऊपर जहां कहीं भी हनुमान प्रसाद पोद्दार होंगे, उनसे बात-मुलाकात होने पर कोई नाराजगी नहीं दिखाते होंगे। गांधी ने तो जीते जी भी किसी से नफरत नहीं की, लेकिन हनुमान प्रसाद पोद्दार गांधी की संतान की तरह उनके करीब भी रहे, और उनके जीते जी ही लगातार गांधी के मूल्यों के खिलाफ अभियान चलाते रहे। भारत सरकार का यह फैसला शर्मनाक है, और यह बेईमानी भी है कि किसी सोच के एक विरोधी को इस तरह उसके नाम का सम्मान दे दिया जाए। भारत सरकार को मनुस्मृति में कोई पुरस्कार स्थापित करके उसे गीता प्रेस को देना था, उसे मुस्लिमों को कुचलने वाले अभियान के नाम पर एक पुरस्कार स्थापित करके उसे भी गीता प्रेस को दे देना था। यह गीता प्रेस के भी हित में नहीं है कि उसके दफ्तर में लाठी लिए एक ऐसा बूढ़ा खड़ा रहे जिसे कलम की लाठी से गीता प्रेस पीटते रहा।