-सुनील कुमार॥
आर्थिक उदारीकरण के चलते हाल के बरसों में कामकाज की शक्ल बदल गई है, और अब पुराने वक्त की रोजगार सुरक्षा अब नहीं रह गई है। अधिक से अधिक लोग ठेका-मजदूर की तरह काम करते हैं, या फिर वे बिलिंग पर, या सर्विस पर कमीशन के आधार पर काम करते हैं। देश में आज करोड़ों ऐसे लोग हैं जो जिस दिन काम करते हैं, उसी दिन कमा पाते हैं, जिस दिन काम न करें, उनकी कोई कर्मचारी सुरक्षा नहीं रहती है। ऐसे में राजस्थान में कल एक नया कानून बनाया है जिसमें वह डिजिटल प्लेटफॉर्म से की जाने वाली बिक्री और सेवा पर दो फीसदी टैक्स लगाने जा रहा है जिसे कि ऐसे प्लेटफॉर्म का काम करने वाले लोगों के कल्याण के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। इसमें ओला या उबेर जैसी टैक्सी सर्विस, जोमेटो जैसे खानपान पहुंचाने वाले लोग, या अमेजान जैसे ऑनलाईन स्टोर पर टैक्स लगेगा। राज्य का चुनाव छह महीने से कम दूर है, और प्रदेश में ऐसे लाखों कामगार हैं जो कि इन प्लेटफॉर्म के मार्फत काम करते हैं, यह अलग बात है कि उनकी कोई रोजगार-सुरक्षा नहीं है। पूरे देश में नीति आयोग के मुताबिक 77 लाख ऐसे कर्मचारी हैं, और 2030 तक यह आंकड़ा बढक़र सवा दो करोड़ पार कर जाने की उम्मीद है। लेकिन ये कर्मचारी किसी तरह के रोजगार-कानूनों की हिफाजत नहीं पाते।
अभी कल ही राजस्थान में यह कानून विधानसभा में पास हुआ है इसलिए इसकी बारीक जानकारी अभी नहीं है, और कई बार यह भी होता है कि कर्मचारियों के हक के लिए जो योजना बनाई जाती है, उस पर कोई मनोनीत राजनेता मनमानी करते रहते हैं, और जिस मकसद से उन्हें बनाया जाता है, वह मकसद ही पूरा नहीं होता। अंग्रेजी की एक कहावत है जिसका मतलब यह होता है कि मक्कारी की बात बारीक जानकारी में छुपी रहती है, अब ऐसे कानून से इकट्ठा टैक्स को सरकार किस तरह खर्च करेगी, इससे भी यह तय होगा कि इससे किसी कर्मचारी का कोई भला हो रहा है, या इस पर कोई नेता पल रहा है? देश में सुप्रीम कोर्ट के हुक्म से और उसकी निगरानी के तहत, कटने वाले पेड़ों की जगह दूसरे पेड़ लगाने के लिए मुआवजा इकट्ठा किया गया, और एक-एक राज्य को ऐसे हजारों करोड़ रूपए दिए गए। लेकिन कैम्पा नाम की इस फंड का ऐसा भयानक बेजा इस्तेमाल बहुत से राज्यों में हुआ है कि उसने सुप्रीम कोर्ट की पूरी नीयत को ही कुचलकर रख दिया, और सरकारों में किसी को यह डर भी नहीं लगा कि सुप्रीम कोर्ट की नजर ऐसे बेजा इस्तेमाल पर पड़ सकती है।
सरकारों को नियमित टैक्स से परे किसी भी तरह की वसूली और उगाही में बहुत मजा आता है। लोगों को याद होगा कि एक निर्भया फंड बनाया गया, जिसका इस्तेमाल देश में बलात्कार रोकने के लिए किया जाना था। लेकिन हुआ यह कि उस फंड से नेताओं का प्रचार होते रहा। ठीक इसी तरह कोरोना के फंड का इस्तेमाल हुआ, और पीएम केयर्स नाम से एक ऐसा अजीब सा फंड बना लिया गया जिसमें बड़े-बड़े सरकारी और निजी उद्योगों ने सैकड़ों करोड़ रूपए दिए, यह फंड सरकार की छत्रछाया में सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय में काम करते रहा, भारत सरकार की वेबसाइट पर है, लेकिन अभी जब सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका के बाद अदालत ने सरकार से पूछा तो पता लगा कि इस फंड का सरकार से कुछ भी लेना-देना नहीं है, और इस फंड से जुड़ी कोई भी जानकारी सूचना के अधिकार के तहत नहीं दी जाएगी। यह पूरा मामला हक्का-बक्का करने वाला है। कोरोना काल में देश में बहुत सी सरकारों ने तरह-तरह से टैक्स लगाए, लेकिन उनका कोरोना पर कितना खर्च हुआ, यह बताने में सरकारें बचती हैं।
मजदूरों और कर्मचारियों के कल्याण के लिए जो फंड बनते हैं, उनका इस्तेमाल कई प्रदेशों में नेताओं के इश्तहारों के लिए होता है, और दिखावे के लिए थोड़ा-बहुत खर्च कर्मचारियों पर इस तरह से किया जाता है कि उसका भी चुनावी फायदा नेताओं को ही मिले। किसी खास मकसद से जब कोई टैक्स या सेस, या कोई लेवी वसूली जाती है, तो उसका सौ फीसदी इस्तेमाल उस मकसद पर ही होना चाहिए। अब चुनाव सामने है तो कई सरकारें, केन्द्र और राज्य सरकारें भी, तरह-तरह से संगठित तबकों के लिए अपनी फिक्र दिखाती रहेंगी, लेकिन लोगों को चाहिए कि ऐसे पुराने फंड का क्या इस्तेमाल हुआ है उसका हिसाब सरकार से मांगे। अब पीएम केयर्स की तरह हर फंड को लेकर लोग सुप्रीम कोर्ट तो जा नहीं सकते, लेकिन सरकार के मातहत होने वाले ऐसे हर काम को जनता के लिए पारदर्शी रखना चाहिए, सूचना के अधिकार के तहत रखना चाहिए ताकि लोगों को यह पता लगे कि जिस नाम पर सरकार ने वसूली-उगाही की है, उस तबके की भलाई के लिए कितना खर्च हुआ है, और नेताओं के चेहरे चमकाने पर कितना।
एक बार फिर से उस बात पर लौटें जहां से शुरूआत की गई थी, तो कर्मचारियों के कल्याण की सोच तो अच्छी है, लेकिन ऐसे नए फंड बनाने के साथ-साथ सरकारों को यह भी देखना चाहिए कि पहले के मजदूर कानूनों का कैसा इस्तेमाल हो रहा है। ऐसा न हो कि सरकारें उद्योगपतियों और कारोबारियों के हाथ बिकी रहें, मजदूर कानून कचरे की टोकरी में पड़े रहें, और सरकारें नए कानून बनाकर ऐसी दिखती रहे कि मानो वे बहुत बड़ा कर्मचारी-कल्याण कर रही है।