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कांग्रेस ‘कमल छाप नस्ल’ से निज़ात पाए.. मोदी की महाविजय, महिला मतदाता नायिका ?

-सुनील कुमार॥

इन दिनों दुनिया के दो महत्वपूर्ण देशों में दो ऐतिहासिक आंदोलन चल रहे हैं, जिनका एक-दूसरे से कोई लेना-देना तो नहीं है, लेकिन इन्हें साथ रखकर देखने की जरूरत है। चीन में वहां के कोरोना-लॉकडाऊन के हाल के बरसों से उपजी सत्ता-विरोधी बेचैनी पिछले चौथाई सदी से अधिक की वहां की सबसे बड़ी बेचैनी मानी जा रही है। दूसरी तरफ ईरान में महिलाओं पर पोशाक की कड़ाई के चलते एक युवती की हिरासत में मौत के बाद वहां पूरे देश में गांव-कस्बों तक, महिलाओं से लेकर मर्दों तक फैल गया सरकार विरोधी आंदोलन इस्लामी मुल्लाओं की सत्ता की नींद हराम किए हुए है। बहुत कड़े कानून और भारी ज्यादतियों के बावजूद इन दोनों देशों में सत्ता के खिलाफ चल रहे आंदोलन खुद वहां के लोगों को हैरान कर रहे हैं, बाकी दुनिया को तो हैरान कर ही रहे हैं। अब इन दोनों को एक साथ देखने की हमारी एक वजह यह भी है कि ये दोनों ही देश पश्चिमी देशों के विरोधी हैं, और ये दोनों ही आज की अंतरराष्ट्रीय जंग में रूस के साथ खड़े हैं।

इसे हम किसी पश्चिमी साजिश की कामयाबी की तरह नहीं देखते क्योंकि इन दोनों ही जगहों पर बाहरी असर की गुंजाइश बहुत सीमित है, और पश्चिम की इन दोनों देशों से टकराहट हमेशा से चली आ रही है। इसलिए रातों-रात अमरीका या योरप के देश इन दोनों जगहों पर जनआंदोलन छिड़वा सकें, ऐसी गुंजाइश नहीं दिखती है। इन दोनों ही जगहों पर सत्ता के फौलादी रूख के खिलाफ बेचैनी पहले से चली आ रही थी, दुनिया के दूसरे देशों में लोकतंत्र के झोंके सरहद पार से भी सोशल मीडिया और मीडिया की मेहरबानी से इन फौलादी सींखचों को पार करके यहां के आम लोगों तक पहुंच ही रहे थे। उसी का नतीजा था कि जब ईरानी और चीनी जनता को सरकारी ज्यादतियों के खिलाफ एक होने का मौका मिला, तो उन्होंने अपनी सरकारों की तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाने में देर नहीं की। ऐसा लगता है कि ईरान की महिलाओं ने हिजाब की पसंद के अपने जिस हक के लिए यह लड़ाई शुरू की है, उसके पीछे पड़ोस के अफगानिस्तान के मुल्लाओं की भयानक ज्यादतियां भी हैं जिन्होंने अफगान महिलाओं को कुचलकर रख दिया है। कोई हैरानी नहीं होगी कि पड़ोस का यह हाल देखकर ईरानी महिलाओं को यह सूझा हो कि अगर वे अपने हक की आवाज बुलंद नहीं करेंगी, तो वे भी अफगान मौत मरेंगी। कुछ ऐसा ही चीन में अभी इसलिए हुआ हो सकता है कि वहां के राष्ट्रपति शी जिनपिंग एक और कार्यकाल पाकर असाधारण बाहुबल पा चुके हैं, और अब वहां के लोगों को भी यह लग रहा है कि उनकी सरकार और उनकी पार्टी जरूरत से अधिक ताकत हासिल कर चुके हैं। शायद इसी नई ताकत से आशंकित लोगों ने अब बेरहम सरकारी प्रतिबंधों के खिलाफ आवाज उठाई है, और यह आवाज चीन के दशकों पहले के थ्यानमान चौक के जनसंहार के बाद की पहली ऐसी बुलंद आवाज मानी जा रही है।

चीन का तो नहीं मालूम लेकिन ईरान में महिलाओं से शुरू हुए और सभी के बन गए इस जनआंदोलन का असर दिख रहा है। ईरान के धर्मशिक्षा केंद्र, कुम, पहुंचकर ईरानी अटॉर्नी जनरल ने साफ-साफ शब्दों में कहा है कि महिलाओं पर पोशाक की रोक-टोक लागू करने वाली ईरानी नैतिक-पुलिस को खत्म करने का विचार चल रहा है, और सरकार और संसद महिलाओं पर लागू पोशाक के नियमों पर सोच-विचार करने जा रही है। उन्होंने साफ-साफ कहा कि ड्रेस कोड पर दो हफ्तों में विचार कर लिया जाएगा। यह ईरानी महिलाओं की मामूली जीत नहीं है कि आज सरकार उनकी आवाज सुनने के लिए तैयार है, वरना पिछले कुछ हफ्ते में सरकारी फौजों ने तीन सौ से अधिक आंदोलनकारियों को मार डाला है। किसी भी तरह से ईरान किसी सीधे अंतरराष्ट्रीय दबाव में नहीं है, महिलाओं के इस आंदोलन को लेकर उसे किसी नए अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबंध को नहीं झेलना पड़ रहा है। ऐसे में अगर वहां की सरकार और संसद महिलाओं की बात सुनने जा रही है, तो इसका मतलब है कि जनआंदोलन से सरकार घबराई है।

जिन देशों में ईरान और चीन की तरह ज्यादतियां नहीं हैं, जहां मानवाधिकार इन दोनों देशों जितने कुचले नहीं गए हैं, वहां पर ऐसे जनआंदोलन दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। शायद ऐसे विशाल जनआंदोलन या विरोध प्रदर्शन के लिए एक खास डिग्री की ज्यादती लगती है जो कि दूसरे बहुत से देशों में अब तक उस डिग्री तक नहीं पहुंच पाई है। लेकिन बाकी देशों की अलोकतांत्रिक या तानाशाह सरकारों को इन दो देशों को देखकर संभल जाना चाहिए, साथ ही बाकी देशों की जनता को भी ईरानी महिलाओं और चीनी नागरिकों के हौसले से कुछ सीखना चाहिए। ये दोनों ही देश अभी जनता के हक पर किसी किनारे नहीं पहुंचे हैं, अभी वहां पर मामला मंझधार ही है, लेकिन इस पर लिखना इसलिए जरूरी है कि बाकी दुनिया के देश भी इन दो मामलों को बारीकी से देखें।

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