-सुनील कुमार॥
असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा हर कुछ हफ्तों में सांप्रदायिक बयान का एक नया इतिहास रचते हैं। अभी उन्होंने असम में सब्जियों की बढ़ती कीमतों के लिए मुस्लिम सब्जी बेचने वालों को जिम्मेदार ठहराया है, और कहा है- ‘वे कौन लोग हैं जिन्होंने सब्जियों की कीमत इतनी बढ़ा दी है? वे मियां व्यापारी हैं। गुवाहाटी में मियां व्यापारी असमिया लोगों से अधिक दाम वसूल रहे हैं। अगर आज असमिया व्यापारी सब्जी बेच रहे हो तो वे कभी भी अपने असमिया लोगों से अधिक कीमत नहीं वसूलते।’ असम में मुसलमानों को मियां कहते हैं, और ऐसा कहा जाता है कि वे मूल रूप से बांग्लादेश से आए हैं, बंगाली भाषी हैं। असम में मियां शब्द को एक अपमानजनक हिकारत वाला विशेषण माना जाता है, और इसे गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
आज जब उत्तर-पूर्व में ही एक राज्य मणिपुर में इस बुरी तरह हिंसा फैली हुई है, और हिन्दू मैतेई जाति के लोगों और कुकी ईसाई आदिवासियों के बीच जानलेवा हिंसक संघर्ष चल रहा है, अब तक करीब डेढ़ सौ लोग मारे गए हैं, करीब 55 हजार लोग बेघर-बेदखल हो गए हैं, वे या तो राहत शिविरों में हैं, या पड़ोसी प्रदेशों में जाकर शरण लिए बैठे हैं, ऐसे में पास के असम में ऐसा घोर साम्प्रदायिक बयान किसी गैरजिम्मेदार नेता को भी नहीं सुहा सकता, उस प्रदेश के मुख्यमंत्री के मुंह से तो ऐसी बात हक्का-बक्का ही करती है। क्या हिन्दुस्तान के बाकी इलाकों में सभी जगह सब्जियों का कारोबार मुसलमानों के हाथ में हैं? या किसी दूसरे गैरहिन्दू समुदाय के हाथ में है? देश इतना बड़ा है और विविधता इतनी अधिक है कि हर धर्म और जाति के लोग कहीं न कहीं कई तरह के कारोबार में लगे हुए हैं, और किसी एक धर्म या जाति को महंगाई बढ़ाने के लिए तोहमत देना सिवाय साम्प्रदायिकता के और कुछ नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने हेट-स्पीच को लेकर जो बड़े कड़े कहे जा रहे आदेश दिए हैं, वे आदेश असम जैसे राज्य में मुख्यमंत्री की टेबिल के बगल में रखी कचरे की टोकरी में ही दिखते हैं। ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को या तो ऐसे आदेश देना बंद कर देना चाहिए जिस पर वह अमल नहीं करवा सकता, और सरकारों की ढेला भर भी नीयत उस पर अमल की नहीं है, या फिर उसे नफरत फैलाने वाले लोगों को कटघरे में लाना चाहिए। इससे कम में लोकतंत्र नहीं बच सकता। अदालत के नाम का एक पाखंड भी जारी रहे, और मुजरिमों के पास यह कहने को रहे कि उनका फैसला अदालत करेगी, और उन्हें यह पता भी रहे कि अदालत कुछ नहीं करेगी, तब देश में कानून नहीं बचे रह सकता। आज हालत यही है।
हम पहले भी यह सुझा चुके हैं कि जज खुद तो रोज अखबारों की कतरनें निकालते नहीं बैठ सकते, और न ही एक-एक टीवी चैनल की फैलाई नफरत की रिकॉर्डिंग कर सकते। उन्हें एक जांच कमिश्नर नियुक्त करना चाहिए जो अदालत के मित्र की तरह, अदालत की ओर से, देश भर के मीडिया और सोशल मीडिया पर हेट-स्पीच के दायरे में आने वाली चीजों के सुबूत इकट्ठा करे, और फिर अदालत को हर कुछ हफ्तों में एक रिपोर्ट दे कि किन प्रदेशों के कौन से नेता या कौन से संगठन लगातार नफरत फैला रहे हैं, और अदालत उन सबको बुलाकर कटघरे में खड़ा करे। आज कहने के लिए अदालत हेट-स्पीच के खिलाफ कड़े आदेश जारी करते दिख रही है, दूसरी तरफ लोग हवा को जहरीली करने वाले बयान दिए ही जा रहे हैं, तो उससे ऐसा लगता है कि साम्प्रदायिकता का यह जहर सुप्रीम कोर्ट को मान्य है, उसे इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लग रहा है। यह सिलसिला आदेश न होने से भी अधिक खतरनाक है। कोई आदेश न रहे तो लोगों के पास यह विकल्प रहता है कि वे अदालत तक दौड़ लगा सकते हैं, लेकिन जब अदालत बार-बार अपने बड़े और कड़े आदेश दुहराते रहती है, तो फिर न तो कोई जनहित याचिका लेकर जाया जा सकता, और न ही कोई जाकर जजों को बता सकता कि आपकी तो दिन में तीन बार अवमानना हो रही है।
जो सोशल मीडिया अपनी अराजकता की संभावनाओं के लिए कोसा जाता था, वह तो अब पीछे रह गया है, अब तो मुख्यधारा का कहा जाने वाला मीडिया नेताओं के जहरीले बयानों को किसी स्टेनो-टायपिस्ट की तरह नोट करता है, और उसे छाप देता है, या टीवी पर दिखा देता है। किसी एक पत्रकार की भी ऐसी हिम्मत नहीं दिखती कि वे जहरीले नेताओं से पूछ सकें कि उनके ये बयान कानून के खिलाफ हैं या नहीं, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पढ़े हैं या नहीं? देश का लोकतंत्र इस हद तक गैरजिम्मेदार हो गया है कि यहां के संविधान की शपथ वाले नेता लगातार अदालत के लिए हिकारत दिखा रहे हैं, संविधान के खिलाफ काम कर रहे हैं, और इंसानियत को छोडक़र कोसों दूर निकल चुके हैं। और उनके ऐसे जुर्म को उनकी पार्टी उनकी काबिलीयत और खूबी मान रही है। जिन हिमंता बिस्वा सरमा की हम बात कर रहे हैं उनको उनकी पार्टी और केन्द्र सरकार उत्तर-पूर्वी राज्यों के सुपर सीएम की तरह पेश कर रही है, और वे दूसरे राज्यों में जाकर वहां के मुख्यमंत्रियों को सलाह दे रहे हैं। लोकतंत्र में ऐसा सिलसिला इस देश की गौरवशाली परंपराओं के लिए हिकारत का है, और शर्मनाक परंपराएं कायम कर रहा है। आज अगर पढ़े-लिखे लोगों की पहुंच सोशल मीडिया तक है, तो उन्हें इस किस्म की नफरती बातों के खिलाफ मुंह खोलना चाहिए, अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो वे अपनी आने वाली पीढिय़ों के लिए एक बहुत खतरनाक और जानलेवा देश छोडक़र जाएंगे।